मैं अपनी जाति नहीं बदल सकता

punjabkesari.in Sunday, Nov 05, 2023 - 05:38 AM (IST)

जाति और आरक्षण फिर से सुर्खियों में है। संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 ने एस.सी., एस.टी. और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सक्षम बनाया। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ई.डब्ल्यू.एस.) के लिए आरक्षण 2019 में जोड़ा गया था। जब तक आरक्षण नीति है, यह तर्कसंगत है कि सटीक डाटा के लिए जाति की गणना की जानी चाहिए। आरक्षण के शोर के बीच जाति विहीन समाज का लक्ष्य धूमिल होता जा रहा है। कथित तौर पर भाजपा नेता और महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने कहा था, ‘‘मैं अपनी जाति नहीं बदल सकता।’’ यह बयान मराठा समुदाय के लिए आरक्षण के लिए आंदोलन के बीच उनकी असंदिग्ध स्थिति के संदर्भ में दिया गया था। प्रथम दृष्टय: यह बयान बिना अपवाद है। 

उन्होंने जाति से ऊपर उठ कर काम किया: बारीकी से जांच करते हुए मुझे आश्चर्य हुआ कि फडऩवीस की जाति एक मुद्दा क्यों बन गई है। नाम लिए बिना, मैं इस बात पर कायम हूं कि कुछ नेताओं की जाति अधिकांश भारतीयों के लिए अप्रांसगिक है जबकि कुछ नेताओं की जाति उनकी राजनीति के केंद्र में है और आम तौर पर लोग उन्हें कैसे मानते हैं। मुझे याद नहीं आता कि किसी ने कभी यह पूछा हो कि महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू या वल्लभ भाई पटेल किस जाति में पैदा हुए थे। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने सुभाष चंद्र बोस या राजेंद्र प्रसाद की जाति के बारे में कहीं पढ़ा हो। उन्हें महान इंसान के रूप में सम्मान दिया जाता था। किसी ने भी यहां तक कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने भी उन्हें किसी जाति में कैद करने या पालने का प्रयास नहीं किया। वह ईशनिंदा होता। 

दुर्भाग्य से, भारत में उन भाग्यशाली लोगों को छोड़ कर जो अंतरजातीय या अंतरधार्मिक जोड़ों की संतान है, हर कोई एक जाति में पैदा होता है। मुझे खुशी होती है कि बहुत से शिक्षित युवा विशेषकर शहरों में, अब किसी भी जाति से अपनी पहचान नहीं रखते। यह जानना भी उत्साहवर्धक है कि भले ही दम्पति एक ही जाति के हों वे अपने बच्चों को जाति की परवाह किए बिना अपनी पसंद से किसी से भी शादी करने की अनुमति देते हैं। आम धारणा से कहीं अधिक अंतरजातीय विवाह हो रहे हैं। ये सभी वास्तव में धर्मनिरपेक्ष और उस शब्द का उपयोग यहां गैर-धार्मिक अर्थ में किया जाता है और समाजवादी समाज के लिए शुभ संकेत हैं। 

अनुपस्थित संरचनाएं : मुझे इस बात का एहसास है कि जाति भारतीय मानस में गहराई से समाई हुई है। जातीय संरचना के कमजोर न होने का एक कारण यह है कि कोई वैकल्पिक संरचनाएं नहीं हैं। हमें सभी के लिए समान संरचनाएं बनाने की जरूरत है जो लोगों के अधिकारों की रक्षा करेगी। संकट के समय में उनकी सहायता के लिए आएगी। खुशी के क्षणों में उनके साथ खुशियां मनाएंगी और उन्हें कानून के समक्ष समानता और सभी को समान कानून की सुरक्षा का आश्वासन देगी (संविधान का अनुच्छेद 14)। हमारे चारों ओर देखें क्या ऐसी कोई संरचनाएं हैं। ऐसी संरचनाओं के अभाव में लोग विशेषकर गरीब और उत्पीड़ित एक जाति में शरण लेते हैं। भारत में जन आधारित और जन परिवर्तित संगठन बहुत कम हैं। गांधी जी ने ऐसे संगठन बनाने की कोशिश की लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वे संगठन कमजोर और लुप्त हो गए। उनके द्वारा बनाए गए सामुदायिक संगठन अपनी जीवंतता या स्वायत्तता खो चुके हैं। गुजरात के अहमदाबाद में साबरमती आश्रम के सामने आने वाली चुनौतियों को देखें। 

राजनीतिक दल जनता के सबसे बड़े स्वैच्छिक संगठन निकाय हैं। दुर्भाग्य से लोग (सदस्य) राजनीतिक दलों में अपनी जाति की पहचान लाते हैं। कई राजनीतिक नेता अपनी पहचान उस जाति से करने के लिए बाध्य हैं जिसमें उनका जन्म हुआ है। यह फडऩवीस की चिंता है। मैं यह मानने के लिए तैयार हूं कि देवेंद्र फडऩवीस धर्मनिरपेक्ष हैं और अपनी जाति से कोई संबंध नहीं रखते लेकिन मराठों के लिए आरक्षण को लेकर बढ़ते विवाद के बीच फंसे फडऩवीस को यह दलील देकर खुद को छुड़ाना पड़ा कि ‘मैं अपनी जाति नहीं बदल सकता।’ 

पिंजरे से बचो : किसी व्यक्ति के लिए जाति के जाल से बचने के कई तरीके हैं। पहला कदम जाति के नाम और उपनाम को हटाना है। दूसरा कदम जाति विशेष संगठनों से न जुडऩा है। सामाजिक और राजनीतिक नेता नेतृत्व कर सकते हैं। राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय प्रतीकों की पहचान जाति से नहीं करनी चाहिए। याद रखें वे प्रतीक हैं क्योंकि उन्होंने सभी लोगों के लिए काम किया न कि किसी विशेष जाति समूह के लिए। मैं मानता हूं कि किसी की जाति को बदलना संभव नहीं है। यदि कोई किसी जाति को संरक्षण या बढ़ावा न दे तो ही काफी है। एक औसत व्यक्ति किसी भी फार्म या दस्तावेज में अपनी जाति दर्ज करने से इंकार कर सकता है। व्यक्ति ऐसी इमारत में रहना चुन सकता है जिसमें विभिन्न जातियों के निवासी हों। 

व्यक्ति किसी अन्य जाति से जीवन साथी चुन सकता है और अपने बच्चे को किसी भी जाति से जीवन साथी चुनने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। कार्यस्थल पर, व्यक्ति स्नेह या द्वेष से रहित हो सकता है। अपनी जाति के व्यक्तियों के प्रति कोई स्नेह या दूसरी जाति के व्यक्तियों के प्रति कोई द्वेष नहीं। हम जानबूझ कर लोगों को उनकी जाति के आधार पर रूढि़बद्ध मानने से भी बचा सकते हैं। यह आसान कदम है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि वे बहुत सरल हैं और किसी की जाति के साथ पहचान करने की प्रवृत्ति को नहीं मिटाएंगे। यह सचमुच सच हो सकता है लेकिन हमें कहीं न कहीं से शुरूआत तो करनी होगी। 

बाबा साहेब अम्बेदकर ने जाति उन्मूलन नामक व्याख्यान तैयार तो किया लेकिन दिया नहीं। लेकिन उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था कि जाति का उन्मूलन इतनी आसानी से या इतनी जल्दी नहीं किया जा सकता। जाति को खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन निरंतर प्रयास से जाति पहचान और जाति संबंध को कमजोर किया जा सकता है। यदि आम नागरिक तथा सामाजिक एवं राजनीतिक नेता दृढ़ प्रयास करें तो भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन पर जाति के प्रभाव को निश्चित रूप से कम किया जा सकता है। यदि यह जीवन का आदर्शवादी दृष्टिकोण है तो मुझे आदर्शवादी होने में खुशी होगी।-पी. चिदम्बरम


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