मनुष्य और पशु-पक्षी एक-दूसरे पर निर्भर

punjabkesari.in Saturday, Sep 24, 2022 - 04:31 AM (IST)

अक्सर इंसान और जानवर के बीच संघर्ष होने, एक-दूसरे पर हमला करने की वारदात होती रहती है। मनुष्य क्योंकि सोच सकता है इसलिए वह अपने लाभ के लिए उनकी नस्ल मिटाने में भी संकोच नहीं करता जबकि प्रकृति की अनूठी व्यवस्था है कि दोनों अपनी-अपनी हदों में एक साथ रह सकते हैं। 

प्राकृतिक संतुलन : देश में चीते समाप्त हो गए थे और जानकारों के मुताबिक उससे प्राकृतिक सतुंलन में विघ्र पड़ रहा था, इसलिए उन्हें फिर से यहां बसाया जा रहा है। कुछ तो महत्वपूर्ण होगा कि यह कवायद की गई। चीता सबसे तेज दौडऩे वाला जीव है, अपनी हदें पार न करने के लिए जाना जाता है, जैव विविधता और ईकोसिस्टम बनाए रखने में सहायक है। वन संरक्षण के लिए जरूरी जानवरों की श्रेणी में आता है जैसे शेर, बाघ, तेंदुआ, हाथी, गैंडा जैसे बलशाली, भारी भरकम और बहुउपयोगी पशु हैं। 

सभी पशु पक्षी मनुष्य के सहायक हैं लेकिन यदि उनके व्यवहार को समझे बिना उनके रहने की जगह उजाडऩे की कोशिश की जाती है तो वे हिंसक होकर विनाश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हाथी जमीन को उपजाऊ  बना सकता है लेकिन उसे क्रोध दिला दिया तो पूरी फसल चौपट कर सकता है। इसी तरह गैंडा कीचड़ में रहकर मिट्टी की अदला-बदली का काम करता है, प्रतिदिन 50 किलो वनस्पति की खुराक होने से जंगल में कूड़ा-कर्कट नहीं होने देता और उसके शरीर पर फसल के लिए हानिकारक कीड़े जमा हो जाते हैं, वे पक्षियों का भोजन बनते हैं और इस तरह संतुलन बनाए रखते हैं। लेकिन यदि वह विनाश पर उतर आए तो बहुत कुछ नष्ट कर सकता है। 

हाथी के दांत और गैंडे के सींग के लिए मनुष्य इनकी हत्या कर देता है जबकि ये दोनों पदार्थ उसकी कुदरती मौत होने पर मिल ही जाने हैं। इन पशुआें के सभी अंग और उनके मलमूत्र दवाइयां बनाने से लेकर खेतीबाड़ी के काम आते हैं और कंकाल उर्वरक का काम करते हैं। ये दोनों पशु कीचड़ में रहकर दूसरे जानवरों के पीने के लिए किनारे पर पानी का इंतजाम करते हैं और सूखा नहीं पडऩे देते, सोचिए अगर ये न हों तो जंगल में प्यास, गर्मी और सूखे से क्या हाल होगा? 

मांसाहारी पशु शाकाहारियों का शिकार करते हैं और उनकी आबादी को नियंत्रित करने का काम करते हैं। जो घास फूस खाते हैं, वे वनस्पतियों को जरूरत से ज्यादा नहीं बढऩे देते और इस तरह जंगल में अनुशासन बना रहता है। इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और वह प्राकृतिक संतुलन होने से मौसम का मिजाज बिगडऩे से होने वाले नुक्सान से बचा रहता है। यदि हम वन विनाश करते हैं, अंधाधुंध जंगलों को नष्ट करते हैं तो उसका सीधा असर हम पर पड़ता है। 

निर्भरता : बहुत से पशु-पक्षी एेसे हैं जो न हों तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जाएगा। चमगादड़ जैसा जीव कुदरती कीटनाशक है। यह एक घंटे में खेतीबाड़ी के लिए हानिकारक एक हजार से अधिक कीड़े-मकौड़े खा जाता है। मच्छरों को पनपने नहीं देता और इस तरह कृषि और उसमें इस्तेमाल होने वाले जानवरों और दुधारू पशुओं की बहुत-सी बीमारियों से रक्षा करता है। ऊदबिलाव जैसा जीव बांधों और तालाबों में जमीन की नमी और हरियाली बनाए रखता है। इससे सूखा पडऩे पर आग नहीं लग पाती। वेटलैंड का निर्माण भी करते हैं और जरूरी कार्बन डाइअक्साइड का भंडार देते हैं। 

मधुमक्खी, तितली और चिडिय़ों की प्रजाति के पक्षी अन्न उगाने में किसान की भरपूर सहायता करते हैं। परागण में कितने मददगार हैं, यह किसान जानता है। पेस्ट कंट्रोल का काम करते हैं। गिलहरी को तो कुदरती माली कहा गया है। केंचुआ जमीन को उपजाऊ  बनाने के लिए कितना जरूरी है, यह किसान जानता है। मारे जितने भी पाले जा सकने योग्य जानवर और दूध देने वाले पशु हैं, उनकी उपयोगिता इतनी है कि अगर वे न हों या उनकी संख्या में भारी कमी हो जाए तो मनुष्य की क्या दशा होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। गाय, भैंस, गधे, घोड़े, बैल, सांड से लेकर कुत्ते बिल्ली तक किसी न किसी रूप में मनुष्य के सहायक हैं। इसीलिए कहा जाता है कि पशु पक्षी आॢथक संपन्नता के प्रतीक हैं। 

आज विश्व में इस बात की होड़ है कि गंभीर बीमारियों की चिकित्सा के लिए औषधियों की खोज और निर्माण के लिए भारतीय जड़ी-बूटियों और पारपंरिक नुस्खों को प्राप्त किया जाए। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र हो रहे हैं और इस बहुमूल्य संपदा की तस्करी करने वाले बढ़ रहे हैं। यह एक तरह से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि लालच में आकर हम जो कर रहे हैं वह विनाश का निमंत्रण है। 

इस स्थिति में सुधार तब ही संभव है जब सामान्य व्यक्ति यह समझ सके कि मनुष्य और पशु एक-दूसरे पर न केवल निर्भर हैं बल्कि पूरकभी हैं। दोनों का अस्तित्व ही खुशहाली का प्रतीक है। यदि जंगल से एक जीव लुप्त हो जाता है तो उसका असर सम्पूर्ण पर्यावरण पर पडऩा स्वाभाविक है। चीता इसका उदाहरण है। इस लुप्त हो गए जीव को फिर से स्थापित करने का प्रयास यही बताता है कि किसी भी भारतीय पशु के लुप्त होने का क्या अर्थ है। औद्योगिक विकास देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है लेकिन यदि इससे जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है तो दोबारा सोचना होगा।-पूरन चंद सरीन
 


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