बदहाल सिस्टम का ‘एनकाउंटर’ कैसे होगा

Saturday, Dec 07, 2019 - 02:01 AM (IST)

 सन् 80 के दशक में भ्रष्ट पुलिस और लचर अदालती व्यवस्था के खिलाफ दक्षिण भारत में बनी फिल्म का हिंदी में रीमेक हुआ था। उस ‘अंधा कानून’ फिल्म के नायक एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन थे। बच्चन साब ने फिल्मी किरदार में अदालतों से छूटे हुए बलात्कारियों को अपने अंदाज में दंडित करके पूरी न्यायिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी थीं। 3 दशक बाद सिस्टम तो नहीं बदला पर पात्र बदल गए। 

महानायक की सांसद पत्नी जया बच्चन जी ने संसद में भाषण देते हुए आह्वान किया कि बलात्कारियों की सार्वजनिक लिचिंग होनी चाहिए। उनके संदेश को साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर सज्जनार ने गंभीरता से लेते हुए 9 दिनों के भीतर ही चारों आरोपी बलात्कारियों को फिल्मी अंदाज में निपटा दिया। दुर्जन शक्तियों के खिलाफ फिल्मी अंदाज में कार्रवाई करने वाले सज्जन पुलिस अधिकारी पूरे देश के युवाओं और महिलाओं में बेहद लोकप्रिय हो गए हैं। पर दुर्भाग्य से देश के सभी पुलिस अधिकारी इतने सज्जन नहीं हैं कि उन पर भरोसा करके हम न्यायिक व्यवस्था को ताक पर रख सकें। निर्भया कांड से पूरा देश उबल गया। उस सनसनी में दिल्ली और केन्द्र में सरकारें भी बदल गईं लेकिन न्यायिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ। तेलंगाना मामले में पुलिस ने त्वरित न्याय की जो मिसाल बनाई है, उसके बाद कानून के सभी खंभों और अदालती व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। 

हर 20 मिनट में रेप की एक घटना
न्याय के लिए मुकद्दमों की जटिल, सुस्ती और प्रक्रिया : सन् 2013 के आंकड़ों के अनुसार देश में हर 20 मिनट में रेप की एक घटना हो रही है लेकिन सजा होने में अनेक दशक लग जाते हैं जिसकी वजह से अपराधियों का हौसला बुलंद रहता है। ये चारों कथित बलात्कारी यदि पुलिस एनकाऊंटर में नहीं मारे जाते तो उन पर सालों-साल मुकद्दमा चलता।  भारत में किसी भी आपराधिक मामले की बहुत ही लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया है। सबसे पहले तो आई.पी.सी. की सही धाराओं में पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज करे, यह बड़ी चुनौती होती है। उसके बाद पुलिस की लम्बी जांच।

तेलंगाना मामले में तो 4 अभियुक्तों के अलावा रेप का कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था, सिर्फ इस बिना पर पुलिस की जांच सही तरीके से आगे नहीं बढ़ पाती। पीड़िता और अभियुक्तों की शिनाख्त, मैडीकल रिपोर्ट, पंचनामा रिपोर्ट इन सब लम्बी कवायद के बाद अदालत में भारी-भरकम चार्जशीट फाइल की जाती। अदालत में सबूत, गवाहों के बयान, पक्ष-विपक्ष के वकीलों की बहस के कई साल बाद ट्रायल कोर्ट का फैसला आता। उसके बाद हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में अपील, रिव्यू और कैवियट। 

सबसे आखिर में राष्ट्रपति के सम्मुख दया याचिका, जिस वजह से अभी निर्भया मामले के अभियुक्तों की फांसी रुकी हुई है। न्यायिक तंत्र की सुस्ती और दुरुपयोग से पीड़ित लोगों का न्यायिक व्यवस्था से भरोसा उठ गया है। मानवाधिकारवादी लोग पुलिस एनकाऊंटर को जंगलराज करार दे रहे हैं लेकिन साइबराबाद के जिस शहर में इसका स्वागत हो रहा है, वह साइबर सिटी हमारे विकसित व्यवस्था का प्रतिनिधि शहर है। संविधान की 70वीं जयंती पर इस एनकाऊंटर से सबक लेकर क्या पुलिस, कानून और न्यायिक व्यवस्था में सुधार होगा? 

अधिकांश कानून अंग्रेजों के समय के
अंग्रेजों के समय की कानूनी व्यवस्था को बदलने में विफल संसद: संविधान को लागू हुए 70 वर्ष हो गए हैं लेकिन देश में अभी भी अधिकांश कानून और न्यायिक व्यवस्था अंग्रेजों के समय की चल रही है। जब हमारा संविधान बना था, उस समय बिजली, फोन, मोबाइल, इंटरनैट, कम्प्यूटर, टी.वी., सिनेमा और डिजीटल पोर्नोग्राफी का चलन नहीं था। नए जमाने के शातिर अपराधियों से पुरानी कानूनी व्यवस्था में त्वरित न्याय की उम्मीद कैसे की जाए? अफसरशाही और लालफीताशाही से निजात पाने के लिए हमारे विधायक और सांसदों ने अपने विशेषाधिकार में करोड़ों रुपए की निधि का बंदोबस्त कर लिया और चुनाव जीतने के बाद आम जनता को बदहाली में छोड़ दिया। अफसरों और कलैक्टरों से गाली-गलौच और मारपीट कर जीतने वाले बाहुबली विधायक और सांसद छुटभैये अपराधियों के लिए संरक्षक और नजीर बन जाते हैं, फिर कानून अपना काम कैसे करे? बलात्कार की हर सरगर्मी के बाद कानूनों को सही तरह से लागू करने की बजाय और सख्त कानून लाए जाने की मांग होती है। 

ए.डी.आर. की रिपोर्ट के अनुसार विधानसभा और संसद में लगभग एक तिहाई माननीय विधायक व सांसद दागी और आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। अनेक विधायकों और सांसदों के ऊपर हत्या, लूट और रेप जैसे जघन्य अपराधों के मामले चल रहे हैं। 10 रुपए की सहज उपलब्ध पोर्नोग्राफी क्लिप और इंटरनैट सामग्री से रेप के मामलों में बढ़ौतरी हो रही है। पोर्नोग्राफी रोकने के लिए कानून है और इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी है। इसके बावजूद इस बारे में ठोस कार्रवाई की बजाय संसद में सिर्फ बहस ही होती है। अदालतों की व्यवस्था को कानून के माध्यम से ही सुधारा जा सकता है, जिसे करने में हमारी संसदीय व्यवस्था विफल रही है।

न्यायिक व्यवस्था की बदहाली
देश की अनेक अदालतों में सवा तीन करोड़ से ज्यादा मुकद्दमों के बोझ से 25 करोड़ से ज्यादा भारतीय दबे हुए हैं, पिछले 70 सालों में अदालतों के ‘तारीख पर तारीख’ सिस्टम पर ‘दामिनी’ समेत अनेक फिल्में बनीं, लेकिन न्याय व्यवस्था सिर्फ लोगों को सुधारने में ही लगी रही। 21वीं शताब्दी में आम जनता इंटरनैट और सोशल मीडिया से तुरंत संपर्क करके जवाब भी हासिल कर लेती है। 

छिटपुट मामलों में गिरफ्तार हुए लाखों अशिक्षित और गरीब लोग जेलों में सड़ रहे हैं। अदालतों के सुस्त सिस्टम को ठीक किए जाने के लिए उनकी कार्रवाई की रिकाॄडग और सीधे प्रसारण की जरूरत है। अदालतों के बंद कमरों में बाहर की खुली रोशनी जाए, इसके लिए सीधे प्रसारण की व्यवस्था लागू करने के लिए ङ्क्षथक टैंक सी.ए.एस.सी. की याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2018 में आदेश दिया था, जिस पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। तेलंगाना में पुलिस एनकाऊंटर के बाद जश्न के माहौल को न्यायिक व्यवस्था के खिलाफ जनता के अविश्वास प्रस्ताव के तौर पर देखा जा सकता है। 

संविधान के अनुसार पुलिस की व्यवस्था राज्यों के अंतर्गत आती है। देश में विपक्षी नेता पुलिस की आलोचना भले ही करें, लेकिन सरकार में आने के बाद पुलिस तंत्र पर सभी नेताओं की निर्भरता हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने पी.यू.सी.एल. मामले में सन् 2014 के फैसले से पुलिस मुठभेड़ों या एनकाऊंटर की जांच के लिए 16 सूत्रीय गाइडलाइन बनाई थी। तेलंगाना पुलिस को देश और समाज में भले ही वाहवाही मिल रही है परंतु सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, क्या एनकाऊंटर करने वाले पुलिस अधिकारियों की जांच होगी? अंग्रेजों के समय से चली आ रही पुलिस व्यवस्था को बदलने के लिए संसद की समितियों और विधि आयोग द्वारा दी गई अनेक रिपोर्टें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2006 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधार को लागू करने के लिए राज्यों और केन्द्र को निर्देश दिए। उसके बावजूद आज तक किसी भी राज्य ने पुलिस सुधार लागू करने के लिए ठोस पहल नहीं की है।  पुलिस के पास अपराधियों को पकडऩे का अधिकार है लेकिन दंड देने के लिए एक न्यायिक व्यवस्था बनाई गई है। तेलंगाना की तर्ज पर देश के अन्य राज्यों में यदि पुलिस को ही दंड देने के अधिकार का चलन बढ़ गया तो यह भारत में कानून के शासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।-विराग गुप्ता
 

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