कैसे नियंत्रित हो सियासत में काला धन

punjabkesari.in Friday, Mar 01, 2024 - 05:28 AM (IST)

गत कुछ दिनों में देश की सियासत में जो कुछ हो रहा है, उससे भले ही सरकार बन और बिगड़ रही हो लेकिन इससे लोकतंत्र की मूल आत्मा पर कुठाराघात तो हुआ ही है। एक तो सुप्रीम कोर्ट ने इलैक्शन बॉन्ड से राजनीतिक दलों की चंदा लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी पाई और उसे अवैध घोषित कर दिया। फिर चुनाव आयोग की वैबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के विश्लेषण के बाद एक समाचार पोर्टल ने बताया कि किस तरह  राजनीतिक चंदे सरकार और सरकार की जांच एजैंसियों के बीच मिलीभगत का नतीजा होते हैं। 

उसी दौरान चंडीगढ़ नगर-निगम चुनाव में महज 36 में से 8 वोट लूटे गए, वह भी कैमरे के सामने और सुप्रीमकोर्ट ने चुनाव परिणाम में दखल दिया। हाल ही में सम्पन्न राज्यसभा चुनावों के दौरान भले ही बात कर्नाटक की हो या फिर बिहार, उ.प्र. या हिमाचल प्रदेश की-एक बात स्पष्ट है कि सुनियोजित तरीके से आम लोगों को भरोसा दिलवाया जा रहा है कि नैतिकता और वैचारिकता का चरम पतन बहुत बढिय़ा बात है, क्योंकि मीडिया में पीड़ित या जिसके लोगों ने पाला बदला, उसे निकम्मा और वहीं अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले को विजेता के रूप में पेश किया जा रहा है। 

दूसरी बात स्पष्ट है कि संविधान निहित दलबदल कानून अब रद्दी का टुकड़ा है और इसका केवल ताकतवर को और शक्ति देने के लिए ही दुरुपयोग होता है। तीसरा अब मान लो कि लोकतंत्र का अर्थ है-जिसकी लाठी-उसकी भैंस, जिस राज्य में जिसकी ताकत है वह वोट लूट लेगा। आम लोग जो मत या वोट देते हैं वह नेता के लिए लाखों की कमी का जरिया मात्र है। भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि ‘‘वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है। वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए।’’ यदि कोई भी सरकार लोकतंत्र की इस मूल भावना को जीवित रखने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन करती है तो आम आदमी खुद को लोकतंत्र के करीब समझेगा। 

असल में यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनाव बहुत खर्चीले हो गए हैं। किसी भी दल से टिकट पाना हो या प्रचार के लिए समर्थकों को मैदान में भेजना या फिर मतदाताओं को रिझाना-लुभाना , सभी कुछ केवल धन पर आश्रित है और चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित सीमा में यह सब खर्च संभव नहीं होता। ऊपर के खर्चों के लिए ऊपर से ही कमाई होती है और इस राह में अनाचार, भ्रष्टाचार और दुराचार को विजेता की नैतिकता का जामा पहना दिया जाता है। 

यह समय की मांग है कि एक जनकल्याणकारी और लोकतंत्रात्मक शासन के लिए चुनावी तंत्र में आमूल-चूल परिवर्तन अनिवार्य है और इसकी शुरूआत वित्तीय तंत्र से ही करनी होगी। ऐसा नहीं कि चुनाव सुधार के कोई प्रयास किए नहीं गए, लेकिन विडंबना है कि सभी सियासती पाॢटयों ने उनमें रुचि नहीं दिखाई। वी.पी. सिंह वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुवाई में 1990 में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाऊड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिएं। इसमें यह भी कहा गया था कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों को न केवल सरकार के अंतर्गत किसी नियुक्ति बल्कि राज्यपाल के पद सहित किसी अन्य पद के लिए अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। साथ ही किसी भी व्यक्ति को 2 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों पर चुनाव लडऩे की अनुमति न देने, निर्दलीय चुनाव लडऩे पर जमानत राशि बढ़ाने की बात भी इस रिपोर्ट में थी। 

इन सिफारिशों में  से केवल ए.ए. वी.एम. से चुनाव को लागू किया गया, शेष सुझाव  कहीं ठंडे बस्ते में पड़े हैं। वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनीतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे। 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर-सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढाक के 3 पात’ रहा। 

सन 1962 में सांसद के. संथानम की अध्यक्षता में चार सांसद और 2 शीर्ष अफसरों की एक कमेटी भ्रष्टाचार के विभिन्न पहलुओं के जांच के लिए गठित की गई थी। हालांकि इस कमेटी के दायरे में राजनीतिक लोग नहीं थे, फिर भी 1964 में आई इसकी रिपोर्ट में कहा गया था कि  राजनीतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1970  में प्रत्यक्ष कर जानने के लिए गठित वांचू कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है। 

अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए। आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पाॢटयां अपने लेन-देन के खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं। अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के भी निर्देश दिए थे। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। असल बात तो यह है कि अब चुनाव आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है, उसी का परिणाम है कि उससे उपजा प्रतिनिधि भी जनता से बहुत दूर है। तभी उसके समाज से सरोकार नहीं हैं और जनता भी वोट देने के बावजूद उसे अपना ‘प्रतिनिधि’ नहीं मानती।-पंकज चतुर्वेदी 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News