हम शहीदों के परिवारों की कितनी चिंता करते हैं

punjabkesari.in Saturday, Dec 16, 2017 - 03:39 AM (IST)

1971 में बंगलादेश में भारतीय सशस्त्र सेनाओं के समक्ष पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा पाकिस्तान पर भारत की निर्णायक जीत की 46वीं वर्षगांठ है। यह भारत-पाक युद्ध में लडऩे वाले हमारे बहादुर सैनिकों और सशस्त्र सेनाओं को श्रद्धांजलि अर्पित करने तथा उनके अदम्य साहस भरे कारनामों को याद करने का दिन है। 

प्रति वर्ष 16 दिसम्बर को विजय दिवस के उपलक्ष्य में हमें सभी ओर से श्रद्धांजलियों और स्मृतियों की बाढ़-सी देखने को मिलती है। इस दिन पर सशस्त्र सेनाओं की बहादुरी और हमारे सैनिकों द्वारा देश की रक्षा के लिए किए गए बलिदान के बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है लेकिन हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि इन श्रद्धांजलियों से बढ़कर हम अपने सैनिकों और उनके परिवारों की क्या पर्याप्त चिंता करते हैं? हमारी सशस्त्र सेनाओं को क्या उतना सम्मान मिलता है जितने के वे हकदार हैं और क्या उनके परिवारों की ऐसी देखभाल होती है जितने की उनको जरूरत है? 

इन 45 वर्षों के दौरान हमारी सशस्त्र सेनाओं के जवानों को अनेक मुद्दे दरपेश आए हैं जिनका समाधान करने की जरूरत है। गत काफी समय से सेवारत और सेवानिवृत्त सैनिकों के समुदाय में सिविल सेवाओं की तुलना में अपने स्टेटस और रैंक तथा वेतन में आई गिरावट को लेकर चिंताएं बनी हुई हैं। इससे सशस्त्र सेनाओं में असंतोष काफी बढ़ गया है। इस मामले में रक्षा मंत्री द्वारा गठित एक समिति द्वारा जांच-पड़ताल हो रही है। मुझे उम्मीद है कि यह मुद्दा जल्दी ही हल हो जाएगा। ऐसे अनेक मामले देखने में आए हैं जब सेना के रिटायर शूरवीरों को अपने न्यायोचित लाभ और पैंशनें लेने के लिए अदालतों में मुकद्दमेबाजी की लंबी, जटिल और दुखदायी प्रक्रिया में से गुजरना पड़ा है, खासतौर पर विकलांगता पैंशन से संबंधित मामलों में। 

जनवरी 2014 में मैंने तत्कालीन रक्षामंत्री ए.के. एंटनी को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि वे पूर्व सैनिक कल्याण विभाग (डी.ई.एस.डब्ल्यू.) द्वारा जारी वह मीमो रद्द करवाएं जिसमें कहा गया है कि यदि पूर्व सैनिक विकलांगता और पैंशन लाभों के मुद्दे पर रक्षा मंत्रालयों को अदालत में घसीटते हैं तो उन्हें सुप्रीमकोर्ट तक अपना मुकद्दमा लडऩा होगा और सुप्रीमकोर्ट के फैसले के आधार पर ही उन्हें कुछ सुविधा दी जाएगी। मेरे पत्र के बाद ही इस मीमो को वापस लिया गया था। फिर भी यह स्मरण करके बहुत पीड़ा होती है कि 2014-2016 के बीच केवल विकलांगता पैंशन के मामले में ही सैनिकों विरुद्ध कुल 794 अपीलें दायर की गई थीं।

जनवरी 2014 का मीमो जब मेरे हस्तक्षेप के बाद अप्रैल 2016 में वापस लिया गया तो डी.ई.एस.डब्ल्यू. ने नए निर्देश जारी कर दिए जिनके अंतर्गत विकलांगता पैंशन लाभों के सभी मामलों में अपने आप ही अपीलें दायर हो जाएंगी। चालू वर्ष के जून महीने में डी.ई.एस.डब्ल्यू. ने एक बार फिर अदालती आदेश को चुनौती न देने की बात करते हुए रक्षा बलों को इन सैनिकों की विकलांगता पैंशन अदा करने का आदेश दिया। रक्षा मंत्री को 1 जुलाई को भेजे अपने पत्र में मैंने सरकार को अपील की थी कि उन्हें विकलांगता पैंशन और लाभों के मामलों में सभी लंबित याचिकाएं अनिवार्य रूप में तुरन्त वापस लेनी चाहिएं। मैंने यह भी रेखांकित किया था कि डी.ई.एस.डब्ल्यू. के जून के आदेश को अंतिम माना जाए और भविष्य में इसकी प्रकृति और भावना के विपरीत जाने वाला कोई आदेश जारी न किया जाए। 

अभी हाल ही में 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों पर आधारित आदेश का मुद्दा उठा था जिसमें रक्षा सेनाओं के शहीदों और विकलांग सैनिकों के बच्चों को शैक्षणिक राहत की अधिकतम सीमा केवल 10,000 रुपए होगी। हमारी सशस्त्र सेनाओं के शहीदों के बच्चों की पढ़ाई का खर्च वहन करने की स्कीम 18 दिसम्बर, 1971 को लोकसभा में घोषित की गई थी और 1972 में इसे संसद के सत्र में पेश किया गया था जिसमें पूरी पढ़ाई से लेकर आगे तक की पढ़ाई के लिए ट्यूशन फीस तथा अन्य शुल्कों को पूरी तरह माफ करने की अनुमति दी गई थी। यह 1971 के युद्ध में अपनी जिंदगी न्यौछावर करने वाले हमारे सैनिकों  की विधवाओं तथा बच्चों को समर्थन देने और राष्ट्र की कृतज्ञता का प्रमाण देने का छोटा-सा संकेत था। 

मेरा मानना है कि शहीद परिवारों के लिए हमने जो प्रतिबद्धताएं व्यक्त की थीं उन्हें न तो कमजोर किया जाना चाहिए और न ही किसी भी कीमत पर वापस लिया जाना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं जिन शूरवीरों ने देश के लिए अपनी जिंदगियां अर्पित कीं और अपने शरीर के महत्वपूर्ण अंग खो दिए उनके बच्चों और परिवारों के प्रति अपना नैतिक कत्र्तव्य पूरा करें।

रिटायर्ड सैनिकों के अलावा युद्ध विधवाओं और वीर नारियों को किसी न किसी तकनीकी आधार पर वाजिब पैंशन लाभों से इन्कार करने के भी अनेक मामले सामने आए हैं। जरा उस वीरांगना की व्यथा की कल्पना करें जिसने पहले अपना सैनिक पति देश की बलिवेदी पर अॢपत किया और फिर 10 वर्षों तक पारिवारिक पैंशन हासिल करने के लिए लंबी अदालती लड़ाई लड़ी। ऐसी बातें अव्वल तो होनी ही नहीं चाहिएं और यदि किसी कारणवश होती हैं तो उनका तुरन्त समाधान किया जाना चाहिए क्योंकि इनसे रक्षा सेनाओं के मनोबल पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। 

मैं लंबे समय से यह वकालत करता आ रहा हूं कि भारत सरकार भी अमरीका और ब्रिटेन की तर्ज पर पूर्व सेनानियों के लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ावा देने हेतु एक कानून पारित करे। मैंने स्वयं 2012 में एक प्राइवेट सदस्य विधेयक प्रस्तुत किया था जिस पर अभी तक चर्चा नहीं हुई। समय आ गया है कि हम जुबानी जमा खर्च करने की बजाय रक्षा सेना के अपने जवानों, पूर्व सैनिकों, वीर नारियों, उनके बच्चों और माता-पिता के लिए हर प्रकार की सुविधाएं सुनिश्चित करें और उन्हें यह एहसास करवाएं कि पूरा राष्ट्र उनकी ङ्क्षचता कर रहा है।-राजीव चंद्रशेखर


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