स्कूलों में कितने ‘सुरक्षित’ हैं विद्यार्थी

Saturday, Feb 06, 2016 - 12:43 AM (IST)

(पूरन चंद सरीन): पिछले दिनों देश के विभिन्न भागों से स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक ऐसी खबरें देखने-सुनने में आई हैं कि किसी भी व्यक्ति का परेशान होकर यह सोचना स्वाभाविक है कि आखिर कहीं तो गड़बड़ है जो इस तरह की घटनाएं हो रही हैं।

 
मिसाल के तौर पर दक्षिण दिल्ली के एक स्कूल में पढऩे वाले 6 साल के दिव्यांश की सैप्टिक टैंक में गिरने से मौत हो गई। कुछ समय पहले एक निजी स्कूल की 6 वर्षीय छात्रा अपने संगीत टीचर द्वारा यौन शोषण का शिकार हुई और इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई तथा एक 6 वर्षीय बालक उसके ही अध्यापक की यौन हिंसा का शिकार बना।  इसी तरह की अन्य घटनाएं जैसे कि स्कूल जाने के लिए बस से जाना होता है तो यहां भी उसके ड्राइवर ने एक छात्र के साथ दुव्र्यवहार किया। यहां तक कि एक स्कूल में सफाई कर्मी ने स्कूल के शौचालय में जान-बूझ कर या लापरवाही से पानी की जगह एसिड छोड़ दिया, जिसका प्रयोग कर स्कूल के 3 छात्र गंभीर रूप से घायल हो गए। खेल के मैदान में चोट लगने की घटनाएं अक्सर होती ही रहती हैं। एक स्कूल की छठी कक्षा का छात्र एक सीनियर छात्र द्वारा फैंके गए भाले से घायल हो गया। 
 
यह स्कूल की लापरवाही ही तो है कि एक स्कूल में भगदड़ मचने से 5 लड़कियों की मौत हो गई, वहीं एक अन्य स्थान पर कई स्कूली बच्चे आग से झुलस कर मर गए। स्कूल में भोजन मिलता है तो यहां भी एक विद्यालय में जहरीले मिड-डे मील को खाने के बाद 24 बच्चों की मौत हो गई। गंभीर बात तो यह है कि हर बार ऐसी घटनाओं को कुछ दिन तूल देने के बाद ठंडे बस्ते में बंद कर दिया जाता है।
 
सरकार ने स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के लिए नियम और कानून बनाए हैं। इनके अनुसार सभी स्कूलों को अपने स्कूल में भगदड़ होने पर, जिसमें अचानक आग लग जाने से लेकर भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाएं हो सकती हैं, स्कूल में किसी सुरक्षित स्थान का होना अनिवार्य है। इसी तरह खेल के मैदान में डाक्टर और चोट लगने पर इलाज की व्यवस्था होनी चाहिए, बिजली से सुरक्षा की व्यवस्था, बच्चों को टूर पर ले जाते हैं तो लिखित रूप से जिला मैजिस्ट्रेट से इजाजत लेना और साथ ही माता-पिता में से किसी एक से लिखित अनुमति लेना जरूरी है। 
 
अब हम इस बात पर आते हैं कि इस तरह की घटनाओं के होने के कारण क्या हैं? ये स्कूल प्रबंधकों से लेकर अध्यापकों की लापरवाही का नतीजा हैं या फिर कमजोर कानून व्यवस्था का जो इन अपराधों से निपटने में सक्षम नहीं है। 
 
पहले समझना जरूरी होगा कि नियम क्या कहते हैं। इस बात के नियम हैं कि स्कूल बस किस स्पीड से चलेगी और निश्चित संख्या से ज्यादा उसमें बच्चों को नहीं ले जाया जा सकता लेकिन आज भी सड़कों पर स्कूल बसों को फर्राटे से दौड़ते हुए देखा जा सकता है, मानो कि किसी रेसिंग कम्पीटिशन में दौड़ रही हों। उनमें जरूरत से ज्यादा बच्चों को ले जाना तो इनके लिए मामूली बात है। अंदाजा लगाइए कि इन बसों में बच्चे कितने डर जाते होंगे। इसी के साथ-साथ स्कूल में बिना रेङ्क्षलग की सीढिय़ां नहीं हो सकतीं, ऑप्रेटर के बिना लिफ्ट नहीं चल सकती, लैब में रसायन, बर्नर से हादसा होने पर एमरजैंसी इंतजाम होना जरूरी है।
 
आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में ही स्कूल कैब और बसों की बात करें तो केवल 7000 बसें ही पंजीकृत हैं लेकिन सच यह है कि इससे कहीं ज्यादा स्कूल कैब और बसें इस्तेमाल में आ रही हैं। जनवरी में 2131 बस चालकों और 3856 वैन चालकों पर अनेक अपराधों के लिए मामले दर्ज हैं, जिनमें बिना लाइसैंस की कैब के 2000, परमिट के उल्लंघन के लिए 2000 और खराब ड्राइविंग के 1000 मामले शामिल हैं, साथ ही 42 गाडिय़ों को जब्त किया गया है। 
 
हमारे देश में 43 करोड़ बच्चे हैं जो कुल आबादीका एक-तिहाई हैं। जरा गौर कीजिए, आंकड़ों के मुताबिक हर 30 मिनट पर कोई बच्चा कहीं न कहीं किसी न किसी तरह किसी के गलत व्यवहार का शिकारहो जाता है। चिन्ता की बात है कि पिछले 5 वर्षों में इस तरह की घटनाओं में 150 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि हुई है।
 
बच्चों को सजा देने के लिए उन्हें मारना-पीटना, स्कूल के मैदान में  दौडऩा, घंटों तक घुटनों के बल बिठाए रखना, चिकोटी काटना और थप्पड़ मारना, क्या ये सब आधुनिक सोच के साथ मेल खाता है? हालांकि सन् 2000 में ही कोर्ट ने बच्चों को इस प्रकार की सजा देने पर रोक लगा दी थी, साथ ही यह आदेश भी जारी किया था कि यदि स्कूल में  किसी घटना के चलते बच्चे की मौत हो जाए, चोट लग जाए या अस्पताल में भर्ती हो तो स्कूल मैनेजमैंट को ही इसके लिए जिम्मेदार माना जाएगा और उस पर आपराधिक कार्रवाई की जाएगी।
 
बच्चों की सुरक्षा के लिए 2012 में एक कानून बनाया गया जिसके चलते यदि बच्चे के साथ कोई भी यौन शोषण करते पाया जाता है तो उसे 3 साल की सजा और जुर्माना देना होगा। इस एक्ट के तहत अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष अदालत की स्थापना भी की जानी जरूरी है।
 
हमारे देश का उपभोक्ता संरक्षण कानून स्कूलों द्वारा विद्याॢथयों से की गई लापरवाही से निपटने में सक्षम है, अनेक मामलों में स्कूलों को दंडित भी किया गया इसलिए सबसे पहले तो माता-पिता को इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि स्कूल में उनके बच्चों केसाथ कोई भी अमानवीय घटना होती है तो वे बिना हिचकिचाहट कानून का दरवाजा खटखटाने से नहीं चूकेंगे।
 
बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं। उन्हें एक सुरक्षित वातावरण चाहिए, जिसमें वे अच्छे नागरिक बन सकें। हमारा कत्र्तव्य है कि हम बच्चों की रक्षा कर उन्हें एक बेहतर कल दें, जिसके लिए माता-पिता को बचपन से ही बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श के बीच अंतर सिखाना चाहिए। बच्चों के स्कूल की ठीक प्रकार से जांच करके ही उसका एडमिशन करवाएं। समय-समय पर बच्चों से स्कूल से जुड़ी हर प्रकार की जानकारी लेते रहें।
 
हम यह सोचकर अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं कि वे शिक्षित होंगे और स्कूल उनके लिए सबसे सुरक्षित स्थान है लेकिन क्या हमने कभी स्कूल में बच्चों की सुरक्षा को लेकर अध्यापकों तथा प्रबंधकों से जवाब-तलब किया है? यह जानने की कोशिश की है कि स्कूल में सुरक्षा के सभी जरूरी इंतजाम मौजूद हैं या नहीं? और अब तो सी.सी. टी.वी. कैमरों की निगरानी से अपराधों पर लगाम लगाना काफी आसान हो गया है। मोबाइल टैलीफोन से माता-पिता इस बात पर नजर रख सकते हैं कि उनके बच्चों के साथ कोई अनहोनी घटना तो नहीं हो रही। यह उनका नैतिक और कानूनी अधिकार है।   
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