पाकिस्तान ‘समर्थकों’ को कब तक बर्दाश्त करेगा भारत

Friday, Feb 22, 2019 - 03:10 AM (IST)

पुलवामा आतंकवादी हमले से संबंधित घटनाक्रम के बाद देश में अधिकांश लोगों का मत है कि पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर ठोंक दिया जाए। यह जनभावना स्वाभाविक और उचित इसलिए भी है क्योंकि पिछले सात दशकों में पाकिस्तान ने अपने जन्म से भारत के खिलाफ युद्ध (छद्म युद्ध सहित) छेड़ा हुआ है जिसमें हजारों सुरक्षाबलों के साथ-साथ आम नागरिकों की भी जान जा चुकी है। वह चाहे 22 अक्तूबर 1947 को भारत पर उसका पहला प्रत्यक्ष हमला हो या वर्ष 2008 में मुंबई का 26/11 आतंकवादी हमला अथवा फिर 2016 का पठानकोट और उड़ी। यक्ष प्रश्न है कि क्या केवल पाकिस्तान पर निर्णायक कूटनीतिक, व्यापारिक और सामरिक कार्रवाई से भारतीय उपमहाद्वीप में सांप्रदायिक सद्भाव और शांति स्थापित हो सकती है? 

काफिर-कुफ्र का दर्शन
पाकिस्तान वास्तव में उस रुग्ण विचारधारा की उपज है या यूं कहें स्वयं एक विषाक्त विचार है, जिसके गर्भ में ‘काफिर-कुफ्र’ का दर्शन है। जिस चिंतन ने 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन किया था वह आज भी भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान और बंगलादेश के साथ शेष भारत में भी ज्यों की त्यों है-कश्मीर का वर्तमान स्वरूप उसका सबसे बड़ा मूर्तरूप है। पाकिस्तान के अधिकांश लोग अपने देश के वैचारिक दर्शन के अनुरूप पुलवामा घटनाक्रम पर गौरवांवित हैं और आतंकवादी आदिल को शहीद की संज्ञा दे रहे हैं। यह बात ठीक है कि इस कायराना हमले की भारत में निंदा हो रही है, किंतु समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जिसकी प्रतिक्रिया और आचरण में विषाक्त पाकिस्तानी मानसिकता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है। 

कश्मीर के एक बड़े वर्ग में सी.आर.पी.एफ. के शहीद जवानों की बजाय आत्मघाती आदिल और आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के लिए सहानुभूति कितनी है, यह उस मीडिया रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है जिसके अनुसार, पुलवामा के काकापोरा गांव में आदिल के घर पर पहुंचने वाले अधिकतर लोग उसके परिवार से संवेदना जताकर उन्हें मुबारकबाद भी दे रहे हैं। यहां बात केवल कश्मीर तक सीमित नहीं है, इस रुग्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग शेष भारत में भी फैले हुए हैं।

पुलवामा आतंकी हमले के बाद कर्नाटक में बेंगलुरू पुलिस ने 23 वर्षीय कश्मीरी छात्र ताहिर लतीफ  को हिरासत में लिया था, जिसने सोशल मीडिया में लिखा था ‘‘इस बहादुर व्यक्ति को एक बड़ा सलाम। अल्लाह आपकी शहादत को स्वीकार करे और आपको जन्नत में सर्वोच्च स्थान दे शहीद आदिल भाई।’’ बेंगलुरू के ही एक निजी कॉलेज के तीन कश्मीरी छात्रों-गोवल मुश्ताक, जाकिर मकबल और हैरिस मंसूर को हमले का जश्न मानने और आतंकी आदिल का विरोध करने वाले अन्य सहपाठियों से मारपीट करने पर गिरफ्तार किया गया था। 

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने तो अपने एक कश्मीरी छात्र को देशविरोधी टिप्पणी करने पर निलंबित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश में भी छात्र तहसीन गुल को उसके तीन साथियों के साथ हिरासत में लिया गया था। साथ ही, जयपुर में पैरामैडीकल की 4 कश्मीरी छात्राओं को नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ  मैडीकल साइंस (निम्स) ने निलंबित कर दिया। इन पर आरोप है कि वे पुलवामा हमले का जश्न मना रही थीं। देश के कुछ हिस्सों में इन्हीं आरोपों के कारण अध्यापकों को भी हिरासत में लिया गया है। 

तथ्यों के साथ छेड़छाड़
इन देशविरोधी मामलों को मीडिया सहित समाज का एक वर्ग, जो स्वयं को सैकुलरिस्ट कहना पसंद करता है, अपने अनुकूल विमर्श बनाने के लिए तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करते हुए इस पूरे घटनाक्रम को स्थानीय लोगों द्वारा कश्मीरी छात्रों को प्रताडि़त किए जाने में परिवर्तित करने का प्रयास कर रहा है। परिणामस्वरूप, संबंधित राज्यों की सरकारों सहित स्वयं सी.आर.पी. एफ. को ऐसी अफवाहों पर ध्यान न देने की आधिकारिक सूचना और दिशा-निर्देशों को सोशल मीडिया पर जारी करने हेतु विवश होना पड़ा। 

वास्तव में इस विक्षुब्धकारी स्थिति के लिए ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की वह वामपंथी विचारधारा जिम्मेदार है, जिसने अपने कुत्सित दर्शन के अनुरूप भारत को कभी भी एक सनातन राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया और आज भी उसे विभिन्न राष्ट्रों का समूह मानती है। विभाजन के समय पाकिस्तान आंदोलन में जहां इसी चिंतन से मुस्लिम लीग और ब्रितानिया को बौद्धिक खुराक मिली, वहीं उसी दर्शन के कारण कश्मीर में सुरक्षाबलों पर पत्थर फैंकने और हथियार उठाने वाले भटके हुए, बेरोजगार, गरीब और निरक्षर मासूम युवा नजर आते हैं। यदि सुरक्षाबल उनपर प्रतिक्रिया स्वरूप कोई कार्रवाई करते हैं तो उस जमात के लिए वह मानवाधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघन हो जाता है। 

इस पृष्ठभूमि में कल्पना करना कठिन नहीं कि यदि आतंकवादी हमले में शहीद हुए सी.आर.पी.एफ. जवानों के स्थान पर उतनी ही संख्या किसी मुठभेड़ में मारे गए पत्थरबाजों और आतंकवादियों की होती तो क्या होता- केंद्र की मोदी सरकार को उलटा लटका दिया जाता, असहिष्णुता के नाम पर विश्व में भारत की बहुलतावादी छवि को कलंकित करने का प्रयास किया जाता, विदेशी एजैंडे पर काम कर रहे कई  स्वयंसेवी संगठन कैंडल मार्च निकालते और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग में पुरस्कार वापसी का दौर शुरू हो जाता। 

भारत तोड़ो गैंग 
इसी तरह ‘भारत तोड़ो गैंग’ के लिए घाटी की मस्जिदों सहित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे विख्यात राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों में भारत-हिंदू विरोधी नारे (अन्य गतिविधियों सहित) और आतंकवादी अफजल गुरु व याकूब मेनन को फांसी से बचाने की मुहिम ‘अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता’ का समकक्ष बन जाती है। किंतु जब इसका विरोध राष्ट्रवादियों द्वारा किया जाता है, तो वह उनके लिए ‘संविधान और लोकतंत्र की हत्या’ और सांप्रदायिकता का रूपक बन जाता है।

इसी विकृति के बीच पुलवामा के भीषण आतंकी हमले को सुरक्षाबलों के तथाकथित शोषण का बदला घोषित करने का भी प्रयास हो रहा है, जिसमें आदिल के पिता के वक्तव्यों को आधार बनाया जा रहा है। अब चूंकि उस फिदायीन का 9 मिनट लंबा वीडियो सोशल मीडिया में वायरल है, तो स्वाभाविक रूप से लोगों ने उसे सुना भी होगा। उस वीडियो में आदिल खुले तौर पर ‘इस्लाम का परचम लहराने, कश्मीर के इस्लामीकरण और गजवा-ए-हिंद’ आदि मजहबी अभियान का उल्लेख करते हुए गैर-मुस्लिम विशेषकर हिंदुओं को गौमूत्र पीने वालों की संज्ञा देकर उन्हें गालियां दे रहा है। इस पृष्ठभूमि में अचंभा नहीं होता कि एक वामपंथी हास्य-कलाकार अपने श्रोताओं के मनोरंजन हेतु गौमूत्र पर चुटकले क्यों सुनाते हैं? 

क्या यह सत्य नहीं कि घाटी में सुरक्षाबलों से मुठभेड़ के समय आतंकियों को स्थानीय नागरिकों से सहायता इसलिए आसानी से मिल जाती है क्योंकि दोनों की सांझा पहचान समान है? क्या कश्मीर में पुलिसकर्मी (अधिकतर मुस्लिम) निशाने पर इसलिए नहीं रहते क्योंकि स्थानीय लोगों का एक वर्ग उन्हें ‘काफिर’ भारत का प्रतिनिधि मानता है। क्या 1980-90 के दशक में घाटी में पांच लाख से अधिक कश्मीरी पंडित अपनी पैतृक भूमि से पलायन के लिए विवश इसलिए हुए थे कि उन्हें अपने पड़ोसियों, स्थानीय पुलिस और जिला प्रशासन से सहायता तक नहीं मिली थी क्योंकि वे सभी गैर-मुस्लिम थे? 

उस समय जब घाटी में हिंदुओं के ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, पंडितों को उनके घरों से खदेड़ कर गोलियों से भूना जा रहा था और सरेआम हिंदू महिलाओं का बलात्कार किया जा रहा था, क्या तब कश्मीर का शेष समाज इसलिए चुप नहीं रहा क्योंकि वह स्वयं को पहले मुस्लिम, उसके बाद कश्मीरी मानता था और कुछ तो स्वयं को भारतीय भी मानने को तैयार नहीं थे? क्या यही विनाशकारी मानसिकता कश्मीर संकट को पिछले सात दशकों से जस का तस बनाए रखने में मुख्य भूमिका नहीं निभा रही है? 

अंततोगत्वा, भारत को अपने अस्तित्व और अपनी सनातन संस्कृति को बचाने के लिए पाकिस्तान से निपटना ही होगा। परंतु क्या इससे भारतीय उपमहाद्वीप में विभाजनकारी और जेहादी मानसिकता की समस्या हल हो जाएगी, उस पाकिस्तानी चिंतन का क्या, जो खंडित भारत के भीतर वर्षों से पनप रहा है? यदि भारत को इस निर्णायक युद्ध में पूर्ण सफलता प्राप्त करनी है, तो उसे अपने भीतर पल रहे पाकिस्तानी अधिष्ठान को अविलंब नष्ट करना होगा, उसी के बाद विश्व के इस भू-खंड पर शांति संभव होगी।-बलबीर पुंज

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