‘एक आंकड़े’ के पीछे कितनी देर तक छुप सकेगी सरकार

Sunday, Jun 10, 2018 - 03:43 AM (IST)

आप किस हद तक किसी आंकड़े के पीछे छिप सकते हैं? काफी हद तक बशर्ते कि मीडिया आपकी उंगलियों पर नाचता हो। जिस दिन केंद्रीय आंकड़ा कार्यालय (सी.एस.ओ.) ने 2017-18 के लिए वृद्धि आंकड़े जारी किए तो मीडिया केवल एक ही आंकड़े का बार-बार उल्लेख करने लगा। यह आंकड़ा था ‘7.7 प्रतिशत’। 

प्रथम दृष्टया यह पूरे 2017-18 वर्ष के लिए जी.डी.पी. वृद्धि का आंकड़ा होने का आभास देता था और निश्चय ही प्रभावशाली था। वास्तव में यह केवल चौथी तिमाही का ही वृद्धि आंकड़ा था। यह भी इतना ऊंचा इसलिए दिखाई देता था कि बहुत कम ‘बेस इफैक्ट’ पर आधारित था। सम्पूर्ण वर्ष के लिए जी.डी.पी. वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत थी जोकि सामान्य सी थी और इसमें इतराने की कोई बात नहीं थी। 

सरकार ने चौथी तिमाही की वृद्धि दर को गुब्बारे की तरह फैला दिया और दावा किया कि नोटबंदी तथा त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी. के बुरे प्रभाव अब समाप्त हो चुके हैं। वैसे सरकार ने देश पर यह दावा न करने की मेहरबानी अवश्य की कि ‘अच्छे दिन आ गए  हैं।’ 4 वर्ष समाप्त होने पर सरकार ने एक विनम्रतापूर्ण दावे का राग अलापना शुरू कर दिया: ‘साफ नीयत सही विकास।’ भाजपा नीत राजग सरकार की 4 वर्षों की यात्रा अनेक टूटे वायदों से भरी पड़ी है, जैसे कि हर बैंक खाते में 15 लाख रुपए, 2 करोड़ रोजगार, लागत कीमत +50 प्रतिशत के बराबर न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि ऋण माफी, सभी किसानों को बीमा सुरक्षा, जम्मू-कश्मीर में शांति एवं सुरक्षा, बढिय़ा एवं सरल (गुड एंड सिम्पल) जी.एस.टी. तथा कई अन्य वायदे। आप खुद के अनुभव के आधार पर जी.एस.टी. की इस सूची में वृद्धि कर सकते हैं। 

2012-13 के प्रारंभ की अर्थव्यवस्था में सुधार आना शुरू हो गया था और जी.डी.पी. वृद्धि दर 2012-13 के 5.5 प्रतिशत के आंकड़े से ऊंचा उठकर 2013-14 में 6.4 प्रतिशत और 2014-15 में 7.4 प्रतिशत तथा 2016-17 में 8.2 प्रतिशत तक चली गई। उसके बाद शुरू हुई नीचे की ओर सीधी गिरावट। नोटबंदी के बाद जैसी कि मैंने भविष्यवाणी की थी, बिल्कुल उसे सत्य सिद्ध करते हुए मात्र 2 वर्षों में वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत से 6.7 प्रतिशत पर आ गई, यानी कि 1.5 प्रतिशत की गिरावट। 

* व्यथा-कथा: ऋण वृद्धि का आंकड़ा 13.8 प्रतिशत से खतरनाक हद तक फिसल कर 5.4 प्रतिशत पर चला गया था और उसके बाद 2017-18 में इसमें कुछ सुधार हुआ। ऋण वृद्धि के मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात है उद्योग को दिया जाने वाला ऋण। गत 4 वर्षों दौरान उद्योग को मिलने वाले ऋण की वार्षिक वृद्धि दर 5.6, 2.7,-1.9 और 0.7 प्रतिशत रही है। * औद्योगिक उत्पादन सूचकांक बेशक नीचे नहीं गया लेकिन ऊपर भी नहीं चढ़ सका। यह आंकड़ा सरकार के बहुप्रचारित कार्यक्रम ‘मेक इन इंडिया’ के दावों की हवा निकालने के लिए काफी है। इसके अलावा जहां तक रक्षा उत्पादन का संबंध है, ‘मेक इन इंडिया’ अवधारणा का कुछ दिन पूर्व आधिकरिक रूप में परित्याग कर दिया गया था। (देखें बिजनैस स्टैंडर्ड 6 जून, 2018) 

* सकल गैर-निष्पादित सम्पत्तियां 2,63,015 करोड़ रुपए से बढ़कर 10,30,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गई हैं और अभी इसमें वृद्धि जारी है। बैंकिंग तंत्र व्यावहारिक रूप में दीवालिया हो चुका है। मुझे एक भी ऐसा बैंकर नहीं मिला जो हंसी-खुशी किसी ऋण की मंजूरी देने को तैयार हो और न ही कोई ऐसा निवेशक मिला है जो भरोसेपूर्ण ढंग से पैसा उधार लेने को राजी हो। अर्थव्यवस्था केवल एक पहिए यानी कि मात्र सरकारी खर्च के सहारे दौड़ रही है। 

* सकल अचल पूंजी निर्माण (जी.एफ.सी.एफ) 2013-14 के 31.3 प्रतिशत आंकड़े से फिसल कर 2015-16 में 28.5 प्रतिशत पर आ गया था और गत तीन वर्षों से यहीं फंसा हुआ है। इससे मेरा यह नुक्ता प्रमाणित होता है कि प्राइवेट निवेश कोई हिल-जुल नहीं दिखा रहा है। * सौदागरी निर्यात ने 2013-14 में 315 अरब अमरीकी डालर की बुलंदी छुई थी लेकिन उसके बाद यह संघर्ष करने के बावजूद भी 300 अरब डालर की सीमा पार नहीं कर पाया। 4 वर्ष के शासन में से 2 वर्ष तो यह बुलंदी के आंकड़े से काफी नीचे रहा। 

हताशा की भावना 
हम अन्य कई आंकड़ों का भी चयन कर सकते हैं और इनके आधार पर ग्राफ भी खींच सकते हैं। हर मामले में घटिया विश्लेषण और लापरवाही भरी निर्णय प्रक्रिया के ही दर्शन होते हैं, चाहे नोटबंदी का उदाहरण लें या त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी. का, कृषि मजदूरी में ठहराव का मामला लें या उच्च पैट्रोलियम कीमतों का, आतंक फैलाने वाली टैक्स वसूली का मामला लें या दुर्भावनापूर्ण जांच-पड़तालों इत्यादि का। राष्ट्र पर निराशा की भावना छाई हुई है। आर.बी.आई. के सर्वेक्षण (मई 2018) अनुसार 48 प्रतिशत उत्तरदाता यह महसूस करते हैं कि गत 1 वर्ष दौरान आर्थिक स्थिति बदतर हुई है। कृषि जैसे कुछ क्षेत्रों में तो इस निराशा और हताशा ने आक्रोश का रूप धारण कर लिया है। 

दलितों और बेरोजगार युवकों जैसे कुछ वर्गों में तो घोर निराशा और विषाद की स्थिति पैदा हो गई है। यह स्पष्ट नहीं कि कौन से नीतिगत परिवर्तन किए जाने हैं या इनके लिए जिम्मेदारी किसके पास है। मंत्रिमंडल एक मूकदर्शक बनकर रह गया है। प्रधानमंत्री की आॢथक सलाहकार परिषद का कहीं नामोनिशान नहीं रह गया। मैं अक्सर आश्चर्यचकित होकर सोचता हूं कि सरकार केवल एक आंकड़े और एक नारे के पीछे कितनी देर तक मुंह छिपाए रखेगी?-पी. चिदम्बरम

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