पंजाब में कांग्रेस कैसे जीती

Tuesday, Mar 14, 2017 - 11:55 PM (IST)

पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने भारी-भरकम जीत हासिल की है जबकि अकाली-भाजपा गठबंधन बुरी तरह औंधे मुंह गिरा है। गठबंधन को केवल 11 सीटें ही मिली हैं लेकिन हर किसी को आम आदमी पार्टी (आप) की पराजय पर बहुत आश्चर्य हुआ है। मैं बहुत लम्बे समय से पंजाब की राजनीति का जानकार हूं। मैंने पहली बार 1952 में हुए आम चुनाव अपनी आंखों से देखे थे। तब पंजाब और पैप्सू दो अलग-अलग प्रांत थे। 1957 में दोनों प्रांतों का एकीकरण हो गया और उस समय अकाली दल भी कांग्रेस में शामिल हो गया था और सभी अकाली कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ कर ही जीते थे। 

1966 में पंजाब का विभाजन हो गया था और 1967 में पहली बार पंजाब में कांग्रेस की पराजय हुई थी। अकाली मुख्यमंत्री जस्टिस गुरनाम सिंह के नेतृत्व में संयुक्त सरकार बनी थी। पंजाब में तीन बार अकाली-जनसंघ की गठबंधन सरकार बनी। आखिर 1972 में ज्ञानी जैल सिंह ने कांग्रेस सरकार का नेतृत्व संभाला जो पूरे 5 वर्षों तक चली। 1975 में आपातकाल लगा और 1977 के आम चुनाव में देश भर में कांग्रेस की हार हो गई। 1980 में फिर से कांग्रेस की सरकार तो बन गई लेकिन पंजाब आतंकवाद की आंधी में तबाही की ओर अग्रसर हो गया। हजारों जानें गईं, दरबार साहिब और अकाल तख्त भी सैन्य हमले के शिकार हुए। 2002 में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मुख्यमंत्री बने और 2007 से लेकर लगातार दो बार बादल सरकार कायम रही। 

10 वर्ष तक सत्ता में रही अकाली-भाजपा सरकार ने प्रदेश के विकास हेतु बहुत कुछ किया। हवाई अड्डों और सड़कों का विकास हुआ, बिजलीघर भी बनाए गए। प्रत्येक मजहब के धार्मिक इतिहास को प्रफुल्लित किया गया परन्तु पंजाब के लोगों ने फिर भी अब की बार अकाली-भाजपा सरकार पर विश्वास व्यक्त करने से इंकार कर दिया। ‘नशे’ का शब्द हर किसी की जुबान पर चढ़ गया और इसे कोई भी रोक नहीं पाया। ‘हलका इंचार्ज’ एक नई हकूमत बन कर उभरे। जनता ने इसे फिजूल का बोझ समझा और इसका विरोध बढ़ गया। 

दिल्ली में बैठे केजरीवाल ने इस स्थिति का लाभ लेने की योजना बना ली। संसदीय चुनाव में उसे 4 सीटें इसी अभियान की बदौलत मिल गईं। फिर क्या था, केजरीवाल ने अपने सभी महारथी पंजाब में भेज दिए। ये ‘आप’ नेता सभी के सभी गैर-पंजाबी थे और पंजाब की मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाने लगे। उनकी योजना थी सिखों को अपने साथ में लाने की। इस काम के लिए उन्होंने हर प्रकार के प्रयास किए। बरगाड़ी में हुई गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी से उन्हें सिखों को अपने साथ मिलाने में काफी सहायता मिली। सभी प्रगतिवादी सिख नेता उन्होंने अपने साथ मिला लिए। इसके बाद बादल के सभी विरोधी भी उनके दोस्त बन गए। 

सरदार फूलका ने दिल्ली दंगों के पीड़ित सिखों का मुकद्दमा लड़कर बहुत नाम कमाया है। उन्हें पंजाब भेजा गया। फूलका और कंवर संधू की विदेशों में सिखों में अच्छी-खासी पैठ है। उन्होंने विदेशों में जाकर सिखों को ‘आप’ के साथ जोड़ लिया। फलस्वरूप विदेशी सिखों की टोलियां पंजाब में ‘आप’ की सहायता के लिए पहुंच गईं। ऐसा वातावरण बन गया जैसे दुनिया भर में सिखों का एकमात्र मददगार केवल केजरीवाल ही है। मैंने कई पक्के सिख नेताओं के मुंह से सुना है कि पंजाब का मुख्यमंत्री गैर-सिख भी हो सकता है। अंत में कई ऐसे नेता जिन्हें सरकार ‘खाड़कू’ कहती है, भी खुलकर ‘आप’ के साथ आ गए। 

मैंने अपनी समझ के अनुसार ‘पंजाब केसरी’ और ‘जग बाणी’ में लिखा था कि ‘‘पंजाब को बचाओ और ऐसी सरकार लाओ जो दोबारा पंजाब को केन्द्र सरकार के विरुद्ध युद्ध का मैदान न बनने दे क्योंकि पंजाब आर्थिक तौर पर ऐसी जंग बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ चुनाव से 15 दिन पूर्व केजरीवाल दिल्ली छोड़कर पंजाब आ बैठे। गांवों में उनकी मीटिंगों में बहुत भीड़ होती थी। पूरा प्रैस इनके विवरण प्रकाशित कर रहा था। दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली में किए हुए कामों के बारे में करोड़ों रुपए के इश्तिहार छपवाए गए थे। यह तो हर कोई समझ चुका था कि लोग अकाली-भाजपा सरकार का विकल्प चाहते हैं। अमरेन्द्र सिंह पर व्यक्तिगत रूप में हर किसी को भरोसा था लेकिन कांग्रेस पार्टी अपनी आदत के अनुसार उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने में विलम्ब कर रही थी इसलिए लोगों का ‘आप’ की ओर अधिक झुकाव हो गया। 

केजरीवाल का उन लोगों के यहां आना-जाना था जिनकी पृष्ठभूमि संदिग्ध मानी जाती थी। इस बारे में समाचार भी प्रकाशित हुए। यह चर्चा आम थी कि चुनावी मुकाबला कांग्रेस और ‘आप’ के बीच है। कई पंजाब हितैषी इस चिंता में थे कि पंजाब का क्या बनेगा। आर.एस.एस. के कई नेता भी दुविधा में थे। सीमा से सटे प्रदेश में यदि एक ऐसी सरकार आ जाए जो खुद को ऐसे गुट के साथ जोड़ ले जो धार्मिक एकता के विरुद्ध हो, तो इस बारे में चिंताएं उठनी स्वाभाविक ही हैं। यह अंदाजा तो हर किसी को हो गया था कि सिख आबादी का गढ़ मालवा क्षेत्र ‘आप’ की झोली में चला गया है। 

मुझे याद है कि चुनाव से कुछ दिन पूर्व मैंने श्री विजय चोपड़ा (मुख्य सम्पादक पंजाब केसरी) को कहा था कि पंजाब को फिर से 84 वाली स्थिति में न जाने दें। मैंने कहा कि शहरी आबादी यह सोचे कि शांति को प्राथमिकता देनी चाहिए, मतदाता केवल दो मुद्दों को ही सामने रखें-पंजाब में हिन्दू-सिख एकता और दूसरा अमन-कानून। यदि ये दोनों बातें हो जाती हैं तो शेष सब कुछ स्वत: ही हो सकता है। 

मैंने महसूस किया कि पंजाब के सच्चे हितैषियों और फिक्रमंद अखबारों के सम्पादकों ने वातावरण को ठीक करने में समय पर योगदान दिया था।गत कुछ दिनों दौरान जागरूक मतदाताजो विकल्प चाहते थे, ‘आप’ को छोड़कर कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर गए। चुनावी अभियान के अंतिम दिनों में एक लहर बन गई कि कांग्रेस ही अकाली-भाजपा सरकार का विकल्प है। भाजपा नेतृत्व ने पूरा जोर यू.पी.पर ही लगाया, पंजाब की ओर कोई खास तवज्जो नहीं दी, जैसे कि वे पहले ही समझ गए हों कि वे क्या चाहते हैं। प्रधानमंत्री भी केवल दो बार पंजाब आए। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकाश सिंह बादल ने हिन्दू-सिख एकता के लिए हरसम्भव प्रयास किया है। पंजाब आज यदि साम्प्रदायिक नफरतों से मुक्त है और हर किसी को पंजाबी होने पर गर्व है तो इसमें सबसे बड़ा योगदान सरदार बादल का ही है। नई सरकार को सम्पूर्ण विश्वासमत हासिल हुआ है। अनुभवी और प्रबुद्ध कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। वह जानते हैं कि केन्द्र सरकार से बातचीत करके ही पंजाब का भला कर सकते हैं। अब सभी को उन्हें सहयोग देना चाहिए ताकि पंजाब और पंजाबियत गौरवान्वित हो सके।

Advertising