हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, देश को जोड़ने का माध्यम बन सकती है

punjabkesari.in Tuesday, May 03, 2022 - 05:40 AM (IST)

एक करबद्ध प्रार्थना है हिंदी भाषियों, हिंदी प्रेमियों और हिंदी के सेवकों से : अगर आप इस देश और हिंदी भाषा से प्यार करते हैं तो कृपया अजय देवगन जैसा काम न करें। अगर हिंदी आपकी मातृभाषा है तो उसे बाकी सब लोगों की मातृभाषा बता कर दूसरों का अपमान न करें। अगर आपको हिंदी से प्रेम है तो दूसरों को भी मौका दें कि वे हिंदी से प्रेम कर सकें, उनसे जबरदस्ती कर हिंदी के प्रति नफरत न बढ़ाएं। अगर आप हिंदी की सेवा करना चाहते हैं तो जीवन में सहज, सरल, सुगम हिंदी का व्यवहार करना शुरू करें। हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम गैर हिंदी भाषियों पर छोड़ दीजिए। 

कन्नड़ एक्टर किच्चा सुदीप और हिंदी एक्टर अजय देवगन के बीच हुई बहस एक बार फिर दिखाती है कि भारतीय भाषाओं के झगड़े से अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहता है। कहने को मामूली सी नोकझोंक थी। दक्षिण भारत की फिल्मों को मिली शानदार सफलता के उत्साह में किच्चा सुदीप ने कह दिया कि अब दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिंदी फिल्मों के साए में जीने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हिंदी अब राष्ट्र भाषा नहीं रही। 

जवाब देना जरूरी नहीं था, लेकिन अजय देवगन को शायद अपनी नई फिल्म रिलीज होने से पहले मुफ्त पब्लिसिटी की जरूरत रही होगी। अजय देवगन ने ट्वीट किया, ‘‘मेरे भाई आपके अनुसार अगर हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है तो आप अपनी मातृभाषा की फिल्मों को हिंदी में डब करके क्यों रिलीज करते हैं? हिंदी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा थी, है और हमेशा रहेगी। जन गण मन।’’ फिर वही हुआ जो होना था, जो हर साल एक-दो बार होता है। सुदीप के पक्ष में कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री और कांग्रेस के विपक्षी नेता दोनों उतरे। ‘हिंदी के वर्चस्व’ के विरुद्ध अनेक स्वर उभरे। 

अंग्रेजी मीडिया ने इसे जमकर उछाला। गैर हिंदी भाषाओं के कंधे पर बन्दूक रख अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों ने हिंदी पर निशाना साधा। निष्कर्ष अनकहा था लेकिन अस्पष्ट नहीं-भारतीय संस्कृति को हिंदी के बोलबाले से खतरा है और इससे बचने के लिए अंग्रेजी बनाए रखना जरूरी है। इसलिए हिंदी के पक्षधरों से मेरी प्रार्थना है कि अगर वे हिंदी के साथ-साथ देश को प्यार करते हैं तो ये 5 वचन लें। जैसे भारत और चीन के समझौते ने बौद्ध दर्शन से पंचशील का विचार अपनाया था, उसी तर्ज पर इन 5 वचनों को भाषायी पंचशील कहा जा सकता है।

पहला वचन : मैं भूलवश भी कभी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं कहूंगा। हमारे संविधान में कहीं भी राष्ट्रभाषा का उल्लेख नहीं है। बहुत सोच-विचार कर संविधान सभा ने यह फैसला लिया था कि सरकारी काम के लिए हिंदी सहित अनेक भाषाओं की सूची होगी (संविधान की 8वीं अनुसूची, जिसमें अब 22 भाषाएं हैं) और हिंदी को ‘राजभाषा’ का दर्जा दिया जाएगा। देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं होगी। इसलिए जब कोई हिंदी वाला अपनी मातृभाषा को ‘राष्ट्रभाषा’ घोषित करता है तो वह अपने अज्ञान और अहंकार दोनों का प्रदर्शन करता है। इस धौंस पट्टी से गैर-हिंदी भाषियों के मन में खुंदक पैदा होती है। 

दूसरा वचन : मैं अन्य भारतीय भाषाओं से विनम्रता और दोस्ती का रिश्ता बनाऊंगा। संख्या की दृष्टि से हिंदी आज देश की सबसे बड़ी भाषा है। पिछली जनगणना के मुताबिक लगभग 44 प्रतिशत भारतीय परिवारों की मातृभाषा हिंदी है। हिंदी समझने वाले 57 प्रतिशत जरूर हैं, लेकिन याद रहे आज भी देश में गैर-हिंदी मातृभाषा वालों का बहुमत है। आयु और भाषाई संपदा की दृष्टि से हिंदी की गिनती भारत के भाषाई परिवार की सबसे छोटी बहनों में होगी। तमिल और कन्नड़ भाषाएं लगभग 2500 साल पुरानी हैं, तो हिंदी ज्यादा से ज्यादा 600 साल पुरानी। 

हिंदी के जिस स्वरूप को आज हमने स्वीकार किया है वह महज दो-अढ़ाई सौ साल पुराना है। जब तक हम गैर-हिंदी भाषा की सांस्कृतिक समृद्धि को समझने की चेष्टा नहीं करेंगे, तब तक उनसे हिंदी का सम्मान करने की अपेक्षा नहीं कर सकते। सच यह है कि त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत अधिकांश गैर हिंदी भाषी राज्य अपने बच्चों को हिंदी सिखाते हैं, लेकिन हिंदी पट्टी के राज्यों ने दक्षिण या पूर्वी भारत की भाषा सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। 

तीसरा वचन : मैं अपनी भाषाई जड़ों को पहचानूंगा और अपनाऊंगा। दरअसल हिंदी की जड़ें उन दर्जनों भाषाओं में हैं जिन्हें आज हिंदी की बोलियां या उपभाषा कहकर तिरस्कृत किया गया है। अगर सही से गिना जाए तो खड़ी बोली वाली मानक हिंदी (जिस भाषा में यह लेख लिखा गया है) देश के 10 प्रतिशत लोगों की भी मातृभाषा नहीं है। अपनी लिपि, सरकारी प्रश्रय और बाजार के अभाव में ये भाषाएं धीरे-धीरे मर रही हैं। हिंदी प्रेम का कत्र्तव्य है कि हम इन भाषाओं के अस्तित्व को स्वीकार करें, इनमें साहित्य निर्माण करें और इनसे हिंदी के शब्द संसार को समृद्ध करें। 

चौथा वचन : मैं शुद्ध हिंदी का आग्रह त्याग दूंगा। भाषा का विस्तार तभी होता है जब वह नए इलाकों की आबो-हवा को आत्मसात करती है। अंग्रेजी दुनिया भर की भाषा तभी बनी जब उसे दुनिया भर में सैंकड़ों लहजों में बोला जाता है। अंग्रेजी ने एक ही शब्द के एक से अधिक स्पैलिंग स्वीकार किए हैं, हिंदी सहित दुनिया की दर्जनों भाषाओं से सैंकड़ों शब्द उधार लिए हैं। हिंदी को भी अगर पूरे देश की भाषा बनना है तो उसे शुद्धता का आग्रह छोडऩा होगा। सड़क छाप हिंदी, बम्बईया हिंदी और बिहारी हिंदी पर नाक-भौं सिकोडऩा बंद करना होगा। अंग्रेजी सहित दुनिया की दूसरी भाषाओं और उर्दू सहित अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द उधार लेने होंगे और उन्हें पचाना होगा। 

पांचवां और अंतिम वचन : मैं हिंदी की पूजा-अर्चना करने की बजाय हिंदी का इस्तेमाल करूंगा। अगर हिंदी की सेवा करनी है तो हिंदी दिवस जैसे ढकोसले या फिर हिंदी के नाम पर धर्म युद्ध लडऩे की बजाय हिंदी को मजबूत और समृद्ध करने की जरूरत है। अगर किस्से-कहानी लिखने हैं तो हिंदी में बाल साहित्य लिखिए, किशोर साहित्य लिखिए ताकि हमारी अगली पीढ़ी को हिंदी का चस्का लगे। 

हिंदी की सेवा करनी है तो हिंदी में ऑनलाइन थेसोरस बनाइए। हिंदी को मजबूत करना है तो मैडीकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में हिंदी माध्यम में शिक्षा दीजिए, कोर्ट-कचहरी का काम सहज सरल हिंदी में कीजिए। देश और दुनिया, अर्थव्यवस्था और तकनीक, अतीत और भविष्य के बारे में हिंदी में लिखिए और चर्चा कीजिए। हिंदी का महिमामंडन करने की बजाय उसे इस लायक बनाइए कि बाकी दुनिया उसे अपनाना चाहे। हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा न है और न होनी चाहिए, चूंकि हमारे देश को एक राष्ट्रभाषा की जरूरत नहीं है। लेकिन हिंदी इस देश को जोडऩे का एक माध्यम बन सकती है, बशर्ते हर हिंदी भाषी इस पंचशील की मर्यादा का पालन करे।-योगेन्द्र यादव
 


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