बचपन पर मंडराता खतरा
Thursday, Aug 30, 2018 - 03:35 AM (IST)
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि केन्द्र सरकार की दो रिपोर्टों में आश्रय गृहों में रहने वाले बच्चों की संख्या में 2 लाख से अधिक का अंतर आया है। सरकार द्वारा राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा कराए गए सर्वे में देश के 9000 आश्रय गृहों में बच्चों की संख्या 4.73 लाख बताई गई थी लेकिन मार्च में सरकार द्वारा दाखिल रिपोर्ट में इनकी संख्या 2.61 लाख बताई गई। इस मामले में शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार को फटकार लगाई है।
अधिवक्ता अपर्णा भट्ट ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि आश्रय गृहों में 50,000 बच्चे गोद दिए जाने लायक हैं मगर सरकारी एजैंसी इस मामले में आवश्यक कार्रवाई नहीं कर रही है। पिछले दिनों विभिन्न आश्रय गृहों में बच्चों के साथ जिस तरह से अमानवीय अत्याचार की खबरें आईं, उससे यह स्पष्ट है कि समाज और सरकारी एजैंसियां बच्चों के मामले में गम्भीर नहीं हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य यही है कि यहां बचपन बचाने की चिंता मात्र खोखले आदर्शवाद के दायरे में ही सिमट कर रह गई है। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि आज बच्चों के बचपन पर छाई धुंध और गहराती जा रही है। एक ओर विभिन्न चैनलों द्वारा टी.वी. पर परोसी जा रही अश्लीलता से बच्चों का बचपन असुरक्षित होता जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर हिंसापूर्ण फिल्में बाल भावनाओं को विकृत कर रही हैं।
कहीं बस्तों के बोझ से बच्चों का बचपन दब गया है तो कहीं शिक्षा के अभाव में बच्चे दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। एक ओर बच्चे मानवीय अत्याचार से पीड़ित हैं तो दूसरी ओर पारिवारिक विघटन का असर बच्चों पर पड़ रहा है। आज बच्चों के बचपन से संबंधित ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर गम्भीरता के साथ पुनर्विचार की आवश्यकता है। कुछ समय पूर्व सैंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि टी.वी. पर दिखाई जाने वाली हिंसा से बच्चों के दिलो-दिमाग पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि आज अनेक ऐसे बच्चे हैं जो भूत और किसी अन्य भटकती आत्मा के भय से प्रताडऩा की जिंदगी जी रहे हैं। सैंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च ने बच्चों पर मीडिया के कुप्रभाव का व्यापक सर्वेक्षण कराया।
5 शहरों में कराए गए इस सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष सामने आया कि हिंसा और भय वाले कार्यक्रमों के कारण बच्चों पर गहरा भावनात्मक असर पड़ता है जो आगे चलकर उनके भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। 75 फीसदी टी.वी. कार्यक्रम ऐसे हैं जिनमें किसी न किसी तरह की हिंसा जरूर दिखाई जाती है। इन कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक असर पड़ता है। इस समय भारत समेत दुनिया भर के बच्चों पर तमाम तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। विडंबना यह है कि अब जलवायु परिवर्तन भी बच्चों को अपना शिकार बना रहा है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 2.3 अरब बच्चों में से लगभग 69 करोड़ बच्चे जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में रहते हैं, जिसके चलते उन्हें उच्च मृत्यु दर, गरीबी और बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।
लगभग 53 करोड़ बच्चे बाढ़ और उष्णकटिबंधीय तूफानों से सर्वाधिक प्रभावित देशों में रहते हैं। गौरतलब है कि इनमें से ज्यादातर देश एशिया में हैं । करीब 16 करोड़ बच्चे सूखे से गम्भीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में पल-बढ़ रहे हैं। इन क्षेत्रों में से ज्यादातर अफ्रीका में हैं। हम अक्सर बच्चों के मनोविज्ञान को समझे बिना अपनी इच्छाएं उन पर थोप देते हैं। ऐसे में बच्चे जिस अन्तद्र्वन्द्व की अवस्था से गुजरते हैं वह अंतत: अनेक समस्याओं को जन्म देता है। यहां यह कहा जा सकता है कि यदि बच्चों की इच्छाओं के समक्ष घुटने टेक दिए जाएंगे तो उनके और अधिक जिद्दी बनने और गलत रास्ते पर चलने की सम्भावना बढ़ जाएगी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बच्चों की इच्छाओं को कोई महत्व ही न दें। अमूमन होता यह है कि हम शुरू में बच्चे को बहुत अधिक प्यार करते हैं। ऐसे में माता-पिता से बच्चे की अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। अपनी इन्हीं अपेक्षाओं के अनुरूप जब बच्चा अपनी इच्छाएं माता-पिता से बताता है तो वे उसे डांट-फटकार कर चुप करा देते हैं। माता-पिता का यह व्यवहार ही बच्चों को विद्रोही एवं चिड़चिड़ा बना देता है।
आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रारम्भ से ही बच्चों के साथ एक संतुलित रवैया अपनाएं। बच्चों को ठीक ढंग से समझने के लिए हमें अपने अंदर एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि भी विकसित करनी होगी। बच्चों की इच्छाओं एवं भावनाओं को महत्व देते हुए हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि वास्तव में वे चाहते क्या हैं? यदि बच्चे अपनी गलत जिद पर अड़े हुए हैं तो हमें मात्र डांट-फटकार का रास्ता न अपनाकर विवेक एवं प्यार का रास्ता अपनाना होगा। हमें कोशिश करनी होगी कि हम बच्चों को विश्वास में ले सकें। इसके लिए हमें बहुत छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखते हुए अपने व्यवहार में भी परिवर्तन लाना होगा।
माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी इच्छाएं थोपने के अनेक रूप हो सकते हैं। अक्सर यह देखने में आया है कि माता-पिता स्वयं जिस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते हैं वे उस लक्ष्य तक अपने बच्चों को पहुंचाने की कोशिश करते हैं। वे इस जुनून में यह भी परवाह नहीं करते कि वास्तव में बच्चे की अपनी इच्छा क्या है? वे यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे में उस लक्ष्य तक पहुंचने की क्षमता है भी या नहीं। निश्चित रूप से बच्चे के उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न देखना और उस स्वप्न को साकार करने का प्रयास करना गलत नहीं है लेकिन यह सब यथार्थ के धरातल पर होना चाहिए।
सर्वप्रथम हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि पढ़ाई में बच्चे का स्तर क्या है? इसी आधार पर हमें उसके भविष्य का मार्ग तय करना चाहिए। जीवन का मूल उद्देश्य है सम्मानपूर्वक जीवन जीना। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्मान किसी एक क्षेत्र की बपौती नहीं होता है। यदि हम ईमानदारी एवं लगन से कार्य करें तो किसी भी क्षेत्र में सम्मानपूर्वक जीवन जीया जा सकता है। इसलिए बच्चों की क्षमता को न देखते हुए किसी एक ही करियर का जुनून पालना गलत तो है ही, बच्चे के प्रति भी अन्याय है। अमूमन होता यह है कि माता-पिता बच्चे के स्तर से अधिक की आशा रखते हैं। ऐसे में आशानुरूप परिणाम न मिलने के कारण माता-पिता के डर से अनेक बच्चे आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं। इस तरह की अनेक घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज आश्रय गृहों में ही बच्चों के साथ अमानवीय अत्याचार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं लेकिन बच्चों के नाम पर अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले लोग सिर्फ भाषणबाजी कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकार देश के सभी आश्रय गृहों की गम्भीरता से जांच कराए। बच्चे ही राष्ट्र का भविष्य हैं। आज बच्चों के बचपन पर खतरा मंडरा रहा है और दुर्भाग्य यह है कि बचपन का खात्मा करने में हम सब भागीदार हैं। यदि आज बच्चों के बचपन को सही दिशा नहीं मिल पाई तो आने वाले कल के भारत को सही दिशा कैसे मिल पाएगी? आज हमें परम्परा के बंधनों से मुक्त होकर सच्चे अर्थों में बच्चों की उन्मुक्त हंसी, मीठी खिलखिलाहट, उनके उत्साह, उमंग और सपनों को बचाने के लिए प्रयास करना होगा। हमें कोशिश करनी होगी कि बचपन से जुड़ी सुखद अनुभूतियां ताउम्र जिन्दा रह सकें।-रोहित कौशिक