हनुमान चालीसा बनाम अजान : क्या शोर पर अंकुश लगेगा

Wednesday, May 04, 2022 - 03:59 AM (IST)

क्या कभी सुबह-सुबह आपकी नींद लाऊडस्पीकर की आवाज से खराब हुई है? आपके सपनों को बिखेरा है या रात के हैंगओवर के सिरदर्द को बढ़ाया है? पिछले पखवाड़े से मस्जिदों में लगे लाऊडस्पीकरों पर प्रतिबंध लगाने पर चल रहे राजनीतिक विवाद के बाद हिन्दुत्व ब्रिगेड ने मस्जिदों से अजान के शोर को कम करने के लिए एम्प्लीफायर पर हनुमान चालीसा गाने की धमकी दी है। 

योगी के उत्तर प्रदेश में 54,000 अवैध लाऊडस्पीकरों को हटाया गया है और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मई 2020 के आदेश का हवाला देते हुए 60295 लाऊडस्पीकरों का ध्वनि स्तर कम किया है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने भी यही बात दोहराई है और उन्होंने मस्जिदों से लाऊडस्पीकरों को हटाने की मांग की है। 

निर्दलीय सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति जेल में बंद हैं क्योंकि उन्होंने ठाकरे के आवास, जो शिव सैनिकों के लिए एक पवित्र स्थल है, के बाहर हनुमान चालीसा गाने की धमकी दी थी। बेंगलुरु में पुलिस ने 125 मस्जिदों, 83 मंदिरों, 22 चर्चों और 71 अन्य प्रतिस्थानों को प्रतिबंध समय के दौरान लाऊडस्पीकरों या शोर के स्तर के 60 डेसीबल की सीमा पार करने के लिए नोटिस जारी किए हैं। 

वस्तुत: लाऊडस्पीकरों के प्रयोग के बारे में कानून का बार-बार उल्लंघन होता रहा और इसे धार्मिक तथा राजनीतिक हितों को साधने के लिए उपयोग किया जाता रहा। उच्चतम न्यायालय ने जुलाई 2005 में रात 10 बजे से सुबह 6 बजे के बीच लाऊडस्पीकरों और म्यूजिक सिस्टम के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अक्तूबर में न्यायालय ने अपने आदेश में बदलाव किया और त्यौहारों के अवसर पर साल में 15 दिन तक लाऊडस्पीकर मध्य रात्रि तक चलने की अनुमति दी। 

अगस्त 2016 में मुंबई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि लाऊडस्पीकरों का उपयोग संविधान के अनुच्छेद-25 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार नहीं है तथा कोई धर्म या पंथ ऐसा दावा नहीं कर सकता। सभी धार्मिक स्थलों को ध्वनि प्रदूषण नियमों का पालन करना होगा और कोई भी धार्मिक स्थल बिना अनुमति के लाऊडस्पीकरों का उपयोग नहीं कर सकता। दो वर्ष पूर्व उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दिन के समय भी लाऊडस्पीकरों की ध्वनि सीमा 5 डेसीबल तक सीमित की। एक पिन के जमीन पर गिरने और एक व्यक्ति के सांस लेने के शोर का स्तर 10 डेसीबल है। 

सितंबर 2018 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने रात्रि 10 बजे के बाद लाऊडस्पीकरों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया। इसके अगले वर्ष जुलाई में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने धार्मिक निकायों, मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों सहित सार्वजनिक स्थानों पर लाऊडस्पीकरों के प्रयोग पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाया कि उनका उपयोग पूर्व अनुमति से ही किया जा सकता है और उनसे पैदा होने वाले शोर की सीमा 10 डेसीबल से अधिक नहीं होनी चाहिए। 

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फिर जनवरी 2021 में राज्य सरकार को निर्देश दिया कि सभी धार्मिक स्थलों पर अवैध लाऊडस्पीकरों के विरुद्ध तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पुलिस को निर्देश दिया कि ध्वनि प्रदूषण विनियमन और नियंत्रण नियम 2000 तथा उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने पर धार्मिक स्थलों पर लाऊडस्पीकरों के उपयोग के विरुद्ध कार्रवाई की जाए। 

इस राजनीतिक और कानूनी लड़ाई के बीच यह मुद्दा पीछे छूट गया कि अजान किस तरह पढ़ी जाए। स्वयं पैगंबर मोहम्मद साहब ने किसी यंत्र के माध्यम की बजाय व्यक्ति की आवाज में अजान पढऩे पर बल दिया। मस्जिदों में लाऊडस्पीकरों का उपयोग 1930 के दशक में शुरू हआ और इसका उपयोग अजान और फतवा के लिए किया जाने लगा, किंतु 1970 के दशक में मुसलमान लाऊडस्पीकरों को एक शैतान के रूप में देखने और इसे मुसलमानों के आत्म सम्मान के विरुद्ध मानने लगे। 

इस्लामी देश सऊदी अरब ने पिछले वर्ष मई में एक आदेश जारी किया, जिसके अंतर्गत मस्जिदों के लाऊडस्पीकर की आवाज की सीमा एक तिहाई की गई। नीदरलैंड्स में केवल 7 से 8 प्रतिशत मस्जिदों में अजान के लिए लाऊडस्पीकर का प्रयोग होता है। यही स्थिति जर्मनी, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, नार्वे और बैल्जियम में भी है। इसराईल में आराम के समय धार्मिक संस्थानों द्वारा लाऊडस्पीकरों के उपयोग पर प्रतिबंध है। विश्व के सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया में मस्जिदों द्वारा लाऊडस्पीकरों के उपयोग को एक पर्यावरणीय मुद्दे के रूप में मान्यता दी गई और वहां इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए उपाय किए जा रहे हैं। 

आज लाऊडस्पीकरों को मुस्लिम समुदाय के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है, जो सार्वजनिक रूप से उनकी उपस्थिति दर्ज कराता है और बहुसंख्यक समुदाय भी इस बात को समझता है इसलिए इसके विरुद्ध लोगों में आक्रोश है, जो अजान के नहीं, अपितु उसकी ऊंची आवाज के विरुद्ध है, जिसका इस्तेमाल मुस्लिम पहचान को प्रचारित करने के लिए किया जा रहा है। उदारवादियों का कहना है कि मुसलमानों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि लाऊडस्पीकरों के उपयोग को धार्मिक महत्व देना क्या सही है। अक्सर देखने को मिलता है कि नमाज के समय अनेक मुसलमान मस्जिदों में उपस्थित नहीं होते, सिवाय शुक्रवार की नमाज के और जो लोग दिन में 5 बार नमाज अदा करते हैं, उन्हें अजान द्वारा नमाज के समय की याद दिलाने की आवश्यकता नहीं होती। 

धर्म ध्वनि प्रदूषण नियमों का उल्लंघन करने का आधार नहीं हो सकता। लाऊडस्पीकरों से सुबह के समय नींद में व्यवधान पड़ता है तथा बीमार और बुजुर्गों को परेशानी होती है। इस संबंध में यह नियम बनाया जाना चाहिए कि लाऊडस्पीकरों की आवाज उस स्थान से बाहर नहीं आनी चाहिए, जहां पर लोग सामान्य धार्मिक कार्य-कलाप कर रहे हों और यह नियम सभी धार्मिक स्थानों पर एक समान लागू होना चाहिए। 

सार्वजनिक नैतिकता और सामूहिक मूल्यों का निर्माण तब होता है जब व्यक्तिगत रूप से और समूह में एक-दूसरे को स्थान दिया जाए। यदि किसी प्रथा से दूसरे को हमेशा परेशानी होती है तो उस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। एक बहुलवादी समाज में, जहां पर विभिन्न धर्मों के मतावलंबी हों, इस समस्या का समाधान यह है कि अपनी धार्मिक प्रथाओं को निजी रखा जाए, ताकि वे दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण न करे। सौहार्द के लिए वर्चस्ववादी दृष्टिकोण उचित नहीं है। आपका क्या विचार है?-पूनम आई. कौशिश

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