पाक की पहली महिला जज से आधी आबादी को उम्मीदें

Wednesday, Jan 26, 2022 - 07:55 AM (IST)

बंदिशों की बेडिय़ां तोडऩे के मामले में पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में एक ऐसा चमत्कार हुआ है, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। पाक सुप्रीम कोर्ट में पहली मर्तबा कोई महिला जज नियुक्त हुई हैं। उन्होंने किसी की दया या सिफारिश से नहीं, अपनी मेहनत और काबिलियत के बूते यह मुकाम पाया है।

बुर्के-पर्दे में अपना समूचा जीवन जीने वाली पाकिस्तानी महिलाओं को जस्टिस आयशा मलिक की ताजपोशी ने उ मीदों का नया संबल दिया है, जिसकी राह वहां की आधी आबादी आजादी से ताक रही थी। सभी जानते हैं कि वहां महिलाओं को सिर्फ भोग की वस्तु समझा जाता है। उनका हक दिलाने की आज तक किसी ने कोशिश तक नहीं की। 

खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। महिलाओं के अधिकारों को मुक मल हक-हकूक दिलवाने में जस्टिस आयशा मलिक की पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला जज के रूप में नियुक्ति किसी सपने जैसी है। सारी दुनिया जानती है कि वहां महिलाओं के अधिकारों को कैसे रौंदा जाता है। घर से बाहर निकलने की भी मनाही रही है, जो कार्य पुरुष करते हों, उसे कोई महिलाएं करे, ये वहां के मुल्ला-मौलवियों को कभी नहीं भाया। किसी महिला ने हि मत दिखाई भी तो उसके खिलाफ फतवा या रूढि़वादी कठोर बंदिशें लगाई जाती रही हैं। लेकिन आयशा शायद उस पुरानी प्रथा को बदल पाएंगी। उनकी नियुक्ति महिलाओं को संबल देगी, आगे बढऩे को प्रेरित करेगी, पहाड़ की भांति हिम्मत का संदेश देगी। 

दरअसल, इसमें हुकूमत का उतना दोष नहीं, जितने वहां जहरीली सोच वाले लोग रोड़ा बनते रहे। पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय इस्लामी गणराज्य की सर्वोच्च अदालत जरूर रहा है, पर न्यायिक व्यवस्था में हमेशा से भेदभाव हुआ। शरियत कानून को मान्यता ज्यादा दी गई। वहां की आधी आबादी से संबंधित बदहाली की दर्दनाक तस्वीरें जब दिमाग में उमड़ती हैं तो लगता है कि कट्टर इस्लामिक मुल्क में एक महिला का सुप्रीम कोर्ट में जज बन जाना अपने आप में एक करिश्मा है। 

जज बनने से पहले भी आयशा मलिक अपने काम को लेकर चर्चा में रहीं। अपने स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनका नाम आज से 10-15 साल पहले तब सामने आया था, जब उन्होंने भारतीय कैदी सरबजीत सिंह के पक्ष में एक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि उनका केस न्यायिक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़े, राजनीति नहीं होनी चाहिए, जिस पर तब बड़ा बवाल हुआ था। विरोधियों ने उन्हें भारत जाने तक को कह दिया था। हालांकि छुटपुट विरोध अब भी हो रहा है। 

फिलहाल उनके नाम की मंजूरी हो चुकी है। उन्होंने पद ग्रहण कर लिया है। महिलाओं से जुड़े केसों को वह मुख्य रूप से देखा करेंगी। उनकी ताजपोशी से अब वहां की निचली अदालतों और हाईकोर्ट में भी महिला जजों की सं या में इजाफा होगा। पाकिस्तान की संसदीय समिति ने भी आयशा की प्रशंसा करते हुए कहा है कि उनसे महिलाओं को बहुत उम्मीदें हैं, उन्हें स्वतंत्रता से काम करने दिया जाएगा। 

आयशा के जीवन संघर्ष पर प्रकाश डालें तो पता चलता है कि वह किसी बड़े घराने से ताल्लुक नहीं रखतीं। कठिन परिस्थितियों में वह एक साधारण परिवार से निकली हैं। आयशा कराची के एक छोटे गांव ‘अब्बू हरदा’ में 3 जून, 1966 को जन्मी थीं। आम लोगों की तरह गांव के ही सरकारी स्कूल से शुरूआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद कराची के गवर्नमैंट कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स से स्नातक किया। लॉ की पढ़ाई उन्होंने लाहौर के ‘कॉलेज ऑफ लॉ’ से की। उसके बाद उन्होंने अमरीका में मैसाचुसेट्स के हॉर्वर्ड स्कूल ऑफ लॉ से भी शिक्षा प्राप्त की। 

छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी पढ़ाई का खर्च निकाला करती थीं। पढऩे में अच्छी थीं, तभी उन्हें स्कॉलरशिप मिली। आयशा को 1998-1999 में ‘लंदन एच गैमोन फैलो’ के लिए भी चुना गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अमरीका में भी अपना करियर शुरू कर सकती थीं, लेकिन उनको अपने यहां महिलाओं की बदहाली दूर करनी थी। कुछ अलग करने का जज्बा लेकर ही वह सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई हैं। 

आयशा अमरीका से 2003 में अपने मुल्क लौट आई थींं। वहां से आने के बाद उन्होंने कराची की निचली अदालत में वकालत शुरू की। बीते एक दशक में उन्होंने खूब नाम कमाया और कई मशहूर कानूनी फर्मों के साथ जुड़ कर कई नामी केसों को सुलझवाया। निश्चित रूप से आयशा की नियुक्ति पाकिस्तान में नया इतिहास लिखेगी। वहां महिलाओं के हालात कैसे हैं, दुनिया में किसी से छिपा नहीं। वहां की महिलाएं बदहाली से निजात पाएं, ऐसी उ मीद भारत भी करेगा। समूची दुनिया भी यही चाहती है कि पाकिस्तान की महिलाएं भी आधुनिक संसार में अपनी सहभागिता दर्ज कराएं। उ मीद यह भी की जानी चाहिए कि आयशा के जरिए दुनिया का नजरिया पाकिस्तान के प्रति बदले। उसके कर्मों के चलते समूची दुनिया जिसे हिकारत से देखती है।-डा. रमेश ठाकुर 
 

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