सपा-बसपा गठबंधन की गंभीरता नहीं समझ पाई भाजपा

Saturday, Mar 17, 2018 - 11:31 AM (IST)

मतदाताओं के मारे राजनीतिक दल पानी नहीं मांगा करते। यूपी के दो लोकसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे इसकी बानगी हैं। सपा ने गोरखपुर और फूलपुर सीट पर जीत दर्ज की है। सपा के लिए सबसे ज्यादा खुशी योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर का किला फतह करने की है। तीन दशक बाद यह सीट गोरखनाथ मंदिर के कब्जे से समाजवादियों के हाथ आई योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते भाजपा प्रत्याशी की गोरखपुर में हार किसी चमत्कार से कम नहीं है। उपचुनाव में चिर विरोधी सपा और बसपा ने हाथ मिला लिया, उस समय भाजपा नेताओं ने इस गठबंधन की गंभीरता को नहीं समझा। समझा होता तो वे इसे केर-बेर को संग और सांप-छछूंदर की जोड़ी नहीं कहते। योगी सरकार के एक मंत्री ने तो मुलायम को रावण, शिवपाल को कुंभकर्ण, अखिलेश को मेघनाद और मायावती को शूर्पणखा तक कह दिया। 

मतदाताओं को यह बात शायद नागवार गुजरी और उन्होंने अपने तरीके से जवाब दिया। गोरखपुर सीट मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और फूलपुर सीट उपमुख्यमंत्री केशवनाथ मौर्य ने छोड़ी थी। इस सीट पर पार्टी को जीत दिलाना दोनों नेताओं के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था लेकिन सपा-बसपा गठबंधन ने इन दोनों नेताओं की प्रतिष्ठा की हवा निकाल दी। टिकट तो सभी दलों ने जातीय समीकरण को देखते हुए ही जारी किए थे लेकिन सपा-बसपा गठबंधन इस चुनाव में भारी रहा। हाल ही में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने आवास पर गैरभाजपा दलों के नेताओं के साथ डिनर डिप्लोमेसी की थी। मायावती और अखिलेश भोज में शामिल नहीं हुए लेकिन सतीशचंद्र मिश्र और रामगोपाल यादव की उपस्थिति इस बात का संकेत तो है ही कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा बनाम संपूर्ण विपक्ष की स्थिति होगी। 

मुख्यमंत्री ने कहा है कि सपा और बसपा की राजनीतिक सौदेबाजी को समझने में उनकी पार्टी की ओर से देर हुई। भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का वक्त है। विरोधी को कमतर नहीं आंकना चाहिए। फूलपुर में भाजपा ने पटेल समुदाय के बाहरी प्रत्याशी पर दांव लगाया लेकिन सपा-बसपा गठबंधन के बाहरी-भीतरी के प्रचार हमले को पार्टी संभल नहीं पाई। अतीक अहमद ने मुसलमानों के वोट काटे जरूर, लेकिन उतने मत वे नहीं पा सके। भाजपा को चुनाव के दौरान संजीवनी देने का काम संघ परिवार करता है लेकिन चुनाव के दौरान संघ की बैठक के चलते अधिकांश रणनीतिकार नागपुर पहुंच गए। संघ के अन्य आनुषांगिक संगठनों का सहयोग भी नगण्य ही रहा। इसकी वजह इस बात का आत्मविश्वास ही था कि योगी और केशव के प्रभाव क्षेत्र में भाजपा को कोई हरा नहीं सकता। जब चुनाव कार्यकर्ता लड़ते हैं तो उसका असर दिखाई पड़ता है लेकिन यह चुनाव मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री लड़ते रहे। पार्टी में जब व्यक्ति अहम हो जाता है और कार्यकर्ता उपेक्षित होने लगता है तो इस तरह के नतीजे आते हैं।

-सियाराम पांडेय ‘शांत’


 

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