गांधी के हत्यारे गोडसे का ‘महिमामंडन’ क्यों

Thursday, Nov 26, 2015 - 11:37 PM (IST)

(मा. मोहन लाल): महात्मा गांधी जैसा महान व्यक्तित्व शायद सदियों में पैदा न हो। एक ऐसा महामानव जिसने एक लंगोटी जिस्म पर लपेट कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आजादी की जंग लड़ी। एक अद्भुत मानव, जिसने सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के शस्त्र भावी पीढ़ी को धरोहर स्वरूप भेंट किए। एक अविस्मर्णीय शिक्षाविद्, स्वदेश प्रेमी और नि:स्वार्थ भाव से जनता की सेवा करने वाला वृद्ध गांधी क्या नाथूराम गोडसे की गोलियों का अधिकारी था? 

सारी मानवता आज आई.एस.आई.एस. जैसे आतंकवादी जेहादी संगठन से दो-चार होकर कराह रही है, वही उत्तर दे कि क्या गोली किसी समस्या का समाधान है? नहीं, तो फिर 70 साल बाद मुठ्ठी भर लोग गांधी पर गोली चलाने वाले नाथूराम गोडसे को महिमामंडित कर इतिहास की धारा को क्यों बदलना चाहते हैं? गांधी को दुष्टपात्र क्यों बनाना चाहते हैं? नाथूराम गोडसे के बुत पर फूलमालाएं चढ़ाई जाएं और महात्मा गांधी जैसे अमन-शांति के मसीहा पर कालिख क्यों पोती जाए। हत्यारा-हत्यारा है, चाहे उसका उद्देश्य कितने ही महान आवरणों से ढका हो।

 
आतंकी और आतंकी की गोली से शहीद होने वाला-दोनों एक नहीं हो सकते। मानवता की हत्या करने वाला ‘हीरो’ नहीं कहलाया जा सकता। फिर यह भी उचित नहीं कि आपको मेरे विचार अच्छे नहीं लगते तो आप मुझे गोली मार दें। यह तो हिटलरिज्म हुआ। फिर तो समाज में अराजकता का राज हो जाएगा। पारस्परिक सौहार्द से जीवन चलता है। तुम मेरी सुनो मैं तुम्हारी, यही सामाजिकता है। गोली, दोनाली, बम-इनसे समाज नहीं चलता। गांधी के विचार उनके अपने थे, भले ही वह नाथूराम गोडसे के विचारों से मेल न खाते हों। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आप गोली से उनके विचारों को खत्म कर दें। अत: हिंदू महासभा के कर्णधारों से निवेदन है कि वे वह न करें जिससे भावी पीढ़ी को उत्तर देना मुश्किल बने।
 
गोडसे को फांसी सारी न्याय प्रक्रिया के दोहन, नाथूराम के सभी विचारों को सुनने-समझने के बाद हुई है। अत: गांधी-गांधी रहेगा, गोडसे-गोडसे कहलाएगा। हिंदू महासभा गोडसे को गांधी न बनाए। संघ, जिस पर गांधी की हत्या का आरोप लगाया, जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया, उस संस्था ने भी गोडसे को महामंडित किए जाने को अच्छा नहीं माना। न्याय प्रक्रिया ने उसी संघ को गांधी वध से दोषमुक्त भी ठहराया था।
 
चलिए हम नाथूराम गोडसे के विचारों का भी अध्ययन कर लेते हैं। 15 अगस्त, 1947 को देश की स्वतंत्रता का दिन कहलाने, उसका जश्र मनाने वाले यह भी जान लें कि वे भारत विच्छेदन के भी उतने ही उत्तरदायी हैं। स्वतंत्रता का उल्लास ठीक पर देश के बंटवारे का दुख भी उन्हें होना चाहिए। इस आजादी ने 3 करोड़ लोगों को विस्थापित किया। इस आजादी ने 10 लाख मासूम जिंदगियों का बलिदान लिया। 3 लाख हिंदू-सिख बहनों का या तो धर्म परिवर्तन हुआ या उनसे बलात्कार किया गया या उन्होंने आत्महत्याएं कर लीं।
 
कोई बात नहीं, मैं साकार चित्र पेश कर देता हूं। सारा आजाद हिंदुस्तान गौर कर ले, ‘‘निर्वासितों का काफिला झुंड की भांति चल रहा था। वृद्ध पुरुषों तथा स्त्रियों का चलते-चलते दम घुट जाता था। वे मार्ग किनारे मरने के लिए ही छोड़े जाते थे। काफिला आगे बढ़ जाता था। उनकी देखभाल करने का किसी के पास समय नहीं था। रास्ते शवों से भरे थे। शव गल जाते थे। उनसे दुर्गंध फैलती थी। कुत्ते और गिद्ध उनसे अपना भोजन चलाते थे। 
 
तब कानून का राज नहीं था। सरकारें कहीं नहीं थीं? सब कहीं अंधेरा था। पाकिस्तान से उजड़ कर आए हिंदू-सिखों ने गुरुद्वारों, मंदिरों, मस्जिदों में पनाह ले ली थी। वर्षा और सर्दी से ठिठुरते पनाहगुजीरों की लम्बी कतारें दिल्ली की सड़कों पर थीं। न भोजन, न पानी। किसी पर किसी को विश्वास ही नहीं।’’ ऐसे में गांधी जी ने आमरण अनशन की धमकी दे डाली कि सरकार विस्थापितों से मस्जिदें खाली करवाए  और पाकिस्तान के हिस्से के 55 करोड़ रुपए पाकिस्तान को तुरंत अदा करे। 
 
बस इन्हीं घटनाओं से, कुछ इसी प्रकार के दृश्यों से नाथूराम गोडसे आहत हो गए। चार साथी साथ मिला लिए और 30 जनवरी, 1948 को महात्मागांधी को नाथूराम गोडसे ने गोलियों से भून दिया। बस इतना सा खेल हुआ। उस खेल को हुए 70 सालहो गए। इन 70 सालों में कई पीढिय़ां इतिहास के गर्त में खो गईं। गांधी आजाद भारत में ‘राष्ट्रपिता’ हो गए।
 
देश क्योंकि कृतज्ञ था, उसने गांधी की राह पकड़ ली। जनता नाथूराम गोडसे को भूल चुकी थी। उसकी नादानी पर भारत की जनता ने चुप्पी साध ली थी, पर यह क्या? कुछ कोनों से आवाजें उठनी लगीं कि महात्मा गांधी यदि न चाहते तो देश का बंटवारा न होता। गांधी यदि चाहते तो स. भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से बचा सकते थे। गांधी नेहरू के हाथों में खेल गए और उन्होंने सरदार पटेल को आजाद भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। गांधी ने अहिंसा-अहिंसा का पाठ पढ़ा देश को नपुंसक बना दिया।
 
सब गलत। महात्मा गांधी तो अंतिम क्षण तक कहते रहे कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा। संभव है प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक राजनेताओं ने महात्मा गांधी को बहला-फुसला लिया हो। आजादी के इकरारनामे पर हस्ताक्षर करवाने के लिए उन्हें कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं ने मना लिया हो। गांधी कभी नहीं चाहते थे कि स. भगत सिंह को फांसी हो। गांधी को नेहरू और स. पटेल एक से प्रिय थे। गांधी अङ्क्षहसा को कायर का शस्त्र नहीं मानते थे। फिर महात्मा गांधी जीवन-मृत्यु में फर्क नहीं समझते थे। उन्हें गोली मारने वाले समझ ही न सके। वे महान थे। दुनियादारी के मोहपाश से दूर थे। उन्हें 55 करोड़ रुपए से क्या लेना-देना? वह सत्य पर चलने वाले थे। इसलिए उन्होंने कहा कि यदि समझौता हो गया है हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तो भारत को उसके हिस्से का 55 करोड़ देने में आनाकानी क्यों? तो क्या इसलिए गांधी को मार दिया जाए? कसूर किसी का, गोली गांधी को।
 
हां, गांधी यह जरूर चाहते थे कि हिंदू-मुस्लिम मिल कर रहें। गांधी पाकिस्तान के ‘पिता’ नहीं थे। वह भारत के राष्ट्रपिता हैं। उन्हें गोली क्यों? गोली मार दी सो मार दी, अब गोली मारने वाले को ‘हीरो’  क्यों कहें? गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ें, हिंदू महासभा वाले, जिनकी जिद्द ही कुछ ऐसी थी कि महात्मा गांधी को हारना पड़ा। आज महात्मा गांधी को गोली मारी जा सकती है, गांधीवाद को नहीं। विश्व की राजनीति के हजार सालों में अगर कोई नेता हुआ है तो उसका नाम है महात्मा गांधी। अब उनको मारने वालों को ‘हीरो’ क्यों कहा जाए? हिंदू महासभा अपनी गोलियों को गोडसे की ओर मोड़ें। गांधी को पढ़ें और देश के इस महान सपूत को गोलियों से नहीं बल्कि फूलों के हारों से सम्मानित करें।
 
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