भगवान भरोसे हमारे मासूम ‘बच्चे’

Thursday, Jan 09, 2020 - 02:18 AM (IST)

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि राजस्थान के सरकारी अस्पताल जे.के. लोन में एक महीने के अन्दर 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी। पिछले दिनों जब राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की टीम ने इस अस्पताल का दौरा किया, तो उसे अस्पताल में सूअर घूमते हुए दिखाई दिए। इस अस्पताल में चिकित्सा उपकरणों की हालत भी खराब मिली। दुखद यह है कि अस्पताल का नवजात शिशु गहन सुरक्षा वार्ड भी नर्सों की कमी से जूझ रहा है। यह विडम्बना ही है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह रहे हैं कि 2014 के बाद से इस अस्पताल में शिशुओं की मौतों की संख्या में कमी आई है। 

सवाल यह है कि क्या ऐसे बयानों से मुख्यमंत्री अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाएंगे? मुख्यमंत्री के इस बयान से यह सिद्ध होता है कि सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है। कांग्रेस आलाकमान भी इस मामले में बहुत देर से जागा है। गोरखपुर मेें बच्चों की मौत पर हल्ला मचाने वाली कांग्रेस राजस्थान में बच्चों की मौत पर क्यों उदासीन है? इस मामले में स्थानीय सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। पिछले दिनों विभिन्न आश्रय गृहों में बच्चों के साथ जिस तरह से अमानवीय अत्याचार की खबरें आईं, उससे यह स्पष्ट है कि सरकार, समाज और सरकारी एजैंसियां बच्चों के मामले में गम्भीर नहीं हैं।

बच्चे अनेक बीमारियों के कारण मौत के मुंह में जा रहे हैं 
इस प्रगतिशील दौर में एक तरफ बच्चे अनेक बीमारियों के कारण मौत के मुंह में जा रहे हैं तो दूसरी तरफ विभिन्न विसंगतियों के चलते बच्चों के बचपन पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। कुछ समय पूर्व सैंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि टी.वी. पर दिखाई जाने वाली ङ्क्षहसा से बच्चों के दिलो-दिमाग पर प्रतिकूल असर पड़़ रहा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि आज अनेक ऐसे बच्चे हैं जो भूत और किसी अन्य भटकती आत्मा के भय से प्रताडऩा की जिंदगी जी रहे हैं। 

सैंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च ने बच्चों पर मीडिया के कुप्रभाव का व्यापक सर्वेक्षण कराया। पांच शहरों में कराए गए इस सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष सामने आया कि हिंसा और भय वाले कार्यक्रमों के कारण बच्चों के दिलो-दिमाग पर गहरा असर पड़़ रहा है। शोधकत्र्ताओं का मानना है कि ऐसे कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा भावनात्मक असर पड़ता है जो आगे चलकर उनके भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इस सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष निकाला गया कि 75 फीसदी टी.वी. कार्यक्रम ऐसे हैं जिनमें किसी न किसी तरह की ङ्क्षहसा जरूर दिखाई जाती है। इन कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक असर पड़ता है। सस्पैंस, थ्रिलर, हॉरर शो और सोप ओपेरा देखने वाले बच्चे जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं से प्रभावित हो जाते हैं। इस समय भारत समेत दुनिया भर के बच्चों पर तमाम तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। विडम्बना यह है कि अब जलवायु परिवर्तन भी बच्चों को अपना शिकार बना रहा है। 

बच्चों को आया या नौकर के सहारे छोड़ दिया जाता है
गौरतलब है कि आज की महानगरीय जीवन शैली में माता और पिता दोनों ही अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में भी बच्चों की उचित एवं सम्पूर्ण देखभाल प्रभावित होती है। बच्चों को आया या नौकर के सहारे छोड़़ दिया जाता है। व्यावसायिकता के इस दौर में किंडर गार्टन संस्कृति भी खूब फल-फूल रही है। नौकर एवं किंडर गार्टन कुछ समय तक तो बच्चों की देखभाल कर सकते हैं लेकिन समस्या तब आती है जब अत्यधिक व्यस्तता के कारण माता-पिता बच्चों को मात्र इस व्यवस्था के सहारे ही छोड़ देते हैं।

कुछ मामलों में तो पति और पत्नी दोनों का काम पर जाना मजबूरी होती है। लेकिन महानगरों में पति और पत्नी दोनों ही अपनी अलग-अलग जिंदगी जीना चाहते हैं। ऐसे में बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। बच्चों के लालन-पालन के लिए मात्र सुख-सुविधाओं की ही आवश्यकता नहीं होती बल्कि सबसे अधिक आवश्यकता होती है उस स्नेह की जो सच्चे अर्थों में उनके अंदर एक विश्वास पैदा करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज हमने और अधिक पैसा कमाने की होड़ एवं आधुनिक बनने के चक्कर में मानवीय मूल्यों को भी तिलांजलि दे दी है। 

उन पर इच्छाएं मत थोपें
आज यह भी देखने में आ रहा है कि हम अक्सर बच्चों के मनोविज्ञान को समझे बिना अपनी इच्छाएं उन पर थोप देते हैं। ऐसे में बच्चे जिस अन्तद्र्वन्द्व की अवस्था से गुजरते हैं वह अन्तत: अनेक समस्याओं को जन्म देता है। यहां यह कहा जा सकता है कि यदि बच्चों की इच्छाओं के समक्ष घुटने टेक दिए जाएंगे तो उनके और अधिक जिद्दी बनने व गलत रास्ते पर चलने की सम्भावना बढ़ जाएगी। निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बच्चों की इच्छाओं को कोई महत्व ही न दें। अमूमन होता यह है कि हम शुरू में बच्चे को बहुत अधिक प्यार करते हैं। ऐसे में माता-पिता से बच्चे की अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। अपनी इन्हीं अपेक्षाओं के अनुरूप जब बच्चा अपनी इच्छाएं माता-पिता को बताता है तो वे उसे डांट-फटकार कर चुप करा देेते हैं। माता-पिता का यह व्यवहार ही बच्चों को विद्रोही एवं चिड़चिड़ा बना देता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रारम्भ से ही बच्चों के साथ एक संतुलित रवैया अपनाएं। 

बच्चे में उस लक्ष्य तक पहुंचने की क्षमता है भी या नहीं
अक्सर यह देखने में आया है कि माता-पिता स्वयं जिस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते हैं वे उस लक्ष्य तक अपने बच्चों को पहुंचाने की कोशिश करते हैं। वे इस जुनून में यह भी परवाह नहीं करते कि वास्तव में बच्चे की अपनी इच्छा क्या है? वे यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे में उस लक्ष्य तक पहुंचने की क्षमता है भी या नहीं। निश्चित रूप से बच्चे के उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न देखना और उस स्वप्न को साकार करने का प्रयास करना गलत नहीं है लेकिन यह सब यथार्थ के धरातल पर होना चाहिए। सर्वप्रथम हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि पढ़ाई में बच्चे का स्तर क्या है? इसी आधार पर हमें उसके भविष्य का मार्ग तय करना चाहिए। 

जीवन का मूल उद्देश्य है सम्मानपूर्वक जीवन जीना। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्मान किसी एक क्षेत्र की बपौती नहीं होता है। यदि हम ईमानदारी एवं लग्र से कार्य करें तो किसी भी क्षेत्र में सम्मानपूर्वक जीवन जीया जा सकता है। इसलिए बच्चों की क्षमता को न देखते हुए किसी एक ही करियर का जुनून पालना गलत तो है ही, बच्चे के प्रति भी अन्याय है। अमूमन होता यह है कि माता-पिता बच्चे के स्तर से अधिक की आशा रखते हैं। ऐसे में आशानुरूप परिणाम न मिलने के कारण माता-पिता के डर से अनेक बच्चे आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं। इस तरह की अनेक घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। 

बहरहाल कोटा के सरकारी अस्पताल मेें लगभग 106 बच्चों की मौत की खबर हमारी प्रगतिशीलता पर तमाचा जड़ती है। राजनेताओं द्वारा अपने बयानों के माध्यम से बच्चों की मौत पर अनावश्यक रूप से सफाई देना अन्तत: उन्हें कटघरे में खड़ा करता है। कांग्रेसी मुख्यमंत्री और कांग्रेस को इस मुद्दे को गंभीरता से लेकर सख्त कदम उठाने चाहिएं। बच्चों के बचपन को बचाने के लिए आज विभिन्न स्तरों पर विचार-विमर्श की जरूरत है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि बचपन को भाषणबाजी के माध्यम से नहीं बचाया जा सकता। बचपन बचाने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।-रोहित कौशिक
 

Advertising