लैंगिक समानता भी महिलाओं का बुनियादी हक

Friday, Aug 25, 2017 - 03:09 AM (IST)

सुप्रीम कोर्ट के तलाक से संबंधित मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मील पत्थर फैसले की जहां हर तरफ  तारीफ हो रही है, वहीं देश में महिला सशक्तिकरण से जुड़े सिक्के के दूसरे पहलू को नजरअंदाज करना काफी मुश्किल होगा कि लैंगिक समानता की अन्तर्राष्ट्रीय रैंकिंग में भारत अभी बहुत पीछे और नीचे है। विश्व आर्थिक मंच की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 144 देशों के मूल्यांकन में भारत का स्थान 87वां है। यहां तक कि भारत अपने पड़ोसी बंगलादेश से भी इस मायने में पीछे है जो 72वें नंबर पर है।

उत्तरी यूरोप के स्कैंडेनेवियाई प्रायद्वीप के देश यानी नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड और आइसलैंड लैंगिक समानता के वैश्विक इंडैक्स में सर्वोच्च स्थान पर हैं। वैश्विक लैंगिक समानता की इस रिपोर्ट में आॢथक अवसर और भागीदारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक भागीदारी के सूचकांकों का मिला-जुला आकलन किया जाता है। स्कूली शिक्षा में भारत में लड़के-और लड़कियों के बीच कोई विषमता नहीं रह गई है। राजनीतिक भागीदारी भी बेहतर हुई है लेकिन कार्यस्थल पर समानता का लक्ष्य हासिल करने में 1000 वर्ष से भी अधिक का समय भारत में लग सकता है? 

आजादी के बाद भारत ने नियोजित विकास का रास्ता अपनाया। लैंगिक समानता संविधान के मूल तत्वों में है और उसी भावना के अनुसार समय-समय पर शिक्षा, परिवार, समाज और कार्यस्थल में भेदभाव के विरुद्ध कानूनी प्रावधान किए गए। उदाहरण के लिए शिक्षा के अधिकार का लागू किया जाना, लड़कियों और महिलाओं के लिए विशेष स्वास्थ्य योजनाएं, विवाह और उत्तराधिकार के कानून, दहेज और गर्भपात के कानून, कार्यस्थल में उत्पीडऩ और घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून तथा सरकारी शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण ऐसी व्यवस्थाएं हैं  जिनसे स्त्रियों को बेहतर जीवन दशाएं प्राप्त करने का हौसला मिला है। 

लेकिन भारत में अभी भी उस ढांचे को नहीं बदला जा सका है जो स्त्री को दोयम दर्जे का मानता है और पुरुष को उसके दमन और शोषण का अधिकार देता है। इसका सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि स्वयं महिलाएं भी अधिकांश मौकों पर यथास्थिति को चुनौती देने में हिचकती हैं और नतीजतन उसका शिकार बनती हैं। बच्चियों के जन्म, उनके पालन-पोषण, पढ़ाई और नौकरी हर स्तर पर यही मानसिकता हावी है। महिलाओं को पीछे रखने में यही सबसे बड़ी बाधा है। आज भी बच्चों के जन्म के बाद उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी स्त्री की ही अधिक समझी जाती है, चाहे वह काम पर जाती हो या घर के दायित्व निभाती हो। लिहाजा महिलाएं कई बार पारिवारिक जिम्मेदारी के दबाव में नौकरी छोडऩे को मजबूर हो जाती हैं या फिर कार्यस्थल पर उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता है, यह समझ कर कि उनकी कार्यक्षमता कम हो चुकी है। 

फिनलैंड और आइसलैंड जैसे यूरोपीय देशों में, जो लैंगिक समानता के उदाहरण हैं, वहां काम और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन कायम रखने के लिए अनुकूल कानून बनाए गए हैं। महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी अभिभावक बनने पर अनिवार्य छुट्टी दी जाती है। राजनीतिक पाॢटयों ने वहां महिलाओं के लिए स्वेच्छा से आरक्षण की व्यवस्था की है जबकि भारत की संसद में महिला आरक्षण विधेयक धूल फांक रहा है। उस पर सिर्फ गाल बजते देखा गया है। महिलाओं के शोषण पर काबू पाने के लिए सबसे अधिक पहल पारिवारिक स्तर पर करनी होगी, जहां आज भी बेटी का जन्म एक अभिशाप की तरह है। बेटी को अपनाने, उसे शिक्षित और सुयोग्य बनाने की जिम्मेदारी परिवार की है क्योंकि भारत में स्त्री-पुरुष अनुपात ही काफी असंतुलित है। 

यहां प्रति हजार पुरुषों पर सिर्फ 944 महिलाएं हैं। परिवार, समाज, राजनीति और कारोबार सब जगह नजरिए में व्यापक बदलाव लाए बिना बात नहीं बनेगी। सामाजिक ढांचे में घुसपैठी अंदाज में नहीं बल्कि सरकार को एक सजग और सहिष्णु संरक्षक बनकर जाना चाहिए। लैंगिक समानता का सूत्र श्रम सुधारों और सामाजिक सुरक्षा के कानूनों से भी जुड़ा है। कार्यस्थल पर चाहे वह मजदूरी हो या फिर कार्पोरेट, महिलाओं के लिए समान वेतन सुनिश्चित करना और सुरक्षित नौकरी की गारंटी देना, मातृत्व अवकाश और पितृत्व अवकाश के जो कानून सरकारी क्षेत्र में लागू हैं, उन्हें निजी और असंगठित क्षेत्र में भी सख्ती से लागू करना सरकार की जिम्मेदारी है। विडंबना यह है कि सरकार ऐसे कानून बना तो देती है लेकिन यह सुनिश्चित नहीं करती कि उन्हें निजी क्षेत्रों में भी लागू किया जाए। 

रही बात राजनीतिक भागीदारी की तो उसमें बराबरी सुनिश्चित करने के लिए  राजनीतिक दलों को न सिर्फ  आगे बढ़कर महिलाओं को सीटें देनी होंगी बल्कि उन्हें निर्णायक जिम्मेदारी के पद भी देने होंगे। चंद नामचीन महिलाओं के नाम आखिर कब तक गिनाए जाते रहेंगे! विकास के विभिन्न सूचकांकों की जो भी अन्तर्राष्ट्रीय रिपोर्टें पिछले कुछ अर्से में सामने आई हैं, उन सभी में भारत निचले पायदानों पर ही है, चाहे वह स्वास्थ्य, शिक्षा या पोषण हो या रोजगार या फिर मानव विकास सूचकांक। यह इसलिए चिन्ताजनक है क्योंकि उदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में सामाजिक क्षेत्र में सरकार का निवेश लगातार घटा है और वृहद कार्पोरेट के सामाजिक सरोकार न के बराबर हैं। सरकार और कार्पोरेट के पास महिला विकास के बेशक चमकीले उदाहरण होंगे लेकिन यह सच है कि पर्देदारी से अधिक कुछ नहीं होगा।

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