आर्थिक विकास को ‘मापने’ का कारगर तरीका है जी.डी.पी.

punjabkesari.in Sunday, Dec 15, 2019 - 02:09 AM (IST)

साल 1652 से 1674 के बीच इंगलैंड ने हॉलैंड से तीन लड़ाइयां लड़ीं, जिसके लिए पैसे का इंतजाम करने में स्थानीय जमींदारों को अपनी आमदनी पर भारी करों का बोझ उठाना पड़ा। विलियम पेट्टी का मानना था कि यह बहुत अन्यायपूर्ण है और उसने इंगलैंड व वेल्स के लिए एक राष्ट्रीय खाता तैयार करने का फैसला किया, जिसमें तय किया गया कि राष्ट्रीय आय और कुल खर्च के बीच संतुलन होना चाहिए। 

विलियम पेट्टी ने रोजाना के खर्च का हिसाब लगाया-जिसके तहत इंगलैंड और वेल्स के 60 लाख नागरिकों में से प्रत्येक के लिए रोजाना 4.5 पेंस का खर्च भोजन, आवास, कपड़े और दूसरी जरूरतों के लिए पर्याप्त माना गया, जोकि सालाना 4 करोड़ पाऊंड होता है, आय के लिए संपत्ति की एक विस्तृत सूची (जैसे लंदन में घर, जमीन, जहाज) दी गई जिसका कुल जोड़ सालाना 1.5 करोड़ पाऊंड होता था, बाकी सालाना 2.5 करोड़ पाऊंड भत्तों के तौर पर वर्गीकृत किया गया। तत्कालीन सरकार को उनकी सलाह थी कि जनता पर इसी के हिसाब से टैक्स का बोझ डाला जाना चाहिए। और इस तरह, जी.डी.पी. का जन्म हुआ। 

आधुनिक काल में यह जिस रूप में है, उसे साइमन कुजनेट द्वारा 1934 में अमरीकी कांग्रेस के लिए तैयार रिपोर्ट में पेश किया गया था, इस चेतावनी के साथ कि यह सामाजिक प्रगति या कल्याण को मापने के लिए उपयुक्त नहीं है। फिर भी, यह वह पैमाना है जिस पर हर देश आगे दिखना चाहता है। इस चेतावनी को शुरूआत से ही स्वीकार किया गया। नए फॉर्मूले में बाह्य कारकों, नॉन-मार्कीट ट्रांजैक्शन, नॉन-मनीटरीइकोनॉमी, क्वालिटी इम्प्रूवमैंट या वैल्थ डिस्ट्रीब्यूशन को शामिल नहीं किया गया है। आर्थिक विकास (जी.डी.पी. सहित) के मौजूदा मापक हर खर्च को सकारात्मक मानते हैं, कल्याणकारी और हानिकारक गतिविधियों में अंतर किए बिना। यहां तक कि भोपाल गैस ट्रैजडी भी जी.डी.पी. बढ़ा सकती है-पुनॢनर्माण की गतिविधियों के माध्यम से। लोगों के बीच आय के वितरण और इसके कारगर सामाजिक प्रभाव को भी बहुत कम महत्व दिया गया है। 

जी.डी.पी. के कई विकल्प भी हैं
1980 के दशक की शुरूआत में, क्षमता के मूल्यांकन का सिद्धांत सामने आया, जो किसी देश के लोगों को हासिल लाभदायक क्षमताओं पर केन्द्रित है। 1989 में जॉन बी. कोब और हरमन डाली द्वारा पेश सस्टेनेबल इकोनॉमिक वैल्फेयर (सतत् आर्थिक कल्याण) सूचकांक में अन्य कारकों (उदाहरण के लिए गैर-नवीकरणीय संसाधनों की खपत) को भी शामिल किया गया। मशहूर ग्रॉस नैशनल हैप्पीनैस (सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता) की अवधारणा 2005 में मेड जोन्स द्वारा पेश की गई थी। विश्व बैंक ने ‘कम्प्रिहैंसिव वैल्थ (समग्र संपदा)’ को परिभाषित करते हुए कहा है- इसमें अर्जित आय के साथ इससे जुड़ी लागत का आकलन किया जाता है, जिससे आर्थिक कल्याण और प्रकृति को नुक्सान पहुंचाए बिना विकास के बारे में व्यापक जानकारी मिल सके। वैसे प्रमुख घटकों को मिलाकर जिसमें प्राकृतिक, सामाजिक और मानवीय पूंजी शामिल है, प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में कनाडा सबसे ऊपर है। चीन ने  जी.डी.पी. की गणना के लिए पर्यावरणीय कारकों को शामिल करते हुए साल 2006 में ‘ग्रीन जी.डी.पी.’ बनाई, यू.के. ने साल 2010 में जी.डी.पी. के अलावा हैप्पीनैस का सर्वे किया और न्यूजीलैंड ने मई 2019 में ‘वैल-बीइंग (स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न) बजट अपनाया। 

आर्थिक कल्याण घटा
भारत के लिए तीन प्रमुख रास्ते हैं जिन पर हम आगे बढ़ सकते हैं- पहला, प्राकृतिक और सामाजिक पूंजी के नुक्सान को मापना। यह समझने के लिए कि इस तरह की आर्थिक गतिविधियों से कितनी सामाजिक और प्राकृतिक पूंजी का निर्माण होता है, सकल घरेलू उत्पाद के आकलन का गुणात्मक समायोजन करके जाना जा सकता है। एक अन्य मापक, ‘जेनुइन प्रोग्रैस इंडीकेटर (जी.पी.आई.)’ में मौजूदा जी.डी.पी. डेटा को लिया जाता है और इसमें त्रुटि-सुधार के लिए असमानता, प्रदूषण लागत और अनियमित रोजगार जैसे विभिन्न सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों को शामिल कर लिया जाता है। इस तरह के सुधार, कुछ नहीं तो कम से कम जी.डी.पी. आंकड़ों की आड़ में छिपाई गई बाजार की विफलताओं को हमारे सामने लाने में मददगार हो सकते हैं और फिर यह समस्या समाधान के लिए सरकारी कार्रवाई (जैसे प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर पाबंदी लगाने) का रास्ता बनाएंगे। इन सुधारों से हकीकत सामने आ रही है-वैश्विक जी.डी.पी. 1950 से 3 गुना बढ़ चुकी है। 

हालांकि जैसा कि जी.पी.आई. द्वारा दिखाया गया है, वास्तविक अर्थों में आर्थिक कल्याण घट गया है। इसे आबादी से विभाजित करने पर आर्थिक उपलब्धि की असल तस्वीर सामने आ सकती है। प्रति व्यक्ति वैश्विक जी.पी.आई. 1978 में सर्वोच्च स्तर पर थी। संयोग से, इसी अवधि में वल्र्ड इकोलॉजिकल फुटप्रिंट मानव जीवन के लिए जरूरी वल्र्ड बायो-कैपेसिटी से अधिकथा। हमें अपनी अर्थव्यवस्था में लेन-देन के स्वरूप का भी आकलन करना चाहिए। यह स्वीकार करना होगा कि प्रत्येक रुपए का लेन-देन जरूरी नहीं कि समान मूल्य या गुणवत्ता का हो।

यू.पी.आई. और रुपए के फैलाव के साथ हमारी अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना, सामाजिक कल्याण के नजरिए से हर लेन-देन को ट्रैक करना (जैसे खादी खरीदना हमारी हस्तशिल्प परम्परा को प्रोत्साहन देने में मदद करता है) मुमकिन हो सकेगा। इससे एक बेनाम व्यवस्था द्वारा आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सकेगा, जिससे सामाजिक और प्राकृतिक पूंजी में सुधार होगा। आर्थिक गतिविधियों की एक सच्ची तस्वीर सामने आएगी, जो रिटेल इंवैस्टर्स को सही फैसले लेने में समर्थ बनाएगी (जैसे कि नवीकरणीय ऊर्जा के बुनियादी ढांचे से जुड़े सेविंग सर्टीफिकेट, पैट्रोलियम कम्पनियों के वर्चस्व वाले म्यूचुअल फंड पोर्टफोलियो इत्यादि)। 

विकास संकेतकों को ज्यादा महत्व देने पर भी विचार करना होगा। 1990 में महबूब अल हक द्वारा विकसित मानव विकास सूचकांक जो जन्म के बाद जिंदा रहने की संभावना, वयस्क साक्षरता दर और जीवन स्तर का एक समग्र सूचकांक है-अब इसके साथ ही कई समग्र इंडैक्स (जैसे असमानता-समायोजित मानव विकास सूचकांक, लैंगिक असमानता सूचकांक और लैंगिक विकास सूचकांक) भी आ गए हैं। परम्परागत जी.डी.पी. से इतर आर्थिक नीतियों में बदलाव के साथ विकास संकेतकों में सुधार का लम्बे समय से इंतजार किया जा रहा है।

अंत में कहना चाहता हूं कि हमें जी.डी.पी. का पैमाना जारी रखना चाहिए-यह अभी भी आर्थिक विकास को मापने का एक कारगर तरीका है लेकिन नजरिए में बदलाव जरूरी है। कुजनेट के शब्दों में-‘‘विकास की मात्रा व गुणवत्ता, लागत व रिटर्न और अल्पकालिक व दीर्घकालिक अवधि के बीच फर्क को ध्यान में रखना चाहिए। विकास के बड़े लक्ष्यों में किसका विकास और किसके लिए विकास स्पष्ट रूप से इंगित किया जाना चाहिए।’’ एडम स्मिथ का ‘अदृश्य हाथ’ अचानक अधिक दृश्यमान हो उठा है और इसे मनुष्य को स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न बनाने की दिशा में बढ़ता दिखना चाहिए।-वरुण गांधी


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