महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाने पर संकल्पबद्ध थे गांधी और अम्बेदकर

Saturday, Mar 26, 2016 - 01:59 AM (IST)

(पूरन चंद सरीन): भारत माता की दो महान विभूतियों में एक मोहनदास कर्मचन्द गांधी : महात्मा, बापू और राष्ट्रपिता के रूप में और दूसरे भीमराव अम्बेदकर  संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा बाबा साहेब के रूप में हमारे मानसपटल पर श्रद्धापूर्वक विराजमान हैं। विडम्बना यह कि दोनों ही महापुरुषों के अनुयायियों ने उनके बताए मार्ग का केवल उस सीमा तक ही अनुसरण किया जिससे उनके व्यक्तिगत, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होते रहें। परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार ये दोनों जीवनभर एक- दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में देखे जाते रहे, उनके उत्तराधिकारी भी एक-दूसरे को पटखनी देने के अवसर तलाशते रहते हैं।

 
बापू और बाबा साहेब बनने की प्रक्रिया को अगर गौर से देखा जाए तो दोनों ही को समान परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। जहां बैरिस्टर गांधी के मन में दक्षिण अफ्रीका में गोरों की भेदभावपूर्ण नीति का शिकार होने पर अत्याचार को न सहने की नींव पड़ी, वहीं भीमराव को उनके स्कूल में प्यास लगने पर चपड़ासी द्वारा बिना उनको छुए ऊपर से मुंह में बर्तन से पानी उंडेलने और जब चपड़ासी न हो तो प्यासा रहने की मजबूरी ने उन जातियों के प्रति आक्रोश से भर दिया जो उनके अनुसार मनुवादी वर्ण व्यवस्था की देन हैं। 
 
दोनों ही का बाल विवाह हुआ था और दोनों ही महिलाओं को समाज में बराबरी का हक दिलवाने के लिए दृढ़ संकल्प थे। इसी तरह दोनों ही का यह मानना था कि केवल शिक्षा ही गरीबी को मिटा सकती है तथा परिवार नियोजन देश की जरूरत है और दकियानूसी रीति-रिवाजों, अनुचित सामाजिक बन्धनों और जातिवाद की जकडऩ से बाहर निकलकर ही स्वतंत्र भारत को सशक्त राष्ट्र बनाया जा सकता है।
 
महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर में एक बुनियादी अंतर यह था कि जहां गांधी जी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती के पक्षधर थे, वहीं अम्बेदकर गांव से पलायन कर शहरों में दलित समाज की प्रगति के स्वप्र देखते थे। ग्रामीण क्षेत्रों से एक बार जो रोजी-रोटी कमाने के लिए पलायन शुरू हुआ वह आज तक रोके नहीं रुक रहा है। शहरों में स्लम और झुग्गी-झोंपडिय़ों के रूप में प्रमुखत: दलितों की बस्तियां आबाद होती गईं जो निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। मजे की बात यह कि उन्हें नागरिक सुविधाओं तक से वंचित किया जाता रहा है और जब ज्यादा शोर होता है तो इन तथाकथित अनधिकृत बस्तियों को अधिकृत करने की कवायद अपने-अपने वोट बैंकों की सुरक्षा करने के मकसद से सभी राजनीतिक दलों द्वारा की जाती रही है।
 
दोनों चाहते थे कि भारतीय समाज सामाजिक न्याय और समानता के आधार पर चले लेकिन दोनों के तरीकों में इसे हासिल करने के लिए इतना फर्क था कि समस्या आज तक अपने कुत्सित रूप में हमारे सामने है। हुआ यह कि अनजाने में या जानबूझकर सवर्ण और दलित के रूप में वर्ग भेद की नींव पडग़ई। 
 
दलित वर्ग के पोषण के लिए  आरक्षण की व्यवस्था हुई। विडम्बना यह कि अम्बेदकर स्वयं चाहते थे कि एक निश्चित अवधि के बाद इसे समाप्त कर दिया जाए क्योंकि तब तक आरक्षण का सहारा लेकर दलित समाज मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा। 
 
लेकिन हमारी राजनीति का चलन कुछ ऐसा बिगड़ा कि वह आज तक कायम है और समाज में बिखराव और एक- दूसरे के प्रति नफरत बढ़ाने का एक बड़ा कारण है। यह ठीक वैसा ही हुआ जैसा कि गांधी जी ने कांग्रेस के बारे में कहा था कि आजाद होने का लक्ष्य प्राप्त होने के बाद कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए लेकिन कांग्रेसी इसे जीवित रखकर अपनी स्वार्थ साधना करते रहे।
 
गांधी जी जाति प्रथा को हिन्दू धर्म में ही रहकर समाप्त करने की बात करते थे जबकि अम्बेदकर छुआछूत का शिकार बनी जातियों को एक अलग समाज की तरह देखते थे और शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने की बात की और जीवन के अंतिम वर्षों में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। 
 
इस तरह दलित समाज के नाम पर एक नया वर्ग बन गया जिसे अंग्रेजों ने भारत पर ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए हवा दी और जिस तरह अंग्रेजी हुकूमत ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव के बीज बोकर दो देश बना दिए, वहीं उन्होंने हिन्दू समाज को सवर्ण और दलित के बीच बांट दिया और इस खाई को अपनी कुटिल नीतियों से इतना चौड़ा कर दिया कि आज तक उसे भरने में हमारी पूरी व्यवस्था कामयाब नहीं हुई है।
 
आरक्षण की व्यवस्था हमारे गले में एक ऐसी फांस की तरह अटक गई है जो न उगलते बनती है, न निगलते  ही बनती है। यही कारण रहा होगा जिसकी वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह घोषणा करनी पड़ी कि यदि स्वयं अम्बेदकर भी आ जाएं तो आरक्षण व्यवस्था को समाप्त नहीं कर सकते। जिन्हें आरक्षण मिल सकता है और जिन्हें नहीं मिल सकता उनके बीच का अंतर मिटा पाना असंभव है जब तक कि इस पूरी समस्या पर दोबारा से सभी राजनीतिक दल विचार करने के लिए एक साथ नहीं बैठते, जो कि दूर के ढोल सुहावने लगने जैसा है क्योंकि यह सोचते ही सबको वोट बैंकों के धराशायी होने का खतरा मंडराता दिखाई देने लगता है।
 
गांधी जी ने कहा था कि अगर उनका पुनर्जन्म हुआ तो वे एक अस्पृश्य के यहां पैदा होना चाहेंगे। वह चाहते थे कि चाहे किसी भी वर्ण या जाति में जन्म हो, सभी को एक समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिएं। सफाई कर्मी के यहां उत्पन्न बालक अपनी ही जाति में रहते हुए वकील या राष्ट्रपति तक बनने का स्वप्न चरितार्थ कर सकता है जबकि अम्बेदकर अस्पृश्यता का शिकार होने पर पूरी जाति को ही एक नए वर्ग या धर्म के रूप में परिवर्तित करने में विश्वास रखते थे। 
 
गांधी हृदय परिवर्तन की बात करते थे जबकि अम्बेदकर इसे असंभव मानते थे, विडम्बना यह कि अम्बेदकर के घर में रामायण और महाभारत का पाठ नियमित रूप से होता था और गांधी राम राज की कल्पना करते हुए गीता का अनुसरण करते थे। अम्बेदकर मानते थे कि ङ्क्षहदू धर्म में रहकर कभी भी दलितों को बराबरी का हक नहीं मिल सकता। प्रश्न यह है कि कोई भी धर्म हो, उसके अनुयायियों में एक-दूसरे के प्रति समान व्यवहार की प्रवृत्ति क्यों नहीं पनप सकती, यह सोचने की बात है।
 
शायद अब समय आ गया है जब हम यह सोचें कि सवर्ण और दलितों के बीच की खाई जब तक आरक्षण की बैसाखी के सहारे चौड़ी होती रहेगी, देश का इन दोनों के बीच रोजाना होने वाले संघर्ष से बचना कठिन है। अम्बेदकर की सोच यह भी थी कि जब तक प्रत्येक पीढ़ी को अपना संविधान चुनने या बनाने का अधिकार नहीं होगा तब तक समाज जीवंत नहीं रह पाएगा। यही कारण है कि संविधान में उसके लागू होने के बाद से अनेक बार संशोधन किए गए हैं। इसके लिए अब यदि सम्पूर्ण संविधान पर ही पुर्नविचार करना पड़ जाए तब भी कोई हानि नहीं है क्योंकि संविधान देशहित से बड़ा नहीं है। 
 
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