मुफ्तखोरी से डगमगाते आर्थिक हालात

punjabkesari.in Saturday, Jun 10, 2023 - 05:25 AM (IST)

गांधी जी को यदि कर्मयोगी की प्रतिमूर्ति मान लिया जाए तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि मैं देश में किसी को मुफ्तखोरी की अनुमति नहीं दे सकता। उनका कहना था कि शारीरिक परिश्रम के बगैर किसी व्यक्ति को भोजन नहीं मिलना चाहिए। गहराई से देखें तो राजनीतिक पाॢटयों की मुफ्त योजना संबंधी घोषणाएं देश के सामूहिक मानस को भिखारी बना रही हैं। जिस व्यक्ति, समाज और देश के अंदर यह भाव और व्यवहार नहीं है कि अपने समक्ष उत्पन्न कठिनाइयों, चुनौतियों को स्वयं के परिश्रम से निपटाएगा, वह व्यक्ति, समाज और देश कभी सशक्त और आत्मनिर्भर नहीं बन सकता। एक बार समाज को मुफ्तखोरी का स्वाद लग जाए तो परिश्रम कर स्वयं को सक्षम बनाने का संस्कार ही समाप्त हो जाता है। 

इस विचार और व्यवहार का प्रभाव देखिए कि जिनके लिए कुछ किलो राशन, कुछ यूनिट बिजली या कुछ लीटर पानी का खर्च मायने नहीं रखता, वे भी आज इन मुफ्त की योजनाओं का इंतजार करते रहते हैं, जबकि जनतंत्र में तो सरकारें अपने संसाधनों का आबंटन लोकहित के मद्देनजर करती हैं तथा संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में भी सरकारों से लोक कल्याणकारी व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। वैसे तो अनुच्छेद-282 में अनुदान की व्यवस्था भी है, पर जन कल्याणकारी उपायों तथा मुफ्त उपहार के बीच अंतर की एक बारीक रेखा है। 

देश के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक दलों का गठन होता है, उनके रास्ते अलग हो सकते हैं, पर सभी दलों को राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। वर्ष 2020-21 में आर.बी.आई. की राजकोषीय जोखिम भरी रिपोर्ट में भारी कर्जदार राज्यों में कर्ज सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.एस.पी.) के आधार पर ज्यादातर राज्यों की वित्तीय हालत बहुत बुरी है और पंजाब में तो यह सबसे अधिक 53.6 फीसदी है, जो चिंता का विषय है। 

अन्य राज्यों, राजस्थान में 39.5 फीसदी, बिहार में 38.6, केरल में 37, उत्तर प्रदेश में 34.9, पश्चिम बंगाल में 34.2, झारखंड में 33.0, आंध्र प्रदेश में 32.5, मध्यप्रदेश में 31.3 तथा हरियाणा में 29.4 फीसदी के साथ बड़े कर्जदार राज्य हैं। इन राज्यों का भारत के सभी राज्य सरकारों द्वारा कुल व्यय का लगभग आधा हिस्सा है और ये राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून 2003 का उल्लंघन भी कर रहे हैं। 

एक अनुमान है कि विभिन्न राज्यों में मुफ्त उपहारों पर खर्च जी.एस.डी.पी. के 0.1 से 2.7 फीसदी के बीच है। पंजाब और आंध्र प्रदेश जैसे अत्यधिक ऋणग्रस्त राज्यों में मुफ्त उपहार जी.एस.डी.पी. के दो फीसदी से अधिक है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, सबसिडी पर राज्य सरकारों का खर्च भी वर्ष 2020-21 और वर्ष 2021-22 के दौरान 12.9 फीसदी तथा 11.2 फीसदी बढ़ा है। 

राज्यों द्वारा कुल राजस्व व्यय में सबसिडी का हिस्सा वर्ष 2019-20 के 7.8 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 8.2 फीसदी हो गया है। मुफ्त उपहार समग्र आर्थिक प्रबंधन की बुनियाद को कमजोर करते हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि यदि राजनीतिक दल पारदर्शी प्रशासन उपलब्ध कराते हैं तो उन्हें मुफ्त सुविधाओं का लालच देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। राजनीतिक दलों को अपनी भूमिका इस तरह निभानी चाहिए जिससे उनका राजनीतिक प्रभाव बना रहे और देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिले। 

जरूरतमंद लोगों को और यहां तक कि सक्षम लोगों को भी मुफ्त सुविधाएं देने के बढ़ते चलन ने राष्ट्र की मजबूती की सतत् प्रक्रिया को कमजोर किया है। सड़क, बंदरगाह, एयरपोर्ट आदि ढांचागत विकास के मामले में हम अमरीका और चीन से काफी पीछे हैं। कुछ सरकारों ने इसको गति देने का काम किया है, पर हमें इसके लिए और संसाधनों की आवश्यकता है। राज्य सरकारें इसमें सहयोग कर सकती हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश मुफ्तखोरी की राजनीति में उलझी हैं। 

इस संबंध में हमें दक्षिण अमरीकी देश वेनेजुएला के उदाहरण से सीख लेनी चाहिए। पिछली सदी के आखिरी दशक में तेल के बढ़ते मूल्यों से इस खनिज संपन्न देश में संपन्नता आई। उस पैसे को उत्पादक चीजों पर खर्च करने के बजाय वहां की सरकार ने जनता को मुफ्त में खाने से लेकर आवागमन आदि की सुविधाएं दीं। कुछ ही वर्षों में तेल के दामों में गिरावट के कारण वहां की अर्थव्यवस्था धड़ाम से नीचे गिर गई। 

आज भी उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी पर नहीं आई है। वहां अराजकता सरीखी स्थिति है। श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से भी हम सीख सकते हैं। साफ है राजनीतिक दलों को वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता को समझना चाहिए। मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय लोगों की क्षमता का विकास करना चाहिए। राष्ट्र के सतत् विकास के लिए और भारत को अग्रणी देशों की श्रेणी में लाने के लिए इसकी गहन आवश्यकता है।

बड़ा सवाल है कि क्या मुफ्तखोरी से देश का आर्थिक तानाबाना स्वस्थ बना रह पाएगा?  विकसित देशों में भी मुफ्तखोरी से परहेज किया जाता है। फिर विकासशील देशों में तो इसकी एकदम प्रासंगिकता नहीं रह जाती। इससे देश की अर्थव्यवस्था डगमगा सकती है। इसलिए अब समय आ गया है जब सियासत के दायरे से बाहर निकलकर इस मुफ्तनामा व्यवस्था पर तार्किक नजरिए से विचार-विमर्श किया जाना चाहिए।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा 
 


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