गंदगी भरे वातावरण से मुक्त ‘आदर्श पुलिस स्टेशन’ बनाने की जरूरत

Thursday, Dec 17, 2015 - 01:07 AM (IST)

(अविनाश राय खन्ना)पंजाब मानवाधिकार आयोग का सदस्य होने के नाते मैं अक्सर पुलिस स्टेशनों का दौरा करता था। भारत के पुलिस  स्टेशनों की एक सामान्य प्रणाली है जो देश के लगभग सभी पुलिस स्टेशनों में एक समान रूप से देखने को मिल सकती है। पुलिस स्टेशनों में प्रवेश करने पर आपका स्वागत रंग-बिरंगे  फूलों से सुसज्जित वातावरण से नहीं अपितु पूरे अव्यवस्थित ढंग से खड़े उन वाहनों तथा अन्य कई प्रकार के सामान से होगा जो भिन्न-भिन्न मुकद्दमों में जब्त किए गए हैं और जिन्हें उनके मालिकों को वापस लौटाया नहीं गया। 

इस संबंध में मैंने कई बार संसद में भी चर्चा की और सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर उनका ध्यान सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की ओर आकृष्ट किया कि मालखाने के इस सामान को जिसमें मुख्यत: वाहन तथा कई प्रकार के घरेलू सामान भी होते हैं, उसके मालिकों को सुपुर्दारी पर दिया जाए और यदि कोई व्यक्ति इस पर अपना दावा प्रस्तुत नहीं करता तो उसे नीलाम करके पैसा जमा कर लिया जाए। नीलाम करने से पूर्व उस सामान की फोटो तथा पूरा रिकार्ड पुलिस स्टेशन  के साथ-साथ कोर्ट में भी सुरक्षित रखा जाए।  

यह एक कानूनी प्रक्रिया है, परन्तु इस कार्य को करने से पुलिस स्टेशनों में स्वच्छता का वातावरण बनाने में काफी मदद मिलेगी। इसके अतिरिक्त पुलिस विभाग को इन लावारिस वाहनों की नीलामी करने से अपार धन भी प्राप्त हो सकता है। तमिलनाडु के गृह विभाग ने मुझे अपने पत्र संख्या-46066/पोल-11/2015/2 दिनांक 23 सितम्बर, 2015 के द्वारा बताया है कि विगत 3 वर्षों में तमिलनाडु ने पुलिस स्टेशनों में पड़े लावारिस वाहनों की नीलामी से लगभग 10 करोड़ रुपया वसूल किया है। 

एक पुलिस स्टेशन में जितने भी अधिकारी तैनात होते हैं वे सब पुलिस स्टेशन में नहीं मिलते। यदि कुछ अधिकारियों को क्षेत्र में दौरे के लिए भेजा गया हो तो उनकी विधिवत प्रविष्टि  पुलिस स्टेशन की दैनिक डायरी में मिलनी चाहिए परन्तु अक्सर दैनिक डायरियां कई-कई घंटे के बाद मनमाने तरीके से भरी जाती हैं। पुलिस स्टेशन के प्रवेश द्वार पर ड्यूटी अफसर के रूप में एक पुरुष अधिकारी तथा एक महिला अधिकारी की उपस्थिति आवश्यक है, परन्तु सामान्यत: यह व्यवस्था देखने को नहीं मिलती।  

ड्यूटी अफसर के स्थान पर यदि हम इस पुलिस अधिकारी को स्वागत कक्ष अधिकारी कहें तो जनता के मन में एक विशेष आशा जागृत होगी कि पुलिस स्टेशन में प्रवेश पर नियुक्त यह अधिकारी उनका सम्मानपूर्वक स्वागत करेगा और उनकी पीड़ा को उचित तरीके से और सद्भावनापूर्वक सुनने का प्रयास करेगा परन्तु वास्तविकता इस आशा के विपरीत है। पुलिस स्टेशन में प्रवेश करते ही सामान्य पुलिस कर्मियों का व्यवहार हर व्यक्ति को अपराधी के समान समझकर किया गया देखा जा सकता है। 

मैंने अपने दौरों में अक्सर पुलिस स्टेशन में लम्बित शिकायतों का ब्यौरा मांगा तो मुझे हर पुलिस स्टेशन के रिकार्ड को देखकर यह हैरानी हुई कि एक सप्ताह से अधिक समय तक शिकायतों को लम्बित रखा जाना भारत के पुलिस स्टेशनों में एक सामान्य सी परम्परा है। आपराधिक न्याय प्रणाली जब पीड़ित से यह आशा करती है कि वह अपने प्रति घटित हुए अपराध की शिकायत यथाशीघ्र पुलिस तक पहुंचाए तो पुलिस अधिकारियों से भी यह आशा कीजाती है कि अपराध की शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई कीजाए। 

इसी प्रकार मैंने लगभग सभी पुलिस स्टेशनों के अंदर भवन की स्वच्छता को भी लचर अवस्था में ही देखा। पुलिस स्टेशन के लॉकअप जहां तात्कालिक रूप से अपराधियों को गिरफ्तार करके रखा जाता है, उनकी अवस्था गंदगी तथा बदबू से भरी ही नजर आई। पुलिस लॉकअप में किसी भी समय अचानक दौरा करने से ऐसे भी कई लोग उनमें बंद मिले जिनको औपचारिक रूप से गिरफ्तार करने का कोई रिकार्ड भी नहीं था। पुलिस स्टेशनों के शौचालय आदि भी पूरी सफाई के साथ बनाकर नहीं रखे जाते। पुलिस स्टेशन  भवनों के अन्य कमरों में भी उत्तम स्वच्छता का स्तर बनाकर नहीं रखा जाता। हालांकि इन कमरों में पुलिस के अधिकारियों को स्वयं बैठकर कार्य करना होता है। 

छानबीन अधिकारियों को जो कमरे आबंटित किए गए हैं अक्सर उनमें उनके कपड़े भी फैले पड़े नजर आते हैं। इसका कारण यह है कि कई पुलिस अधिकारियों को पुलिस स्टेशन के निकट कहीं रहने की सरकारी व्यवस्था नहीं दी गई। उनका अपना घर बहुत दूर होने के कारण उन्हें ड्यूटी के अतिरिक्त अपना निजी समय भी इन्हीं कमरों में आराम करते हुए व्यतीत करना पड़ता है। इसका अभिप्राय: यह हुआ कि ऐसे पुलिस अधिकारी 24 घंटे ड्यूटी के वातावरण में ही जीवन जीने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं। ऐसे वातावरण में इन अधिकारियों से विनम्रता और यहां तक कि अपने सरकारी कार्यों में दक्षता और निपुणता की आशा कैसे की जा सकती है? 

पुलिस स्टेशनों के दौरे करने के दौरान मैंने हर स्तर के पुलिस अधिकारियों से विस्तारपूर्वक कई विषयों पर चर्चा की। हमारे देश में पुलिस व्यवस्था का मूल आधार भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 है जो ब्रिटिश राज के दौरान बड़े योजनाबद्ध तरीके से लागू किया गया था। ब्रिटिश शासकों का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनता को अपने नियम और अनुशासन में चलाने का था जिससे उनका गुलामी राज लम्बा चल सके। इसके लिए उन्हेंऐसे पुलिस बल की आवश्यकता थी जो अनुशासन कोसख्ती के साथ लागू कर पाता। इसके लिए पुलिस बल मेंअत्याचारी व्यक्तियों को शामिल करना आवश्यक था। 

सामान्यत: व्यक्ति स्वभाव से अत्याचारी नहीं होतापरन्तु उसे यदि स्वयं को ही अमानवीय परिस्थितियों में कार्य करने के लिए मजबूर कर दिया जाए तो स्वाभाविक रूप से वह लोगों के लिए अत्याचारी बनता चला जाएगा।कम वेतन और ड्यूटी के असीमित घंटे ही पुलिस वालों पर ब्रिटिश अमानवीयता के सूत्र सिद्ध हुए। इसका परिणाम यह निकला कि पूरी पुलिस व्यवस्था अमानवीय, अत्याचारीऔर भ्रष्टाचारी बनती गई। ब्रिटिश शासक तो चाहते ही यही थे। 

विगत लगभग 150 वर्ष के दौरान भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आॢथक जीवन में अनेकों प्रकार के परिवर्तन आने के बावजूद और भारत के विश्व शक्ति के रूप में उदय होने की सम्भावनाओं के बावजूद भारतीय पुलिस आज भी उसी मानसिकता के साथ कार्य करती नजर आ रही है। बेशक भारत की अदालतों, कानूनी समाजसेवकों तथा मानवाधिकार कार्यकत्र्ताओं के प्रयासों से बहुत से बदलाव आए हैं, परन्तु किसी ने आज तक पुलिस अधिकारियों के ऊपर लागू उन अमानवीय अवस्थाओंकी तरफ ध्यान नहीं दिया जिनके चलते ये अधिकारी जनता के लिए अमानवीय बनने को मजबूर हो जाते हैं। 

पुलिस सुधारों के संबंध में राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें पिछले लगभग 35 वर्षों से लम्बित पड़ी हैं। इसके अतिरिक्त मानवाधिकार आयोग, विधि आयोग तथा भारत सरकार की अनेकों विशेष समितियों ने समय-समय पर भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में व्यापक संशोधन के सुझाव दिए हैं। वर्ष 2005 में तो कांग्रेस सरकार ने भी नए पुलिस अधिनियम को तैयार करने के लिए सुविख्यात कानूनविद् श्री सोली सोराब जी की अध्यक्षता में एक विशेष समिति भी गठित की थी। परन्तु विडम्बना है कि आज तक पुलिस सुधारों के पथ पर हमारी सरकारों ने एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। 

मैंने एक बार फिर गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह जी को हाल ही में पुलिस सुधारों में कुछ वास्तविक सकारात्मक कदम उठाने के लिए निवेदन किया है जिससे भारत के पुलिस अधिकारी अपने पदों पर कार्य करते हुए गौरवान्वित महसूस कर सकें  और परिणामत: वे भारत की जनता को पूर्ण सुरक्षा और कानून पालन सुनिश्चित कराते हुए एक सुन्दर समाज की रचना में प्रमुख सहयोगी बने हुए दिखाई दे सकें। मेरे इस पत्र का आधार है सर्वोच्च न्यायालय का प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार नामक निर्णय जो रिट याचिका संख्या-310/1996 में 22 सितम्बर, 2006 को सुनाया गया था जिसमें पुलिस सुधारों के संबंध में भारत सरकार तथा देश की सभी राज्य सरकारों को सख्त निर्देश दिए गए थे परन्तु इस निर्णय के कई वर्ष बाद तक कोई ठोस कदम ही नहीं उठाए गए।

भारतीय पुलिस के निचले स्तर पर पुलिस अधिकारियों को पूरे तनाव के साथ जीवन जीना पड़ रहा है। कई बार बातचीत के दौरान इन पुलिस अधिकारियों की पीड़ा देखने-सुनने को मिलती है। लम्बे समय तक पदोन्नति का न मिलना और तबादलों की तलवार हमेशा उनके सिर पर लटकी रहती है। पुलिस स्टेशनों का गंदगी से भरा वातावरण और उस वातावरण में लम्बे ड्यूटी के घण्टे बिताना किसी प्रकार से भी व्यक्ति को तनावमुक्त नहीं रख सकता और जब पुलिस बल के जवान ही तनावमुक्त नहीं रहेंगे तो अपने असंतुलित मन से वे अपराध पीड़ितों के सहायक कैसे बन सकेंगे? जब तक पुलिस अधिनियम की नई रचना हो तब तक राजनेताओं तथा गैर-सरकारी समाजसेवी संस्थाओं को मिलकर अपने स्थानीय पुलिस स्टेशनों को एक ‘आदर्श पुलिस स्टेशन’ बनाने का प्रयास करना चाहिए।                                    

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