मठाधीशों के लिए मिसाल हैं ‘मां’ अमृता आनंदमयी
punjabkesari.in Monday, Apr 11, 2016 - 04:18 AM (IST)

(विनीत नारायण): हमारे देश में धर्माचार्यों, आश्रमों और मठों की भरमार है। पहले ये स्थान आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने या ऊपर उठाने के लिए और सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए पावर हाऊस का काम करते थे। कलियुग के प्रभाव से हर धर्म में इतनी गिरावट आई है कि अब ये तथाकथित धर्म केंद्र मल्टीनैशनल कॉर्पोरेशन की तरह व्यापारिक बन गए हैं जहां अमीर और बड़े दान देने वाले को पूजा जाता है और असहाय, गरीब व निरीह को उपेक्षा व धक्के मिलते हैं। यहां हर क्रिया व्यापार है।
भागवत कथा करवानी है तो इतना रुपया दो। तथाकथित आश्रम में ठहरना है तो वी.आई.पी. सुइट का इतना किराया, ए.सी. कमरे का इतना किराया, नॉन ए.सी. का इतना किराया, डोरमिट्री का इतना किराया। मानो आश्रम न हुआ कोई होटल हो गया। रसीद फिर भी दान की ही मिलती है क्योंकि जैसे ही कमरे के किराए की रसीद काटेंगे, उनके प्रतिष्ठान का आयकर मुक्ति प्रमाण पत्र रद्द हो जाएगा। आप ऐसी किसी भी संस्था में जाकर कहिए कि अगर आपने कमरे का निर्धारित शुल्क लिया है तो उसकी रसीद हमें दे दें, वे नहीं देंगे।
ऐसे दौर में गरीबों व बेसहारा लोगों को गले लगाकर और उनका दुख दूर करने का गंभीर प्रयास करने वाली ‘अम्मा’ पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल हैं। यही कारण है कि वह जहां भी जाती हैं उनके दर्शनों को हजारों लोग उमड़ पड़ते हैं। उनका भी कमाल है कि वह हरेक को गले लगाती हैं, चाहे उन्हें 2 दिन और 2 रात तक एक ही आसन पर लगातार क्यों न बैठा रहना पड़े। माता अमृता आनंदमयी देवी (अम्मा) जहां भी जाती हैं एक नया जोश, सामाजिक एकता, मानव का मानव के प्रति दायित्व, मनुष्य के प्रकृति के प्रति दायित्व क्या हैं इनका बोध कराती हैं। केवल उपदेश नहीं देतीं, बल्कि स्वयं और अपने शिष्यों के माध्यम से उसे कर्म में ढालकर दिखाती भी हैं।
मध्ययुग में भारतीय उपमहाद्वीप में जब-जब हमारी सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर आघात हुए तो इसी तरह के संतों के रूप में दैवीय शक्ति प्रकट हुईं। ब्रिटिश राज में भारतीय समाज के हर क्षेत्र में पतन की गति और तेज हुई। उस अंधकार के समय स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष का अभ्युदय हुआ जिन्होंने भारतीय समाज का आत्मगौरव बढ़ाने में मदद की। आज के दौर में पश्चिमी सभ्यता में रंगे सत्ताधीशों एवं मठाधीशों द्वारा प्रजा के शोषण कारण समाज में रोष, ईष्र्या, क्रोध, द्वेष, अशिक्षा, जातिवाद और धर्मांधता बढ़ती जा रही है जिससे समाज में विघटन हो रहा है और मानव की मनोवृत्ति संकीर्ण होती जा रही है। मानवीय उदारता घटती जा रही है। आज के दौर में धन ही धर्म का प्रतीक हो गया है। ऐसे समय में अम्मा ने मानव को मानव से जोडऩे के लिए भागीरथी प्रयास किए हैं।
ब्रज चौरासी कोस क्षेत्र भगवान श्री कृष्ण के काल से आज तक भक्ति और साधना का केंद्र रहा है जहां समय-समय पर एक से एक बढ़कर संतों ने भजन किया और समाज को दिशा दी। ब्रजवासी यह बताना नहीं भूलते कि उनका संबंध श्री कृष्ण से भगवान और भक्त का नहीं बल्कि मित्र, पुत्र या पति जैसा है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा था कि ब्रजवासियों को देखो तो दूर से प्रणाम करो और उनके मार्ग से हट जाओ। कहावत है कि ‘दुनिया के गुरु संन्यासी और संन्यासियों के गुरु ब्रजवासी’।
ऐसे ब्रज में अगर ब्रज के संत और ब्रजवासी किसी के आगे नतमस्तक हो जाएं तो उसकी दिव्यता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले दिनों अम्मा अपने 2000 शिष्यों के साथ पहली बार वृंदावन आईं., तो सारा ब्रज उनके मातृत्व और दैवीय शक्ति का स्वरूप देखकर उनका दीवाना हो गया। प्रात: 10 बजे से रात के 2 बजे तक अम्मा ने 10 हजार ब्रजवासियों को गले लगाया। कोई पूछ सकता है कि गले मिलने से क्या होगा? आज का विज्ञान और तर्कवादी अपनी कसौटी पर कहीं भी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते हैं, लेकिन भारत की वैदिक परंपरा आदिकाल से ऐसे अनुभवों का समर्थन करती आईं है।
1993 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित करते हुए अम्मा ने कहा था कि दुनिया में धर्मों की, शास्त्रों की और धर्माचार्यों की कमी नहीं है, फिर समाज इतना दुखी और बिखरा हुआ क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि धर्म के मूल में है प्रेम। प्रेम के बिना संसार चल ही नहीं सकता। उन्होंने उदाहरण दिया कि अगर हमारी ही उंगली से हमारी आंख फूट जाए तो हम अपनी उंगली को तोड़ नहीं देते, आंख का इलाज कराते हैं और उंगली को कोई सजा नहीं देते।
यही बात समाज में भी लागू होती है। अगर हम हर उस व्यक्ति से भी प्रेम करना सीख जाएं जिसने हमारा अहित किया है तो संसार बहुत सुखमय हो जाएगा। आलिंगन कर अम्मा यही संदेश देती हैं। अब तक 4 करोड़ लोगों को दुनियाभर में गले लगाने वाली अम्मा के कंधों की हड्डियों के जोड़ों को देखकर चिकित्सक भी हैरान हैं कि यह अब तक घिसकर टूटे क्यों नहीं, जबकि सामान्य व्यक्ति अगर इस तरह का आलिंगन एक बार में 10-20 हजार लोगों को भी कर ले तो उसके कंधे जवाब दे जाएंगे। अम्मा से गले मिलने वाले लोगों का अनुभव है कि उनसे गले लगने के बाद मन में भरे हुए विषाद जोर मारकर बाहर निकलने लगते हैं और आंखों से स्वत: अश्रुपात होने लगता है।
अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं फिर भी पूरी दुनिया के लोग उनसे संवाद कर लेते हैं। दक्षिण भारतीय संत अम्मा को ब्रज के लोगों ने भी बड़ी आशा भरी निगाहों से देखा। इससे एक बात तो तय है कि भारतीय संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसको प्रांत, भाषा, जाति या संस्कृति के नाम पर नहीं बांटा जा सकता। अम्मा के आदर्शों को सिद्धांत बनाकर भारत सरकार यदि कोई पहल करती है तो भारत में उपजी सामाजिक विषमता को समाप्त किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पहल की है ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जोकि मूल रूप से अम्मा के ‘अमल भारतम् अभियान’ की प्रेरणा से ही शुरू हुआ है। लेकिन यह काफी नहीं है। अम्मा से प्रेरणा लेकर समाज के अनेक क्षेत्रों में ऐसी नीतियां बनाई जा सकती हैं जिससे राष्ट्र का उत्थान हो, क्योंकि अपने विशाल कार्यक्षेत्र में अम्मा ने इसका प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है।