विवाहेत्तर संबंधों की आ गई बाढ़
punjabkesari.in Tuesday, Dec 05, 2023 - 06:41 AM (IST)

आजकल देखने में आ रहा है कि स्त्री-पुरुष संबंधों का स्तर निम्नतम मर्यादा तक जा पहुंचा है। विवाह सरीखा पवित्र गठबंधन लिव-इन-रिलेशनशिप में बदल गया है। यदि शादी भी हो गई हो तो विवाहेत्तर नाजायज संबंधों की बाढ़-सी आ गई है। पति-पत्नी के अलावा बाहर एक गर्लफ्रैंड या ब्वायफ्रैंड रखने का रिवाज-सा ही बनता जा रहा है।
इस मर्यादा विहीन चरित्रहीनता की बढ़ती बीमारी की जिम्मेदारी केवल संबंधित स्त्री-पुरुषों की ही नहीं है बल्कि इसका उत्तरदायित्व माता-पिता, गुरुजन, बड़े बुजुर्गों, धार्मिक नेता, समाज के अग्रणी एवं न्यायविदों पर भी आता है। पाश्चात्य कुसंस्कृति की अंधाधुंध नकल, तथाकथित आधुनिकता की होड़, अश्लीलता, नंगेज, भौंडी फैशनपरस्ती, कामुक प्रवृत्तियों में बढ़ती संलिप्तता, कुत्सित मानसिकता, नाजायज तरीकों से कमाए धन खर्चने की कुव्यवस्था, नशों एवं अन्य दुव्र्यसनों के चलन, गिरती धार्मिक संस्कृति एवं परम्पराएं आदि सभी बदलते मापदंडों ने स्त्री-पुरुष के पावन संबंधों पर कुठाराघात किया है। यह यूं ही अगर बढ़ता गया तो यौन व हिंसक अपराधों, पुलिस केस एवं बढ़ते पारिवारिक टूटन के मुकद्दमे निरंतर गणना से बाहर हो जाएंगे। वैसे भी आंकड़ों का अध्ययन करें तो पुलिस के पास 3 फीसदी तक केस अपहरण, बलात्कार, यौन हिंसा, कत्ल के ही आ रहे हैं। कोर्ट में भी तलाक, पारिवारिक हिंसा, दहेज प्रताडऩा, कानूनी अलगाव व खर्चों के दावों एवं संतान के अधिकार सरीखे मुकद्दमों की ही बहुतायत है।
वृृद्धाश्रम में भी दुत्कारे गए वृृद्धों की भरमार है। सरकार भी पोक्सो एक्ट, लिव-इन-रिलेशन उपरांत उपजी वारदातों, तलाक, पारिवारिक प्रताडऩा आदि से संबंधित नए-नए कानून बनाने व पूर्व कानूनों में संशोधन को बाध्य हो गई है। समाज की संरचना के कालखंड से लेकर आज तक स्त्री-पुरुष के संबंध रहे हैं। फिर अचानक इतना वीभत्स दृश्य क्यों सामने आ रहा है। धर्म, पंथ या सम्प्रदाय चाहे कोई भी हो पूर्व समाज में बच्चे के जन्मकाल से ही किशोर अवस्था तक उसे संयुक्त परिवार में बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद अधीन धार्मिक रीति-रिवाजों, अपने-अपने धर्मों की मर्यादा संस्कृति, शिक्षा व परम्पराओं के अनुसार पाल-पोस कर बड़ा किया जाता था।
परिवार की स्त्रियों के सान्निध्य में स्वत: ही उसे औरतों का सम्मान करना व उनकी गरिमा का आभास कर उसके अनुरूप आचरण करना सिखाया जाता था। पारिवारिक बुजुर्गों एवं धार्मिक गुरुओं का आदर, प्रभु भक्ति की आस्था, गुरुजनों का सम्मान, संस्कृति, मर्यादा, परम्परा, संतुलित वाणी, व्यवहार कुशलता, नशों व कुव्यसनों से दूरी, छोटे-बड़े व भले-बुरे की तमीज उसके विकसित होते व्यक्तित्व के अनिवार्य अंग बन जाते थे। व्यक्ति वयस्क होते ही शादी के बंधन में बंध जाता था। कामुक शारीरिक जरूरतें पत्नी के सहवास से ही पूरी हो जाती थीं। बाहर मुंह मारने की हिम्मत परिवार व समाज के बहिष्कार के डर से स्वत: ही दम तोड़ देती थी। आय के सीमित परन्तु जायज स्रोत से अर्जित धन अनावश्यक खर्च नहीं किया जाता था। पूरे परिवार के अर्जित धन की संचालन व्यवस्था मुखिया के कुशल हाथों में रहती थी, जो अय्याशी के खर्चों पर लगाम लगाता था। शीघ्र ही संतानोत्पत्ति हो जाती और पूरा ध्यान व्यसनों एवं कामुकता से हटकर बच्चों की परवरिश पर लग जाता था। परिवार व समाज की व्यवस्था यूं ही निर्विरोध चलती रहती थी। सामाजिक बंधनों के डूज एवं डोंटस का पूर्णत: डर बना रहता था।
स्त्री-पुरुष का विधाता द्वारा निर्मित पावन रिश्ता मात्र कामवासना का घिनौना खेल ही बनकर रह गया है। संतानोत्पत्ति मात्र इस कुत्सित कुंठाग्रस्त कामवासना का ही अवांछित परिणाम हो गया है। जब पावन भावना ही नहीं रही तो परस्पर प्यार, जज्बा, अहसास, उत्तरदायित्व की भावना, संस्कार, परम्पराएं सभी गौण हैं। बढ़ते नशों की प्रवृत्ति, बेतहाशा नाजायज धन आग में घी का काम कर इसे और प्रज्जवलित कर रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति की बेअक्ल नकल इस रिश्ते का औचित्य ही खत्म करने पर तुली है। पुलिस, प्रशासन, कानून, न्यायविद सभी पंगु तमाशाई बन बेबस दिखाई देते हैं। यहां यह कहना भी अप्रासंगिक न होगा कि देश के कानूनी कर्णधार एवं न्यायालय भी समलैंगिक व एल.जी.बी.टी. सरीखे मुकद्दमों की सुनवाई से परहेज करें तो देश और समाज हित में सकारात्मक कदम होगा।-जे.पी. शर्मा