अग्रि शत्रु भी और वन विनाश रोकने में सहायक भी

punjabkesari.in Saturday, Apr 02, 2022 - 04:30 AM (IST)

अक्सर देश के विभिन्न भागों से जंगलों  में लगने वाली आग के समाचार आते रहते हैं। हाल ही में सरिस्का अभयारण्य में लगी आग हो या फिर पर्वतीय और उत्तर भारतीय प्रदेशों में जब तब लगने वाली आग हो, ऐसे उदाहरण आए दिन सामने आते रहते हैं। 

वनों में आग क्यों लगती है, इसके कारणों पर जाएं तो यह अधिकांश मामलों में मनुष्य के पैदा किए हुए होते हैं। इसमें उसकी भूल-चूक, लापरवाही या जानबूझकर लगाई गई आग प्रमुख है। प्राकृतिक कारणों में अग्रि देवता जब गुस्से में हों या फिर वे मौज-मस्ती के मूड में हों, तब ही आग लगती है वरना तो वह मनुष्य की सहायता ही करते हैं। 

जंगल की आग और विनाश : आम तौर पर आग चार तरह से लगती है। एक तो सतह पर किसी भी कारण से लग जाती है, दूसरे जमीन के नीचे आग धधकने लगती है, तीसरे पेड़ों के बीच से लेकर थोड़ा ऊपर तक लगने वाली आग है और चौथे वनों के सबसे ऊपरी भाग में जिसे हम दावानल कह सकते हैं। इसकी भीषणता इतनी होती है कि मानो सम्पूर्ण ब्रह्मांड इसकी चपेट में आ जाएगा और जैसे कि मानो अब प्रलय आने ही वाली है। यह कुदरती कारणों से लगती है लेकिन जैसा कि कहा कि अग्रि देवता बुरी तरह कुपित हो जाएं, तब ही लगती है जो शताब्दियों में एकाध बार ही होता है। अक्सर इंसान ही जंगलों में आग लगाता है। 

जंगलों में आग लगना आवश्यक भी है क्योंकि इससे अनेक फायदे होते हैं, जैसे कि जमीन से फालतू चीजें नष्ट हो जाती हैं जो वनों में खेती करने के लिए हानिकारक हैं। सतह पर लगने वाली आग अपने आप नहीं लगती बल्कि वनवासी लगाते हैं ताकि वे अपनी खेती कर सकें। अगर कहीं ज्यादा लग गई तो उसे बुझाने के उपाय भी वे करते रहते हैं। इस पर नियंत्रण रखने के लिए वन पंचायतों की भूमिका सबसे अधिक है। वनों में रहने वाले जानते हैं कि उनकी जरूरत क्या है और क्या करने से आसानी से उसे पूरा किया जा सकता है। 

इस तरह लगी आग का एक फायदा यह भी है कि धरती पर पनपने वाले शत्रु नष्ट हो जाते हैं। यह ऊपर उडऩे वाले पक्षियों, विशेषकर चिडिय़ों का प्रिय भोजन है।  इसी तरह जमीन के नीचे या बिलों में जो नुक्सान पहुंचाने वाले जीव हैं, वे नष्ट हो जाते हैं और वनवासी मजे से वन्य ऊपज लेते हैं। महुआ की खेती इसका एक उदाहरण है। 

उत्तर पूर्व के प्रदेश जैसे मेघालय, नागालैंड में वनों को बचाने के लिए पूर्वजों ने शताब्दियों पहले पवित्र वनस्थली की शुरूआत कर दी थी। वनों को मनुष्य की हवस से बचाने का यह सस्ता और हमेशा के लिए किया जाने वाला उपाय था। इन वनस्थलियों को देवताओं का आवास कहा जाने लगा और इनमें से एक भी पत्ता, टहनी, पौधा या कुछ भी ले जाने पर रोक थी और इसका उल्लंघन करने वाले पर दैवीय विपत्ति से लेकर शेर जैसे मांसाहारी पशु का भोजन बन जाने की कहानियां गढ़ी जाने लगीं। इस तरह ये प्रदेश सुरक्षित हो गए। 

नार्थ ईस्ट में झूम खेती के लिए जंगलों का जलाना अनिवार्य है। इसका लाभ पहले था जब आबादी कम थी और जंगल जलाने का चक्र 40-50 साल बाद आता था और तब तक वह पूरी तरह से पनप जाता था और उसके जलाए जाने पर जो धरती मिलती थी वह बहुत ही उपजाऊ  होती थी। अब यह चक्र घटकर 1-2 साल का रह गया है और अब जंगल जलाना लाभ की बजाय हानिकारक अधिक हो गया है। इसीलिए इन प्रदेशों में झूम खेती के विकल्प की तलाश होती रही है। दु:ख की बात यह है कि अभी तक इसका कोई ठोस समाधान नहीं निकल पाया है। इसे सरकार और प्रशासन की नाकामयाबी ही कहना सही होगा। 

मनुष्य का लोभ लालच : हालांकि प्रत्येक राज्य के वन विभाग और केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की आेर से वन संरक्षण के लिए अनेक नीतियां, कानून और दिशा-निर्देश बनाए जाते रहे हैं लेकिन वन विनाश रुक नहीं रहा तो इसका सबसे बड़ा कारण सामान्य व्यक्ति को इनकी लगभग कोई जानकारी न होना है। 

दूसरा कारण जंगल में जानबूझकर जंगलात के ठेकेदारों और वन कर्मियों की मिलीभगत से लगाई जाने वाली आग है जिसके गंभीर परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने हैं। यह जो भीषण गर्मी और वह भी समय से पहले और बहुत ज्यादा देर तक रहने लगी है, इसका कारण जंगलों में वन तस्करों द्वारा लगाई जाने वाली आग है। इससे बहुमूल्य वनस्पतियां तो नष्ट होती ही हैं, उनका दोबारा उग पाना ही मुश्किल होता है और अनेक प्रजातियों को बढऩे में सैंकड़ों वर्ष लग जाते हैं जबकि उनके नष्ट होने के लिए कुछ ही घंटे काफी हैं। 

यदि शहरी क्षेत्रों में वन संरक्षण और वनवासियों के जीवन को समझने की शिक्षा का प्रबंध हमारे शिक्षण संस्थानों में हो जाए तो यह जन सहयोग की दिशा में एक बड़ा कदम होगा । इसके साथ ही वन्य उपज और जंगली जानवरों की दिनचर्या को लेकर अनेक भ्रांतियां दूर हो सकेंगी। इंसान के लालच के कारण ही अनेक जनजातियों और वनवासियों ने अपने क्षेत्रों में किसी बाहर के व्यक्ति के आने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। उनके जंगलों की बिना सोचे-समझे कटाई करना उन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल होने से रोकने की साजिश जैसा है। 

वन्य उपज पर सरकार या व्यापारी द्वारा इसे अपना हक समझा जाता है। वनवासियों की शिक्षा का इंतजाम न करना, उनके रहन सहन के तौर-तरीके को नफरत से देखने की मनोदशा तथा उन्हें जंगली मानकर उनके साथ निर्दयता का व्यवहार करने को अमानवीय ही कहा जाएगा । आज के युग में न तो यह इंसानियत है और न ही बराबरी के अधिकार का पालन है। इन परिस्थितियों में यदि वे वनों को जलाते हैं, अपनी आवश्यकता के लिए उन्हें नष्ट करते हैं तो इसमें उनका दोष न होकर हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और बेमतलब के कानूनों का जारी रहना है। ज्यादातर कानून अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए और देश से मूल्यवान वन संपदा को अपने देश ले जाने के लिए बनाए थे। उन्हें बदलकर वनवासियों के हित में बनाए बिना वन संरक्षण का लक्ष्य पूरा होना असम्भव है। 

वनों में अपने आप लगने या उपयोगिता के आधार पर स्वयं लगाई जाने वाली आग कोई चिंता का विषय नहीं है बल्कि यह है कि उसका विकल्प अभी तक नहीं सोचा गया। आज के आधुनिक और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित युग में जंगलों में लगने वाली आग को नियंत्रित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। हमारे ही देश में अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं ने ऐसी तकनीक और उपकरण विकसित किए हैं जिनके इस्तेमाल को बढ़ावा देकर और वनवासियों को उनका उचित प्रशिक्षण देकर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।-पूरन चंद सरीन
 


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