किसान आंदोलन : दोनों पक्ष दिखाएं अब दरियादिली

Sunday, Jun 06, 2021 - 05:18 AM (IST)

भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि व्यवसाय से प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई है। बेशक इस क्षेत्र का देश की तरक्की में एक बड़ा योगदान है मगर इस साल इससे जुड़े किसानों और मजदूरों की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है। 

मोदी सरकार ने सत्ता संभालने से पहले देश के किसानों की आय दोगुनी करने के लिए वायदे किए थे जिसको पूरा करने के लिए उनकी ओर से कृषि विशेषज्ञों की सहायता से कुछ बिल जिनमें से ‘एक देश, एक मंडी’ इत्यादि संसद में ले आने की तैयारी की गई जिसके तहत किसानों के मन में भय पैदा हो गया कि सरकार कृषि उत्पादों, विशेष तौर पर गेहूं और चावल की खरीद को कम कर सकते हैं तथा इसको बाजार की ताकतों के ऊपर छोड़ा जा सकता है। इनसे केवल निजी सैक्टर को लाभ होगा तथा किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की प्रणाली को नुक्सान होगा। निजी सैक्टरों की दखलअंदाजी को प्रोत्साहन मिलेगा। 

सरकार की ओर से ये दावे किए गए कि लाए जा रहे इन बिलों में ए.पी.एम.सी. मंडियों को बंद करने का, एम.एस.पी. को खत्म करने का कोई उल्लेख नहीं है। पंजाब सहित भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कृषि कानूनों का मुद्दा बड़ा चर्चा का विषय बन गया।

संसद में पारित होने के उपरांत यह बिल कानून बन गए जिसको रद्द करवाने के लिए किसान सड़कों पर बैठ कर केंद्र सरकार पर दबाव डालने लगे। कई तरह की मुसीबतें और मुश्किलों से गुजरते हुए 6 माह पूर्व दिल्ली की सरहदों पर बैठे किसानों की ओर से निरंतर विभिन्न ढंग से किए जा रहे रोष प्रदर्शनों के कारण कृषि कानूनों का यह मुद्दा अब मात्र रोष-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि लगातार होते जा रहे विल ब के कारण यह मुद्दा एक चिंताजनक रुझान की ओर अग्रसर है। 

इसमें कोई दोराय नहीं कि दोनों पक्षों का प्रयास तथा दोनों पक्षों की सहमति के बिना यह बड़ा मामला हल होने वाला नहीं है। मगर चिंता की बात यह है कि 26 जनवरी के बाद दोनों पक्षों के बीच बंद हुई बातचीत फिर से शुरू करने के कारण भविष्य में यह मसला होता दिखाई नहीं दे रहा। सितम की बात यह भी है कि यह दोनों पक्ष ही अपने-अपने तर्कों को उचित ठहरा रहे हैं। दोनों पक्ष ही अब बातचीत के लिए कोई कदम नहीं उठा रहे। 

बेशक कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बातचीत का न्यौता दिया था मगर दूसरी ओर किसान नेता भी कई तरह के तर्क देकर सरकार के इन प्रयासों तथा दावों को मात्र खानापूॢत बताकर सरकार की नीयत पर प्रश्र उठा रहे हैं। इससे यह सवाल पैदा होता रहा है कि यदि दोनों पक्ष इसी तरह अपने-अपने तर्क देते रहे तो इस मसले का हल कैसे होगा? इतिहास साक्षी है कि हमेशा से ऐसे गंभीर मुद्दों का समाधान बातचीत से ही हुआ है। 

अब दोनों पक्षों को बड़े दिल का सबूत देकर इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए कदम उठाने चाहिएं। देश के अन्नदाता किसान की ऐसी दशा की किसी को भी परवाह नहीं हो सकती तथा न ही लोगों द्वारा चुनी हुई कोई भी सरकार अपने किसानों की ऐसी दशा पर खुश हो सकती है।

विशेष तौर पर इस संघर्ष में 500 के करीब किसान अपने जीवन से हाथ धो चुके हैं इस कारण ऐसे संघर्ष की महत्ता और भी बढ़ जाती है। किसान केवल अन्नदाता ही नहीं बल्कि बहादुर योद्धे भी हैं जिन्होंने इन 6 माह में अपने धैर्य का प्रमाण दिया है। मगर इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि बहुत से लोगों ने अपने निजी फायदे के लिए किसान आंदोलन का इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी देशवासियों को पता है कि किसान देशविरोधी नहीं हैं और न ही केंद्र सरकार किसान विरोधी।-यादविंद्र सिंह बुट्टर(कार्यकारी सदस्य भाजपा)

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