‘किसानों की मन की बात’

Wednesday, Dec 16, 2020 - 04:51 AM (IST)

गोलगप्पा, चाट, सरसों का साग, जलेबी, बेसन बर्फी, बादाम, काजू और फल तथा सबसे बड़ी बात फुट मसाज। क्या यह कोई शादी का समारोह है? नहीं। यह हजारों ट्रैक्टरों, ट्रकों और ट्रॉलियों का कारवां है जिन्हें बड़े-बड़े कमरों में बदल दिया गया है जिसमें आरामदायक बिस्तर लगे हुए हैं और दिल्ली को सिंघु, टीकरी, चिल्ला आदि सीमाओं पर घेरने के लिए सर्दी के मौसम में खुले आसमान में रहने की तैयारी की जा चुकी है और पिछले दो सप्ताहोंं से हमें यह देखने को मिल रहा है। 

सामान्य परिस्थितियों में इसे हम एक और आंदोलन कहते क्योंकि देश के किसी न किसी भाग में आए दिन आंदोलन और हड़तालें होती रहती हैं। हर मोहल्ले, जिले और राज्य में ऐसा देखने को मिलता है किंतु पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान इस वर्ष दिसंबर में सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध लामबंद हो गए हैं और वे सरकार का सामना करने के लिए तैयार बैठे हैं। 

यह मुद्दा सरकार की पेशकश और किसानों द्वारा इन विवादास्पद कानूनों को निरस्त करने की मांग के बीच फंसा पड़ा है। दोनों के बीच विश्वास का अभाव है। विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों को आशंका है कि उन्हें अब न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा, मंडी बंद कर दी जाएगी, आढ़तियों को उनका कमीशन नहीं मिलेगा जिसके कारण उन्हें बड़े उद्योग घरानों की दया पर निर्भर रहना पड़ेगा और राज्यों द्वारा कर लगाए जाएंगे। गत कुछ दशकों में कृषि आय स्थिर सी रही है। इस क्षेत्र में निवेश और आधुनिकीकरण की आवश्यकता है क्योंकि देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका इस क्षेत्र पर निर्भर है किंतु देश की 2$ 7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में इसका योगदान केवल 15 प्रतिशत है। हर वर्ष अनेक लोगों द्वारा कृषि कार्य को छोडऩे के बावजूद यह देश में अभी भी 42 प्रतिशत श्रम शक्ति को रोजगार उपलब्ध कराता है और वर्ष 2019 में सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 15$ 96 प्रतिशत रहा है। 

देश में मई 2020 तक सरकारी प्लेटफार्म पर 1.66 करोड़ किसान और 131000 व्यापारी पंजीकृत हैं। एक हजार से अधिक मंडियां ई-नाम से लिंक्ड हैं और वर्ष 2021-22 तक 22 हजार अन्य मंडियां इससे जुड़ जाएंगी। सबसे रोचक बात यह है कि आंदोलनरत  किसानों में अधिकतर पंजाब और हरियाणा से हैं क्योंकि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य के सबसे बड़े लाभार्थी हैं। पंजाब में कुल सिंचित क्षेत्र 7$ 44 मिलियन हैक्टेयर है जिसमें से 96$17 प्रतिशत क्षेत्र में फसल उगाई जाती है। खेत जोतों की संख्या 10$ 93 लाख है जिसमें से 2$ 04 लाख सीमांत किसान, 1$ 83 लाख छोटे किसान और 7$ 06 लाख ऐसे किसान हैं जिनके पास दो हैक्टेयर से बड़ी जोत है। जिसके चलते खेती बाड़ी में निवेश गिरता जा रहा है। 

एक ओर किसानों के आंदोलन को देखकर लगता है कि यह राजनीतिक नहीं है अपितु निरंतर कृषि संकट के कारण उनकी आजीविका से जुड़ा है। यह भोजन की आवश्यकता से जुड़ा है। देश में 65 प्रतिशत जनसंख्या कृषि और संबंधित कार्यों से जुड़ी है किंतु गत 25 वर्षों में अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 33 प्रतिशत से घटकर 15 प्रतिशत रह गया जिससे लोग खेतीबाड़ी में निवेश नहीं कर रहे हैं। यही नहीं गत 20 वर्षों में 346538 किसानों ने आत्महत्या की अर्थात् प्रति वर्ष 16500 या प्रति दिन 45 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के हैं किंतु कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे किसानों की संख्या तीन गुणा से अधिक है। 

पंजाब में तीन वर्ष पूर्व तक लगभग 6926 किसानों और कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की है। इसके अलावा कृषि क्षेत्र ऋणग्रस्त है। कृषि क्षेत्र में ऋणग्रस्तता 51.9 प्रतिशत है। यह आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक 92$ 9 प्रतिशत, तेलंगाना में 89.1 प्रतिशत, तमिलनाडु में 82$ 5, केरल में 77.7, कर्नाटक में 75$ 3, राजस्थान में 61$ 8 और पंजाब में 53.2 प्रतिशत है। देश में 6 प्रतिशत जनसंख्या आज भी वर्षा जल पर निर्भर है जिसके कारण भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन किया जाता है। फलत: प्रति वर्ष भूमिगत जल स्तर 3 से 5 प्रतिशत गिर जाता है। कुछ क्षेत्रों में मिट्टी के तीनों स्तर खराब हो चुके हैं। जनसंख्या घनत्व को कम करने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं जिसके चलते अनेक ट्यूबवैल लगाए जा रहे हैं और भूमिगत जलस्तर गिरता जा रहा है। 

किसानों द्वारा इन तीन कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े रहना ब्लैकमेल की तरह है और कोई भी सरकार ब्लैकमेल पसंद नहीं करेगी और न ही शक्ति प्रदर्शन के समक्ष झुकेगी क्योंकि इससे भानुमति का पिटारा खुल जाएगा और लॉबी करने वाले हर मुद्दे पर सरकार को चुनौती देने लगेंगे। यह सच है कि कृषि कानून अपने आप में पूर्ण या शत प्रतिशत दोषरहित नहीं हैं। किंतु इनमें संशोधन कर कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने का ढांचा उपलब्ध कराया जा सकता है और साथ ही किसानों के हितों की रक्षा भी की जा सकती है। समय आ गया है कि किसान अपना अडिय़ल रुख छोड़ें तथा किसानों और देश के व्यापक हित में सरकार के साथ वार्ता पुन: शुरू करें। दोनों पक्षों द्वारा दूरदॢशता अपनाई जानी चाहिए।-पूनम आई. कौशिश 
 

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