ग्राम समाज की जमीन वापसी का दूरगामी फैसला

punjabkesari.in Tuesday, Apr 19, 2022 - 04:40 AM (IST)

उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल के पहले सप्ताह में ग्राम पंचायत की जमीन से अवैध कब्जा हटाने हेतु एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस क्रम में ग्राम समाज के स्वामित्व वाली संपत्ति परिभाषित होती है, जलस्रोतों और गोचर भूमि पर अवैध कब्जेदारी से मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है। जमीन पर व्याप्त इस अव्यवस्था को दूर करने का यह कार्य हरियाणा सरकार की अपील पर हुई सुनवाई का नतीजा है। इसके साथ न्यायालय में लंबित दर्जन भर मुकद्दमे निस्तारित हुए हैं। अरावली क्षेत्र में अतिक्रमण मुक्ति के साहसिक कार्य के बाद इसे समूचे हरियाणा और पंजाब में ग्राम समाज की संपत्ति से निजी स्वामित्व की बेदखली का प्रयास माना जाएगा। 

गांव की आत्मा का प्रतिनिधित्व तो इसमें बसने वाले इंसान ही करते हैं। इस लिहाज से भूमि गांव की देह होती है। पंजाब और हरियाणा के राजस्व रिकार्ड में भूमि को आज भी देह ही कहा जाता है। निजी स्वामित्व वाली संपत्ति ‘मालकान देह’ और सामूहिक स्वामित्व की भूमि को ‘शामलात देह’ कहते हैं। पशुधन पर आधारित ग्रामीण व्यवस्था में गोचर भूमि समाज की शामलात देह का अहम हिस्सा है। नदी, कुएं और तालाब जैसे जलस्रोत भी इसकी परिधि से बाहर नहीं रहते। जस्टिस हेमंत गुप्ता और वी. रामासुब्रमण्यम की पीठ का यह फैसला इसके संरक्षण का प्रयास करता है। गांव के हित में वर्तमान और भविष्य के मद्देनजर संरक्षित की गई इस भूमि को वापस पंचायत के कब्जे में लौटाने का काम निश्चय ही ऐतिहासिक होगा। 

ग्रामीण समाज में लोगों की आपसी एकता का मूल आधार सार्वजनिक उपयोग की जमीन है। जलस्रोतों और चारागाह जैसे स्थानों के बिना गांव की कल्पना ही मुमकिन नहीं है। हर घर पेयजल पहुंचाने के आधुनिक युग में लोगों की नजरों से कुएं और बावड़ी ही नहीं, बल्कि तालाब, नदी और समुद्र जैसे विशाल जलस्रोत भी ओझल होते प्रतीत होते हैं। 1880 में पारम्परिक न्याय की व्याख्या करते हुए सर डब्ल्यू.एच. रट्टीगन ने शामलात की भूमि का जिक्र करते हुए इसे संरक्षित करना ग्रामीण समाज के हित में अपरिहार्य माना। एक सदी बीतने पर वैश्वीकरण के युग में हरियाणा और पंजाब की सरकारों ने इससे जुड़े कानूनों में उल्लेखनीय संशोधन किया है। 

शीर्ष न्यायालय के सामने मौजूद इन मुकद्दमों का संबंध ‘पंजाब विलेज कॉमन लैंड एक्ट 1961’ और हरियाणा की सरकार द्वारा 1992 में संशोधित कानून से है। जलस्रोतों और चारागाह की भूमि गांव के लोगों की सामूहिक संपत्ति होती है। गांव के लोगों को नागरिकता सूची में शामिल करने के क्रम में उनके ग्रामीण होने को खारिज किया जाता है। हालांकि चकबंदी के दौरान गांव की इसी संस्कृति को सहेजने के उद्देश्य से आनुपातिक कटौती लागू की गई। एक बार इसके लागू हो जाने पर भूमि का प्रबंधन और नियंत्रण पंचायत के पास चला जाता है। पीठ ने स्पष्ट किया कि ऐसी भूमि पुन: मालिकों को वापस करने का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसी जमीन पर मालिकाना हक नहीं होने की दशा में भी प्रबंधन और नियंत्रण का काम पंचायत के जिम्मे है। इसके किसी हिस्से की खरीद-फरोख्त भी गैर-वाजिब करार दी गई है। 

नागरी सभ्यता की ग्रामीण क्षेत्र में घुसपैठ की राजनीति के कारण यह समस्या खड़ी हुई है। दुर्भाग्यवश आधुनिक लोकतंत्र का यह मौलिक अवयव है। धरती माता की पूजा करने वाली संस्कृतियों को नागरी सभ्यता ने पहले खरीद-फरोख्त की चीज बना कर बाजार में उतार दिया, फिर ग्रामीणों की वनवासी और आदिवासी आत्मा का हरण कर ही चैन की सांस ली। इसके कारण पैदा होने वाली समस्या के दस्तावेज तो मिल सकते हैं। परंतु नागरी सभ्यता के आधुनिक दौर में इससे निजात पाना मुमकिन नहीं। 

इसके बावजूद गांव के हित में जलस्रोतों और चारागाह जैसी भूमि को सहेजने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। ऐसी किसी भूमि का ग्रामीण लोगों के उपयोग में सक्षम नहीं रहने पर इसे निजी स्वामित्व को सौंपने की बात को न्यायालय ने खारिज किया है। पंजाब में ग्राम पंचायत की जमीन के खरीद-फरोख्त से जुड़े जगपाल सिंह की ऐसी ही अपील का निर्णय 11 साल पहले शीर्ष अदालत ने किया था। उस समय जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ के फैसले के उपरांत हजारों लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। ग्राम समाज की जमीन से अवैध कब्जा हटाने के इस मामले के कारण मुकद्दमों में होने वाली वृद्धि की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।-कौशल किशोर


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