नेहरू-लियाकत समझौते की विफलता ने की सी.ए.ए. की शुरूआत

punjabkesari.in Saturday, Mar 16, 2024 - 04:38 AM (IST)

गृह मंत्रालय के दस्तावेज का दावा है कि  सी.ए.ए. धर्म के आधार पर वर्गीकरण या भेदभाव नहीं करता है, यह इंगित करता है कि यह केवल राज्य धर्म वाले देशों में धार्मिक उत्पीडऩ को वर्गीकृत करता है। भले  ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) लागू होने के लिए तैयार है, क्या 1950 के नेहरू-लियाकत समझौते की विफलता ने ‘सौम्य और संकीर्ण रूप से तैयार किए गए कानून’ की शुरूआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य हमारे पड़ोस में गैर-धर्मनिरपेक्ष देशों में अल्पसंख्यकों की रक्षा करना था।

सी.ए.ए. में प्रावधान है कि अफगानिस्तान, बंगलादेश और पाकिस्तान में हिंदू, सिख, पारसी, बौद्ध और ईसाई जैसे छह अल्पसंख्यक समुदायों के लोग, जिन्हें धार्मिक उत्पीडऩ के आधार पर भारत में शरण लेने के लिए मजबूर किया गया था, उन्हें अब अवैध नहीं माना जाएगा।  लियाकत अली खान जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे उन्होंने और भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1950 में दिल्ली में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे आमतौर पर नेहरू-लियाकत समझौता कहा जाता है। समझौते में एक-दूसरे के क्षेत्रों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हस्ताक्षर किए गए थे।

नेहरू-लियाकत समझौते के तहत, जबरन धर्मांतरण को मान्यता नहीं दी गई और अल्पसंख्यक अधिकारों की पुष्टि की गई। पाकिस्तान नागरिकता की पूर्ण समानता और जीवन, संस्कृति, भाषण की स्वतंत्रता और पूजा के संबंध में सुरक्षा की पूर्ण भावना प्रदान करने के लिए औपचारिक रूप से सहमत हुआ था। हालांकि, पाकिस्तान जल्द ही अपने वादे से मुकर गया। अक्तूबर 1951 में लियाकत अली की हत्या कर दी गई। जब 3 जनवरी, 1964 को श्रीनगर के हजरतबल में पवित्र अवशेष चोरी हो गया, तो पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बड़े पैमाने पर अशांति फैल गई, जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया गया जिसमें कि बहुत से लोगों की जान चली गई, आगजनी और लूटपाट हुई। हालांकि अगले दिन पवित्र अवशेष बरामद कर लिया गया, फिर भी सांप्रदायिक अशांति जारी रही।

दरअसल, लोकसभा में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने कहा था कि भारत नेहरू-लियाकत समझौते को लागू कर रहा है, लेकिन पाकिस्तान अपना काम नहीं कर रहा है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के बारे में, नंदा (जिन्होंने नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद दो बार भारत के कार्यवाहक प्रधान मंत्री के रूप में कार्य किया) ने कहा कि भारत उन लोगों के प्रति अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता है जो हमारा हिस्सा थे, जिनके साथ हमारे खून के रिश्ते हैं और जो हमारे रिश्तेदार और दोस्त हैं और हम उनके कष्टों, उनके शरीर और आत्मा की यातना और उन सभी चीजों से मुंह नहीं मोड़ सकते जिनसे वे वहां गुजर रहे हैं। 

यह वह समय था जब नेहरू प्रधान मंत्री थे और संसद में बैठे थे जब उनके गृह मंत्री ने कहा था, ‘‘अगर उन्हें (पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक) अपने देश में सुरक्षा के बीच सांस लेना असंभव लगता है और उन्हें लगता है कि उन्हें इसे छोड़ देना चाहिए, तो हम उनका रास्ता नहीं रोक सकते। हमारे पास उनसे यह कहने का साहस नहीं है, ‘‘तुम वहीं रहो और कत्ल किए जाओ।’’ तीन दिन बाद, भुवनेश्वर में नेहरू को बाईं तरफ लकवा मार गया, जिसके कारण नंदा को अस्थायी रूप से बीमार प्रधानमंत्री नेहरू की कार्यकारी जिम्मेदारियां संभालनी पड़ीं।

सी.ए.ए. पर गृह मंत्रालय के एक दस्तावेज में देश की आजादी पर आधी रात को दिए गए नेहरू के ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भाषण को उद्धृत करते हुए कहा गया है, ‘‘हम अपने उन भाइयों और बहनों के बारे में भी सोचते हैं जो राजनीतिक सीमाओं के कारण हमसे अलग हो गए हैं और हमने जो आजादी पाई है वर्तमान में वे नाखुश होकर सांझा नहीं कर सकते हैं। वे हमारे हैं और हमारे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए, और हम उनके अच्छे और बुरे भाग्य में समान रूप से भागीदार होंगे।’’

सी.ए.ए. ने अहमदिया, शिया, बहाई, हजारा, यहूदी, बलूच और नास्तिक समुदायों को इस आधार पर बाहर रखा है कि राजनीतिक या धार्मिक आंदोलनों से उत्पन्न उत्पीडऩ को ऐसे व्यवस्थित धार्मिक उत्पीडऩ के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है जिससे सीएए का उद्देश्य निपटना है। इसी तरह, रोहिंग्या, तिब्बती बौद्ध और श्रीलंकाई तमिलों के मामलों को सी.ए.ए. से बाहर रखा गया है क्योंकि यह कानून दुनिया भर के मुद्दों का सर्वव्यापी समाधान नहीं है।

यह तर्क दिया जाता है कि भारतीय संसद दुनिया भर के विभिन्न देशों में हो रहे विभिन्न प्रकार के उत्पीडऩ की देखभाल नहीं कर सकती है। गृह मंत्रालय के दस्तावेज़ का दावा है कि सी.ए.ए. धर्म के आधार पर वर्गीकरण या भेदभाव नहीं करता है, यह इंगित करता है कि यह केवल राज्य धर्म वाले देशों में धार्मिक उत्पीडऩ को वर्गीकृत करता है। -राशिद किदवई (लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाऊंडेशन में विजिटिंग फैलो हैं। एक प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक हैं।)


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