विपक्षी दलों के सामने अस्तित्व का संकट

punjabkesari.in Wednesday, Mar 16, 2022 - 05:06 AM (IST)

मंदिर की काट के रूप में मंडल आया। उत्तर भारत के दो सबसे बड़े राज्यों, यू.पी. और बिहार में लालू-मुलायम एक ओर उभरे तो दूसरी ओर कांशीराम और सी.पी.आई. एम.एल. ‘लिबरेशन’ या प्रचलित शब्दों में ‘माले’। 

पहली जोड़ी ने कहा कि उनका उभार सामाजिक न्याय की ताकत के रूप में हुआ है तो कांशीराम ने बसपा को ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ दलितों की क्रांति की संज्ञा दी, वहीं वर्षों भूमिगत रहने के बाद चुनावी राजनीति में आए विनोद मिश्र ने दावा किया था कि माले दलित चेतना को जमींदारों के शोषणकारी वर्चस्व के खिलाफ सकारात्मक पहलू के रूप में विकसित कर रहा है जबकि बसपा दलित चेतना का भ्रष्ट पक्ष उभार रही है। बहरहाल, माले आज शोषणकारी व्यवस्था तो दूर, स्थानीय गुंडों के मुकाबले भी खड़ा होने की स्थिति में नहीं रहा। वैसे भी साम्यवाद के दुनिया से खात्मे के बाद धुर वामपंथ भी जंगलों में कुछ छिटपुट घटनाओं के अलावा अंतिम सांसें ले रहा है। 

लेकिन आज मंडल-कमंडल की राजनीति के 32 वर्षों बाद उत्तर भारत के 5 में से तीन राज्यों के चुनाव बताते हैं कि कमंडल तो लगातार अपना विस्तार कर रहा है, लेकिन इसके खिलाफ सभी शक्तियां पतन की स्थिति में पहुंच चुकी हैं। यहां तक कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी इस कमंडल के मुकाबले हाशिए पर खिसक गई है। वजह क्या रही?

इन शक्तियों का सामाजिक न्याय हो या कांग्रेस का सैकुलरिज्म, दरअसल लार्ड एक्टन का प्रचलित कथन ‘पॉवर करप्ट्स’ (सत्ता भ्रष्ट करती है) चरितार्थ करते हुए यादव-द्वय ने राजनीति में अपराधीकरण, जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार का एक घातक काढ़ा तैयार किया, जबकि कांग्रेस नेहरू के बाद से ही परिवारवाद की जकडऩ से नहीं निकल पाई। साथ ही इस परिवार की चौथी यानी वर्तमान पीढ़ी को अकर्मण्यता, अन्यमनस्कता, नेतृत्व अक्षमता और पूर्णकालिक राजनीति के प्रति हिकारत-निष्ठ अरुचि ने घेर लिया। 

इसके विपरीत माक्र्स के कथन ‘धर्म जनता के लिए अफीम होता है’ पर अमल करते हुए भाजपा ने न तो अपने को भ्रष्ट होने दिया, न ही गवर्नैंस के मूल काम में कोई कोताही की। गाहे-बगाहे अफीम चटा कर जनता के बहुसंख्यक भाग को ‘गुड गवर्नैंस’ का कुछ अहसास और कुछ आभास कराते हुए अपने मोहपाश में बांधे रखा। ‘पॉलिटिकल इकॉनोमी’ के तहत गवर्नैंस की नई अवधारणा है कि अगर जी.डी.पी. वॉल्यूम बढ़ रहा हो और साथ ही गरीब-अमीर की खाई भी, तो उसे कम कर विकास में पिछले वर्ग को शामिल करने के लिए ‘डायरैक्ट डिलीवरी’ बेहतरीन तरीका है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ब्राजीलियन मॉडल के अनुरूप भारत में भी 5 किलो मुफ्त चावल या सम्मान निधि के नाम पर हर किसान परिवार को 17 रुपए रोज देकर ‘लाभार्थियों’ का एक नया वर्ग तैयार किया, जिसे राजनीतिक समर्थन में बदलना आसान हो गया। 

अवसरवादी जातीय समझौते पर भरोसा नहीं : देश में एक पार्टी का वर्चस्व तोडऩे और जनता के बीच अपना प्रभाव बनाने के लिए अन्य विपक्षी दल एड़ी-चोटी का जोर लगा कर समझौते करते हैं। जैसे पहली बार 1967 में 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी संविद सरकारें बना कर, या फिर 1977 में विलय के साथ जनता पार्टी बना कर या 1996 में फ्रंट बना कर। दरअसल भारत का समाज हजारों पहचान समूहों में बंटा है और ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से आपस में वैमनस्य का भाव रखता है। 

भारत में प्रचलित चुनाव पद्धति, फस्र्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम समाज को पहचान-समूहों में तोड़ती है, कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी धार्मिक निष्ठा के नाम पर। राजनीति शास्त्र का सिद्धांत, कि समय के साथ प्रजातंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं, भारत में कारगर नहीं है। 70 साल में जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति और बढ़ी है। दलितों की स्थिति तो यथावत रही, जबकि उसकी तथाकथित अगुवा बसपा पैंतरा बदल कर ब्राह्मणों को लुभाने लगी। राजद और सपा के नेता अपने परिवार के सदस्यों को जगह देने लगे। यही कारण है कि दलित का इन दलों से मोह भंग मात्र 5 किलो मुफ्त अनाज देने पर ही हो गया और उसने भाजपा को अपना बड़ा शुभचिंतक माना। 

जनता अपना मत तभी बदलती है जब किसी नेता को लेकर जबरदस्त आक्रोश हो या नया भरोसा बना हो या फिर कोई भावनात्मक मुद्दा हो। आज क्या विपक्षी एकता का कोई स्पष्ट कारण है? क्या विपक्ष में कोई नेता जनता की नजरों में सर्वमान्य स्वीकार्यता बना पाया है? फिर क्या कांग्रेस के बिना कोई गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बन सकता है और अगर नहीं,  तो क्या पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, यू.पी., बिहार, कर्नाटक जैसे राज्यों में हितों का टकराव इस एकता को स्वत: नहीं तोड़ेगा? आज विपक्षी दलों के लिए अस्तित्व का संकट है यानी प्रजातंत्र की मूल बुनियाद हिलने जा रही है। समाज को एक-दलीय ‘यस सर’ की जकडऩ से निकालने और विपक्ष की घटिया राजनीति खत्म करने के लिए समाज की ङ्क्षचता करने वाले नैतिक लोगों को राजनीति में आना होगा।-एन.के. सिंह
 


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