कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए ‘सदाबहार क्रांति’ अपनाना एक बेहतर विकल्प

punjabkesari.in Tuesday, Jun 13, 2017 - 10:52 PM (IST)

हरित क्रांति के पितामह प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने गत सप्ताह ट्वीट किया था: ‘‘यदि कृषि के मामले में गलती होती है तो अन्य कोई चीज भी सही नहीं रह पाएगी। इसी कारण ञ्च एग्रीगोल को किसानों के जीवन में बेहतरी को ही सभी प्रोग्रामों और नीतियों का केन्द्र बिन्दु बनाना होगा।’’ विश्व विख्यात कृषि विशेषज्ञ ने मंदसौर (मध्य प्रदेश) में किसानों द्वारा फसलों के बेहतर मूल्यों तथा ऋण माफी पर दबाव बनाने के लिए 1 जून को व्यापक आगजनी किए जाने और इसके फलस्वरूप 5 किसानों के मारे जाने और कइयों के घायल हो जाने के जल्दी ही बाद सोशल मीडिया पर दस्तक दी। 

2006 की स्वामीनाथन समिति रिपोर्ट ने भूमि सुधारों के अधर में लटके एजैंडे के साथ-साथ जल की मात्रा और गुणवत्ता, टैक्नोलॉजी फैटीग (जब कोई निश्चित टैक्नोलॉजी उत्पादन में एक सीमा के बाद वृद्धि नहीं कर पाती), संस्थागत ऋण तक पहुंच, ऋण की पर्याप्त मात्रा और समय पर उपलब्धि तथा लाभदायक एवं यकीनी मार्कीटिंग के अवसरों की कमी को कृषि क्षेत्र के संकट के मुख्य कारणों के रूप में बयान किया है। इसने यह भी सिफारिश की है कि  कृषि को संविधान की समवर्ती सूची में डाला जाए और प्रादेशिक स्तर पर किसानों की समस्याओं से निपटने के लिए किसान आयोग गठित किए जाएं। गौरतलब है कि समवर्ती सूची में शामिल विषयों के बारे में केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों ही कानून बना सकती हैं। 2014 के आम चुनावों से पूर्व भाजपा ने वायदा किया था कि वह किसानों को उनके उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य की बढ़ी हुई अदायगी करने के मुद्दे पर एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी। 

किसानों की दुखद स्थिति एक बार फिर तब फोकस में आई जब मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य स्थानों पर कृषि जिंसों के बेहतर मूल्य तथा कृषि ऋण माफ किए जाने की मांग को लेकर किसान सड़कों पर उतर आए। दिल्ली के जंतर-मंतर पर तो तमिलनाडु के किसानों ने आत्महत्या करने वाले किसानों की खोपडिय़ां हाथों में पकड़ कर मार्च माह में रोष-प्रदर्शन किया था। किसान आत्महत्याओं की संख्या रौंगटे खड़े कर देने वाली है। इस मामले में महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ अग्रणी हैं। 

एक अनुमान के अनुसार हर 30 मिनट के बाद एक किसान आत्महत्या करता है। 1995 से लेकर अब तक 5 लाख से भी अधिक किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के ताजा-तरीन आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या करने वाले किसानों में से 80 प्रतिशत ने बैंकों अथवा फाइनांस कम्पनियों से ऋण लिया था। आंकड़ों के अनुसार 2014 में 5650 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं और 2015 में यह आंकड़ा बढ़कर 8000 हो गया। 3030 आत्महत्याओं के साथ महाराष्ट्र पहले नम्बर पर रहा। 

हाल ही में सुप्रीमकोर्ट भी इस तस्वीर में दिखाई देने लगी है जब इसने कहा: ‘‘यह मुद्दा बहुत ही महत्वपूर्ण है। तत्कालिक रूप में हम महसूस करते हैं कि आप लोग गलत दिशा में जा रहे हैं। किसान बैंकों से ऋण लेते हैं और जब वे इसे लौटा नहीं पाते तो आत्महत्या कर लेते हैं। इस समस्या का समाधान यह नहीं कि आत्महत्या के बाद किसानों को पैसा दिया जाए बल्कि आपके पास इसे रोकने के लिए योजनाएं होनी चाहिएं। किसानों की आत्महत्याएं कितने ही दशकों से हो रही हैं फिर भी हैरानी की बात यह है कि आत्महत्या के पीछे कार्यशील कारणों को दूर करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई।’’

यह तो स्पष्ट है कि कृषि अब लाभदायक धंधा नहीं रह गई और किसान अन्य धंधों की ओर जा रहे हैं। किसानों की संख्या में डेढ़ करोड़ की गिरावट आ चुकी है यानी कि हर रोज लगभग 2000 किसान खेती छोड़ जाते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर तो पहले ही कृषि मजदूर बन चुके होते हैं। जाति आधारित सामाजिक आर्थिक जनगणना में खुलासा किया गया है कि 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवार प्रति माह 5000 रुपए से भी कम कमाते हैं और 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपए से नीचे है।

किसानों की समस्याओं के समाधान के नाम पर भी राजनीति हो रही है। कृषि ऋणों की माफी भारत का सबसे लोकप्रिय राजनीतिक हथकंडा है जिसे अक्सर प्रयुक्त किया जाता है। चुनावी अभियान दौरान तो राजनीतिक पार्टियां किसानों को केवल मौखिक रूप में हर प्रकार की राहत उपलब्ध करवाने के वायदे करती हैं। जब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री थे तो उनकी सरकार ने प्रत्येक किसान का 10,000 रुपए का ऋण माफ करने का वायदा किया था और इसी वायदे पर 1989 में सत्ता में लौटे थे। इसी प्रकार यू.पी.ए. सरकार भी 3 करोड़ 70 लाख किसानों के 522 अरब रुपए के ऋण माफ करने के वायदे के बूते 2009 में सत्ता में आई थी। तेलगू देशम व तेलंगाना राष्ट्र समिति भी क्रमश: आंध्र और तेलंगाना के किसानों के ऋण माफ करने के वायदे पर ही 2014 में सत्ता में लौटी थीं। 

यू.पी. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी सबसे पहला फैसला छोटे और सीमांत किसानों के एक लाख रुपए तक के ऋण माफ करने का ही था। 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा ने ऐसा करने का वायदा किया था। तेलंगाना और महाराष्ट्र भी ऋण माफी सूची में शामिल हो गए हैं। छत्तीसगढ़ ने किसानों को ब्याज मुक्त ऋण देने की पेशकश की है। एम.एस. स्वामीनाथन के अनुसार कृषि ऋण माफी केवल अस्थायी रूप में ही समस्या से निपटती है और यह  कोई स्थायी समाधान नहीं है। इसके फलस्वरूप प्रादेशिक और केन्द्र सरकारों को वित्तीय घाटे का सामना करना पड़ता है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने 2014 में यह टिप्पणी की थी कि इस प्रकार के ऋण माफी कार्यक्रम अंततोगत्वा किसानों के लिए उपलब्ध ऋण प्रवाह में कमी लाते हैं। 

चालू वर्ष के अपने बजट भाषण के दौरान केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेतली ने यह बात दोहराई थी कि सरकार का इरादा आगामी 4 वर्षों के दौरान किसानों की आय दोगुनी करने का है। आय दोगुनी करने के लिए जो कदम सुझाए गए हैं उनमें स्वायल हैल्थ कार्ड, पानी की एक-एक बूंद की एवज में अधिक फसल लेने के रुझान को बढ़ावा देना होगा और इसके साथ ही ऋण उपलब्धता बढ़ाते हुए कटाई के बाद फसल के प्रसंस्करण, मूल्य संवद्र्धन तथा बाजार सुधार के काम में मुस्तैदी लानी होगी। 

कृषक समुदाय की समस्या यह है कि उसके पास न तो दूरदृष्टि वाला कोई नेता है और न ही शक्तिशाली आंदोलन। चौधरी चरण सिंह, महेन्द्र सिंह टिकैत, बलराम जाखड़, शरद जोशी इत्यादि जैसे कद्दावर नेताओं का जमाना लद चुका है। यह ऐसे नेता थे जो न केवल अपने समुदाय के पक्ष में सशक्त ढंग से बोल सकते थे बल्कि नीतियों को प्रभावित भी करते थे। आजकल के हार्दिक पटेल जैसे नेता तो उनके आसपास भी नहीं पहुंचते। भारत गेहूं, चावल तथा कपास के अग्रणी उत्पादकों में से एक है और 2015 में 1 करोड़, 2 लाख, 30 हजार टन चावल निर्यात करके दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक भी बन गया और हाल ही के वर्षों से गेहूं तथा मक्की का भी बड़ी मात्रा में निर्यात कर रहा है। 

ऐसे में यदि सरकार किसानों की चिताओं का समाधान ढूंढने का प्रयास करती है तो अभी भी बिखरे बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा है। हरित क्रांति (ग्रीन रैवोल्यूशन) से सदाबहार क्रांति (एवरग्रीन रैवोल्यूशन) की ओर प्रस्थान करने के स्वामीनाथन के सुझाव पर अमल करना एक विकल्प हो सकता है। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा किसानों की चिंताओं को तत्काल संबोधित किए जाने की जरूरत है और इस संबंध में तैयार की जाने वाली स्कीमों का लाभ वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचना चाहिए।


सबसे ज्यादा पढ़े गए