तुर्की के समूचे नवीनीकरण की ओर बढ़ रहे हैं एर्दोगन

Tuesday, Apr 25, 2017 - 11:30 PM (IST)

जब तुर्की के सशक्त नेता ऋषभ तैयब एर्दोगन 30 अप्रैल को दिल्ली पहुंचेंगे तो अपने यजमान यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में उन्हें अपने किसी सहोदर के ही दर्शन होंगे। दोनों ही निर्णायक शक्ति के मालिक बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं। 16 अप्रैल को हुए जनमत संग्रह ने एर्दोगन के रास्ते में से वे सभी बाधाएं दूर कर दी हैं जिनसे वह परेशान थे। अब वह कार्यकारी राष्ट्रपति होंगे। यानी कि अब उनकी हैसियत ऐसी होगी कि वे जिस भी चीज को अपने रास्ते में रुकावट समझें या जिस भी बात से अपनी शक्ति में बढ़ौतरी कर सकें, उसे बेझिझक अंजाम दे सकते हैं। 

एर्दोगन की उपलब्धि तुर्की के इतिहास में अनूठी है। आधुनिक तुर्क गणराज्य के निर्माता मुस्तफा कमाल पाशा (कमाल अतातुर्क) ने जिस व्यवस्था को बहुत मेहनत, संघर्ष और सलीके से खड़ा किया था, एर्दोगन उसका सम्पूर्ण नवीनीकरण करने की ओर बढ़ रहे हैं। जब महात्मा गांधी ने इस्ताम्बुल के खलीफा के शासन के समर्थन में भारत में चल रहे खिलाफत आंदोलन का साथ देते हुए मौलाना मोहम्मद अली से हाथ मिलाया तो आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल पाशा इसके बिल्कुल विपरीत काम कर रहे थे : वह खिलाफत साम्राज्य का मलियामेट कर रहे थे। उनकी नजरों में यह व्यवस्था प्रासंगिक नहीं रह गई थी। 

तुर्की के अतामान वंश के मुस्लिम सुल्तान ने इस्ताम्बुल में स्थित संत सोफिया के महान बिजैंताइन चर्च को जबरदस्ती मस्जिद का रूप दे दिया था। कमाल पाशा ने सुल्तान के इस फैसले को निरस्त कर दिया था। ईसाई जगत के इस सर्वोच्च गरिमा के स्वामी गिरजाघर को यदि मस्जिद के रूप में रखा जाता तो यह सदा के लिए यूरोपीयों की छाती पर मूंग दलने के तुल्य होता लेकिन कमाल पाशा की दूरदृष्टि के कारण आज इस स्थान पर भव्य विजैंताइन अजायबघर सुशोभित है।

कमाल पाशा जानते थे कि तुर्की का भविष्य यूरोप के साथ ही सुरक्षित है। उन्होंने ‘फैज’ नामक टोपी पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां तक कि तुर्की भाषा की लिपि को भी रोमन अक्षरों में परिवर्तित कर दिया था। औरत के हिजाब और बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था। वे केवल ‘फैशन स्टेटमैंट’ के तौर पर ही ऐसा कर सकती थीं। सौंफ से तैयार की हुई शराब राकी (जोकि यूनान की ‘औझो’, फ्रांस की ‘पास्टिसे’ और लेबनान के ‘अर्क’ का ही स्थानीय रूप है) गैर सरकारी स्तर पर राष्ट्रीय पेय बन गई थी। कमाल पाशा को यह पेय बेहद पसंद था। 

कमाल पाशा ने बेशक तुर्की के यूरोपीयकरण के लिए बहुत प्रेरणादायक कदम उठाए थे तो भी अतामान तुर्क साम्राज्य के दौर का नागरिक और सामाजिक पिछड़ापन यूरोप के साथ तारतम्य बैठाने के मामले में बाधा बना रहा। बहुत मशक्कत से तुर्की अपने आधारभूत ढांचे, वातावरण और कानूनों को यूरोप के अनुसार बनाने में लगा रहा। 

लेकिन तुर्क नेताओं ने इस बात का संज्ञान नहीं लिया कि ‘मध्ययुगीन तुर्क’ की छवि के आधार पर यूरोपीयों के मन में जो कुंठाएं पैदा हो गई थीं वे आज तक भी समाप्त नहीं हुईं। यहां तक कि जब तुर्की ने यूरोपियन यूनियन में शामिल होने की अभिलाषा व्यक्त की थी तो इसे न केवल विफल कर दिया गया बल्कि इसका घृणापूर्वक उपहास उड़ाया गया। फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति वलेरी गिस्कार्ड द एस्तां ने तो बहुत की कटु टिप्पणी करते हुए ठेंगा दिखाया था: ‘‘यूरोपीय सभ्यता एक ईसाई सभ्यता है।’’ शेष यूरोप बेशक मुखर होकर यह बात कहे या मौन रहे, दोनों ही हालतों में दबी जुबान में यूरोप का स्वर इसी जुमले की पुष्टि करता है।

भूमध्य सागर और खासतौर पर साइप्रस के मामले में यूरोप का एक-एक देश या समूचा यूरोप अंकारा के पक्ष में होने वाले किसी भी घटनाक्रम या आंदोलन को विफल बनाने पर आमादा है। यहां तक कि कमाल पाशा के सबसे पक्के अनुयायी प्रधानमंत्रियों में से एक बुलैंत ऐसेवित भी यूरोप के इस रवैये से हताश हो गए थे। मोदी शायद यह जानना पसंद करेंगे कि ऐसेवित स्वतंत्र अध्ययन की बदौलत ही उच्चकोटि के भारतविद् (इंडोलोजिस्ट) बन गए थे। उनके द्वारा गुरुदेव टैगोर की कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ का तुर्क  भाषा में किया अनुवाद बहुत उच्चकोटि की साहित्यिक रचना माना जाता है। 

कमाल पाशा ने तुर्की पर जो आधुनिकवाद लादने का प्रयास किया था वह वैसा थोथा नहीं था जैसा कि उत्तरी ईरान में शाह तथा काबुल में अमानुल्ला का शासन था। लेकिन इस आधुनिकवाद का उद्गम स्थल न तो इस्ताम्बुल था और न अंकारा। यदि ऊपर से लागू किए गए इस आधुनिकवाद के प्रति यूरोप ने पर्याप्त संवेदनशीलता दिखाई होती तो अतामान साम्राज्य की पूरी सीमाओं में आधुनिकता की गहरी जड़ें लग गई होतीं। 

वास्तव में तो मुस्लिम समाजों के प्रति आमतौर पर पश्चिमी जगत में संवेदनहीनता व्याप्त है। ऊपर से आजकल इस्लाम को जिस तरह हौवा बनाकर पेश किया जा रहा है उसके चलते तो मुस्लिम समाजों के लोकतंत्र के गढ़ भी चरमराने लगे हैं। ऐसेवित, सुलेमान दैमीरेल, तुर्गट ओझाल तथा जनरल कीनन एवेरन जैसे नेताओं ने निश्चय ही मुस्लिम देश होने के बावजूद तुर्की के सैकुलर संविधान की बहुत जोर-शोर से रखवाली की थी। वास्तव में जब तक पश्चिमी जगत में एक खास लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं कर दिया था तब तक तुर्की बहुत श्रद्धावान मुस्लिम देश था। 

जिस प्रकार ईरान पर कब्जे की अमरीकी लड़ाई को टैलीविजन चैनलों पर दिखाया गया और जिस प्रकार 9/11 के हमलों के बाद अफगानिस्तान से लेकर प्रत्येक मुस्लिम देश तक आतंक विरोधी लड़ाई लड़ी गई, उसने तुर्की जैसे उस देश में भी जनमत को प्रभावित करना शुरू कर दिया जिसने इसराईल के साथ स्नेहपूर्ण संबंध बनाए रखे। तुर्की में पश्चिम विरोधी भावनाओं की तब तो बाढ़ ही आ गई जब बोस्निया युद्ध में मुस्लिमों के विरुद्ध जघन्य उत्पीडऩ शुरू हो गया। चार वर्षों तक चली बोस्निया की घेराबंदी के चलते तुर्की के घर-घर में सुबह से शाम तक बोस्निया की राजधानी सराजीवो की ही चर्चा हुआ करती थी। पश्चिमी देश यह भूल गए कि बोस्निया कभी अतामान साम्राज्य का ही एक प्रांत हुआ करता था। यहां तक कि सराजीवो शब्द का धातु शब्द ‘सराय’ है जिसका अर्थ है ठहरने का स्थल।

इसी पृष्ठभूमि में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ जैसे मूलवादी संगठन के कट्टर समर्थक एर्बाकान की रिफाह पार्टी तुर्की में सत्तासीन हो गई थी। लेकिन तुर्की का संविधान सार्वजनिक जीवन में लेशमात्र धर्मांधता को भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं इसलिए सेना ने इस सरकार को बर्खास्त कर दिया था। एर्बाकान के प्रमुख शिष्यों तैयब एर्दोगन एवं अब्दुल्ला गुल ने ‘रिफाह पार्टी’ को नया रूप देकर न्याय एवं विकास पार्टी (ए.के.पी.) के रूप में पुनर्जीवित किया और साथ ही पूरी सावधानी बरती कि संविधान का किसी प्रकार उल्लंघन न हो। उन्होंने इस्लाम का नाम लिए बगैर बहुत होशियारी से पश्चिम जगत के विरोध को हवा दी। 

उदाहरण के तौर पर अमरीकी विदेशमंत्री डोनल्ड रम्सफैल्ड तुर्क इलाके में से अमरीकी सैनिकों को ईराक में ले जाने की अनुमति चाहते थे लेकिन एर्दोगन ने यह मामला संसद के हवाले कर दिया और संसद ने यह अनुमति देने से इंकार कर दिया। फिलस्तीनी लोगों के लिए राहत सामग्री लेकर गए तुर्क जलपोत के साथ इसराईल ने जैसी दादागिरी बरती उसके फलस्वरूप इसके साथ तुर्की के संबंध टूट गए। लेकिन मतदाताओं में एर्दोगन की लोकप्रियता को चार चांद लग गए। अपनी तीसरी चुनावी जीत के रूप में एर्दोगन ने असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया। यानी कि लोकप्रियता में कमाल पाशा (कमाल अतातुर्क) को भी पीछे छोड़ दिया। 

‘अरब जगत की बसंत’ ने पश्चिमी जगत को ऐसा अवसर सुलभ करवाया कि उसने एर्दोगन को लालच दिखाना शुरू कर दिया कि वह अरब जगत के लिए लोकतांत्रिक माडल सिद्ध हो सकते हैं। कुछ तुर्कों ने तो शेख चिल्ली जैसे सपने देखने भी शुरू कर दिए थे, यानी कि यदि ब्रिटेन से आजाद हुए देश राष्ट्रमंडल के रूप में एकजुट हो सकते हैं तो अतामान साम्राज्य का हिस्सा रह चुके देश भी कोई गुट क्यों नहीं बना सकते? लेकिन ऐसे  सपनों पर सऊदी अरब की भौहें तन गईं। तुर्की के सबसे प्रख्यात पत्रकार स्व. मेहमत बिरांद ने इस स्थिति को यूं सूत्रबद्ध किया था: ‘‘हम पश्चिम के बहुत ही पालतू किस्म के सहयोगी थे और अपने तुर्क गौरव के कड़वे घूंट अंदर ही अंदर निगल जाया करते थे। लेकिन एर्दोगन के नेतृत्व में हम पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा होते हुए भी इसका ऐसा स्वाभिमानी सदस्य हैं जो अपनी अलग राय रखता है।’’ 

सीरिया युद्ध ने एर्दोगन के अंदर छिपे हुए ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के सदस्य का अनावरण कर दिया है। उन्होंने बशर-अल-असद से अनुरोध किया कि  ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के सीरियाई सदस्यों को बाठ पार्टी के वर्चस्व वाली शक्ति व्यवस्था में शामिल किया जाए। असद की कठिनाइयों पर रियाद, दोहा, यरूशलम, अंकारा, वाशिंगटन, पैरिस और लंदन सभी की बांछें खिली हुई हैं। सीरियाई देगचे का उबाल अब सीमाओं के बाहर जा रहा है-अब वहां गृहयुद्ध चल रहा है। 

गत वर्ष गर्मियों में जब सेना के एक वर्ग ने अमरीका में रह रहे कथित तौर पर अत्यंत प्रभावशाली तुर्क नेता फतेह-उल्लाह गुलेन के समर्थन से राज पलटे का प्रयास किया तो एर्दोगन के अंदर छिपा हुआ जंगजू बाहर आ गया और उन्होंने सर्वशक्तिमान अध्यक्षीय व्यवस्था सुनिश्चित करके अपनी सत्ता को मिल रही सभी चुनौतियों से पार पाने का रास्ता ढूंढ लिया। इस बात के गहरे प्रतीकात्मक अर्थ हैं कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के प्रति अपनी वफादारी को कभी न छिपाने वाले सशक्त नेता एर्दोगन ने तीसरी बार सत्तासीन होने के तत्काल बाद मोदी से संवाद रचाने का रास्ता अपनाया है। 
 

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