हिन्दी पर अंग्रेजी की मार, जिम्मेदार कौन?
punjabkesari.in Sunday, Sep 14, 2025 - 05:35 AM (IST)

राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान अपने देशव्यापी दौरे में गांधी जी ने स्पष्टत: यह महसूस किया था कि हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जो पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सकती है। गांधी जी ने 6 फरवरी, 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बोलते हुए कहा था कि ‘‘आपको ताज्जुब होगा कि मुम्बई के वे तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए जो हिन्दी में दिए गए थे।’’ जब वह स्वतन्त्रता संग्राम की अलख जगाने के लिए कलकत्ता पहुंचे तो उन्होंने अपने भाषण में फिर दोहराया कि आज की पहली और सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि हम अपनी देशी भाषाओं की ओर मुड़ें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करें। हमें अपनी सारी प्रादेशिक कार्रवाई अपनी-अपनी भाषाओं में चलानी चाहिए तथा हमारी राष्ट्रीय कार्रवाई की भाषा हिन्दी होनी चाहिए।
मगर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीय भाषाओं की उपेक्षा कर देश के राजनीतिज्ञों व अफसरशाही ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा कर अंग्रेजी के वर्चस्व को स्थापित किया। गांधी जी ने हिन्दी संस्कृति का जो सपना संजोया था व भारतीयों ने जो कल्पना की थी वह भी उसी के साथ-साथ दफन हो गई। इस प्रक्रिया ने जिस नई भाषा और संस्कृति को जन्म दिया, वह हमारी नहीं है, जिस पर हम एक भारतीय होने का गर्व कर सकें। इसने हमारी राष्ट्रीयता की भावना को तो खण्डित किया ही, साथ ही हमें एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति की ओर धकेल दिया जो हमारी अपनी नहीं है। एक जमाने में जो राजनीतिज्ञ हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तानी का नारा लगाते थकते नहीं थे, उन्होंने भी हिन्दी से अपना पल्ला झाड़ लिया। यदि एक शब्द में इसकी वजह पूछी जाए तो जवाब यही होगा कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व हिन्दी के प्रति ईमानदार नहीं है। भारत वर्षों गुलाम रहा और जब आजाद हुआ तो अपनी भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास नहीं किए।
एशिया के कई देश बिना किसी विदेशी भाषा का सहारा लिए विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में उन्नति कर रहे हैं। चीन और जापान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। यह स्थिति समझ से बाहर है कि जब एशिया के दूसरे देश अपनी मातृभाषा के बलबूते पर प्रगति कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं? रूस, जापान और चीन में शुरू से ही रूसी, जापानी और चीनी भाषाओं का वर्चस्व रहा तथा उनके समानान्तर वहां किसी भी ऐसी भाषा का विकास नहीं हो पाया, जो उन्हें पूरी ताकत के साथ चुनौती दे सके। भारत की तरह ये राष्ट्र कभी भी उपनिवेश नहीं रहे और न ही बाहरी आक्रमणकारी मुगलों और अंग्रेजों की तरह इन पर किसी ने शासन किया। इसलिए इन देशों की भाषा और संस्कृति उस तरह से नष्ट नहीं हुई, जैसी कि भारत में। इन देशों में राजकाज की भाषा अपनी ही भाषा बनी रही। अन्य भाषाओं को इन देशों में केवल ज्ञान की सीमा तक महत्व मिला।
भारत में जितने भी आन्दोलन चले सभी में हिन्दी ही इस्तेमाल की गई। दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज का आन्दोलन चलाया और अपना मुख्य ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दी में ही लिखा। भाषा मानव के विचारों व भावों की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन है। ऐसी भाषा, जिसे किसी भी समाज अथवा राष्ट्र के अधिकांश लोग बोलते व समझते हैं, वह ‘राष्ट्र भाषा’ कहलाती है। आज राष्ट्र असमानता, जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा आतंकवाद की आग में झुलस रहा है। उसमें राष्ट्र भाषा ही सभी को एक माला में पिरोकर एकजुट होने व मानवता का संदेश देने में समर्थ है।
स्वतन्त्रता के बाद जब भारतीय संविधान की रचना की गई, तब यह घोषणा की गई थी कि सारे भारत में कुछ वर्षों तक हिन्दी लागू कर दी जाएगी। सभी प्रकार के व्यावसायिक कार्यों तथा शिक्षा का माध्यम हिन्दी होगी लेकिन आज 78 वर्ष बीत जाने पर भी हिन्दी का यह स्थान कहीं भी दिखाई नहीं देता। हर साल एक दिन ‘हिन्दी दिवस’ के नाम पर आरक्षित कर दिया गया है। हमारे नेता भी सभाओं में हिन्दी के इतिहास पर बड़े-बड़े भाषण देते हैं और चले जाते हैं तथा हिन्दी का स्थान ज्यों का त्यों ही रह जाता है। आज भी अंग्रेजी के प्रति श्रद्धा रखना भारतीय संस्कृति को नष्ट कर रहा है।
हिन्दी को राजभाषा का दर्जा नहीं मिल पाने का सबसे महत्वपूर्ण कारण हिन्दी समाज रहा है। जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय हिन्दी भक्त होने का दावा करते कभी थकते नहीं थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में ‘बैल्ट’ जैसे हिन्दी में खप चुके अंग्रेजी शब्दों के लिए ‘कमरपेटी’ का इस्तेमाल होता था। आज उनकी परम्परा की अगली कड़ी की योजना में हिन्दी कहीं नहीं है। उनके नेता हिन्दू राष्ट्र बनाने की कल्पना तो करते हैं और हिन्दुत्व का नारा लगाकर सत्ता भी हथिया लेते हैं पर हिन्दू राष्ट्र बनाने की तो दूर की बात, उन्होंने अपने शासनकाल में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की जहमत भी नहीं उठाई।
आज हमारे राजनेता मंच पर हिन्दी की जय-जयकार करते हैं और व्यक्तिगत आचरण में अंग्रेजी को गले लगाए रहते हैं। संसद में वे किस भाषा का इस्तेमाल करते हैं? क्या कभी उन्होंने इस सम्बन्ध में सोचा है? यदि हम यह निर्णय कर लें कि हमें अपनी राष्ट्र भाषा पर गर्व करना है, उसे सम्मान देना है, आगे बढ़ाना है तो हम अवश्य ही हिन्दी को उन्नति के शिखर पर देेखेंगे। अपनी हिन्दी संबंधी हीनभावना को त्याग अंग्रेजी के मोह को छोड़कर हम हिन्दी को पूरी तरह अपना लें तो केवल 14 सितम्बर ही हिन्दी दिवस नहीं होगा, सारे दिन हिन्दी के होंगे और हिन्दी हमारे सम्मान का प्रतीक होगी। हम भारतीयों के लिए अनेकता में एकता स्थापित करने, आत्मनिर्भरता और आत्म-सम्मान को पाने और राष्ट्रीय एकता जगाने के लिए हिन्दी ही मूलमंत्र या मूल आधार है, जिसके आश्रय से एकता और राष्ट्र-प्रेम बलशाली होंगे और देश उन्नति के शिखर पर पहुंचेगा, सम्मानित होगा।- डॉ. रमेश सैनी