जिन्ना की मौत के साथ ही खत्म हो गई उनकी ‘पाकिस्तान की परिकल्पना’

punjabkesari.in Monday, Jun 20, 2016 - 02:00 AM (IST)

(हुसैन हक्कानी)- 3 जून 1947 की योजना के अनुसार भारत के द्विभाजन और स्वतंत्रता हासिल करने के लिए केवल 72 दिन  की अवधि दी गई थी। इस अल्प-सी अवधि के दौरान  तीन प्रांतों का विभाजन किया जाना था, जनमत संग्रह करवाए जाने थे, नागरिक और सुरक्षा सेवाओं का विभाजन होना था और सम्पत्तियों की बांट की जानी थी। आखिर पाकिस्तान का जन्म हो गया, लेकिन पैदा होते ही इसकी स्थिति ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़े’ जैसी बन गई थी क्योंकि कई भारतीय नेताओं ने भविष्यवाणी शुरू कर दी थी कि यह नया देश बहुत जल्द ही अपना वजूद खो बैठेगा। 

 
पाकिस्तान को अस्तित्व में आते ही भारत की तुलना में असंभव सी महसूस होती परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। इसे विरासत में भारत की तरह न तो राजधानी मिली थी और न ही सरकार। न ही इसके पास शासकीय एवं सैन्य संस्थानों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन थे। ऊपर से भारत की ओर से लाखों की संख्या में मुस्लिम शरणार्थी लगातार पाकिस्तान में आ रहे थे, जिससे उनके पुनर्वास की एक नई और विकराल समस्या पैदा हो गई थी। 
 
ऐसे में एक नए सत्ता तंत्र को आर्थिक रूप में अपने पैरों पर खड़ा करना पाकिस्तानी नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती था। पाकिस्तान के पास उद्योग तो नाममात्र का भी नहीं था और इसके कृषि उत्पादन की बड़ी मंडियां भी भारत में चली गई थीं। व्यापारी और उद्योगपति वर्ग मुख्य तौर पर गैर-मुस्लिम थे और वे विभाजन होते ही अपनी पूंजी सीमा के दूसरी ओर यानी भारत में ले गए थे। इसके चलते पाकिस्तान का राजस्व आधार इसके जन्म से पहले ही सिकुडऩा शुरू हो गया था। पाकिस्तानी सरकार की पूंजीगत सम्पत्तियां रिजर्व बैंक आफ इंडिया के नियंत्रण में थीं और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के कार्यकत्र्ताओं के बीच घोर वैमनस्य के वातावरण में इन सम्पत्तियों का विभाजन व उनका पाकिस्तान को हस्तांतरण कोई आसान काम नहीं था। 
 
पाकिस्तान के प्रारंभिक अधिकारियों में यह अवधारणा पैदा हो गई थी कि उनके देश को झुकाने के लिए ‘हिन्दू भारत’ द्वारा साजिशें रची जा रही हैं। एक सत्ता तंत्र और एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के क्रमिक विकास पर इन आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों तथा पाकिस्तान के अस्तित्व के प्रारंभिक दौर में इसके नेताओं की प्रतिक्रिया का बहुत गहरा असर हुआ। 
 
पाकिस्तान में ऐसी स्थितियां पैदा हो गईं कि इसके जिन नेताओं ने खुद सैकुलर होते हुए भी धर्मांध मुस्लिमों का सहयोग लिया था, उनके लिए साम्प्रदायिक मुहावरे से दामन छुड़ाना मुश्किल हो गया था। हालांकि पाकिस्तान के सृजन से तीन दिन पूर्व पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना ने जो भाषण दिया था, उसमें मजहब को गवर्नैंस में कोई भूमिका नहीं दी गई थी। उन्होंने तो यहां तक कह  दिया था कि ‘‘कुछ समय में आप देखेंगे कि हिन्दू हिन्दू नहीं रहेंगे और मुसलमान मुस्लिम नहीं रहेंगे। वे सब राजनीतिक दृष्टि से एक ही राष्ट्र के नागरिक होंगे।’’
 
वैसे भी जिन्ना पाकिस्तान बनने के एक ही वर्ष के भीतर खुदा को प्यारे हो गए थे और पाकिस्तान की उनकी परिकल्पना का भी अंत हो गया था। लेकिन बाद में उनके वारिसों में उनके विचारों की व्याख्या को लेकर काफी मतभेद और असमंजस बना रहा। लेकिन आखिरकार उस देश की राजनीतिक वास्तविकताओं ने ही उनकी दिशा निर्धारित की। जिन्ना के वारिसों ने स्वतंत्र पाकिस्तान में आपसी मतभेदों पर काबू पाने के लिए वही नीति अपनाई जो स्वतंत्रता पूर्व के दौर में मुस्लिम एकता सुदृढ़ करने के लिए प्रयुक्त की गई थी। 
 
उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रीय पहचान को मजहबी प्रतीकवाद के माध्यम से परिभाषित किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के आपसी विरोधों को भारत-पाक दुश्मनी के मुहावरे में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी नागरिकों को यह डर दिखाया गया कि भारत ने विभाजन को साफ नीयत से स्वीकार नहीं किया है और वह धीरे-धीरे इसको हड़प करना चाहता है। और यही डर इस नवोदित देश की पहचान एवं सरकारी नीति का रूप धारण कर गया। कालांतर में शिक्षा प्रणाली और सतत् प्रापेगंडे के माध्यम से इसे सुदृढ़ किया गया।
 
नवोदित पाकिस्तानी राष्ट्र को वैधता और दबदबा प्रदान करने के लिए भारत के साथ दुश्मनी पर फोकस को एक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया गया और इसी आधार पर दोनों देशों के बीच नागरिक और सरकारी रिश्ते तय होने लगे। पाकिस्तानियों को इस तरह घुट्टी पिलाई जा रही थी कि उनकी राष्ट्रीय हैसियत को भारत की ओर लगातार खतरा दरपेश है। इसीलिए तो पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से कुछ ही सप्ताह बाद मुस्लिम लीग के अखबार ‘डॉन’ ने पाकिस्तानियों का आह्वान किया था,‘‘चिकनी-चुपड़ी रोटी के बारे में बाद में सोचना, पहले तोपें तैनात करो ताकि पाकिस्तान की पवित्र धरती की रक्षा की जा सके।’’
 
इसका अभिप्राय: यह था कि किसी भी अन्य बात और नीति की तुलना में सैन्य ढंगों से पाकिस्तान के राष्ट्रवाद का बचाव करना ही निर्णायक नीति बन गया और सुरक्षा तंत्र को एक विशेष हैसियत प्रदान कर दी गई। इससे एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि राजनीतिक विचारों और कार्रवाइयों पर किसी भी समय ‘देशद्रोह’ का लेबल चस्पा किया जा सकता था। नस्लीय अधिकारों अथवा प्रादेशिक स्वायत्तता की मांग को भी बगावत और राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में डाल दिया गया। इस प्रक्रिया में आंतरिक और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों के बीच का महत्वपूर्ण फर्क धूमिल हो गया। 
 
बेशक जिन्ना ने कभी भी यह नहीं कहा था कि पाकिस्तान किसी एक विचारधारा पर आधारित देश होगा। फिर भी उनके वारिसों ने स्वतंत्रता के जल्दी ही बाद एक विशिष्ट ‘पाकिस्तानी विचारधारा’ गढ़ ली, जिसके तीन मुख्य  तत्व थे-इस्लाम, भारत के साथ दुश्मनी और उर्दू भाषा। स्वतंत्रता के कुछ ही समय बाद ‘पाकिस्तानी  विचारधारा’ के  प्रत्येक पहलू  को ‘हिन्दू भारत’ से टकराव और विरोध की रंगत प्रदान कर  दी गई तथा इस नवोदित देश ने अपने आर्थिक और  सैन्य विकास के लिए बड़ी-बड़ी  शक्तियों से सहायता लेने के प्रयास शुरू कर दिए। 
 
इस्लाम को राष्ट्रीय पहचान के मुख्य तत्व के रूप में रेखांकित करने से नए देश के मजहबी नेताओं को नई शक्ति मिली और ‘इस्लाम के संरक्षकों’ तथा देश के सैन्य तंत्र, सिविल नौकरशाही व गुप्तचर तंत्र के बीच एक प्रकार की सांठ-गांठ पैदा हो गई। ये सब मिलकर इस विचार के प्रवक्ता बने कि भारत पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए ही खतरा है। 
 
इस प्रकार एक ऐसी नीति का उदय हुआ जिसमें पाकिस्तान को इस्लाम के गढ़ और भारत को इस्लाम के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। इस्लामी जगत के नेता के रूप में उभरने के पाकिस्तान के प्रयासों को प्रारंभ में मुस्लिम देशों की सरकारों की ओर से कोई हमदर्दी भरी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी, फिर भी इस्लामी सम्मेलन का संगठन (ओ.आई.सी.) जैसा अन्तर्राष्ट्रीय मुस्लिम संगठन खड़ा करने का पाकिस्तान का सपना 1970 में साकार हो गया। इस प्रकार पाकिस्तान एक इस्लामिक सत्तातंत्र के साथ-साथ इस्लाम का दुर्ग भी बन गया हालांकि इस पर शासन करने वाले लोगों का जीवन इस्लाम के सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता था, दूसरी ओर सरकार के विरोधियों तथा उनके विचारों को ‘इस्लाम के दुश्मन’ करार देना आसान हो गया था। 
 

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