राष्ट्रीय विकास के लिए महिलाओं का सशक्तिकरण जरूरी

punjabkesari.in Thursday, Oct 21, 2021 - 03:02 AM (IST)

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उत्तर प्रदेश की महासचिव प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा राज्य के आने वाले चुनावों में महिलाओं के लिए 40 प्रतिशत टिकट आरक्षित करने संबंधी की गई घोषणा एक स्वागत योग्य निर्णय है लेकिन राजनीति में महिलाओं को सशक्त करने के लिए गंभीर प्रयासों की बजाय महज राजनीतिक लाभ के लिए ही है। 

यदि कांग्रेस पार्टी, जिसमें प्रियंका गांधी इसकी उच्च कमान का एक हिस्सा हैं, वास्तव में राजनीति में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए गंभीर है तो इसे उत्तर प्रदेश के साथ चुनावों में जाने वाले अन्य राज्यों के लिए भी ऐसे ही निर्णय की घोषणा करनी चाहिए जिनमें पंजाब शामिल है। स्पष्ट है कि पार्टी का उत्तर प्रदेश में बहुत अधिक दाव पर नहीं लगा जहां लगभग 40 वर्षों तक शासन करने के बाद गत 30 वर्षों से यह अप्रासंगिक बन चुकी है। 

कुल 403 सीटों में से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए 2017 में हुए चुनावों में पार्टी ने 114 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। इसके उम्मीदवारों में केवल 12 महिलाएं थीं। पार्टी ने 7 सीटें जीती थीं जिनमें 2 महिलाओं की थीं। 2019 के लोकसभा चुनावों में इसने महज एक सीट जीती थी और यहां तक कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने परिवार के गढ़ अमेठी से हार गए थे। 

गत लोकसभा चुनावों में महिलाओं को अधिक सीटें उपलब्ध करवाने के लिए प्रयास किया गया। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल से लोकसभा की 42 सीटों के लिए 17 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था जो प्रतिनिधित्व का 41 प्रतिशत बनती थी। इसने 22 सीटें जीतीं और इनमें से 9 सीटें महिलाओं द्वारा जीती गईं जो कुल विजयी सीटों का 41 प्रतिशत बनता था। ओडिशा में बीजू जनता दल ने राज्य में 21 लोकसभा सीटों के लिए 33 प्रतिशत महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा था। पार्टी ने जिन 7 महिलाओं को टिकट दी थी उनमें से 5 जीत गईं। यद्यपि कांग्रेस ने कुल 421 उम्मीदवारों में से केवल 54 महिलाओं को मैदान में उतारा जो उसके उम्मीदवारों का केवल लगभग 13 प्रतिशत बनता है। 

2019 के लोकसभा चुनावों में 7215 पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में केवल 724 महिलाओं ने चुनाव लड़ा जो उम्मीदवारों की कुल संख्या का महज 10 प्रतिशत बनता है। वर्तमान में महिलाएं भारत के निम्र सदन का केवल 14 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करती हैं जो 2014 से मात्र 3 प्रतिशत की वृद्धि है जब 636 महिला उम्मीदवारों में से 61 विजयी हुई थीं। दिलचस्प बात यह है कि जब पार्टियां महिलाओं को टिकट देती हैं, जैसे कि 2019 के आम चुनावों में 8.8 प्रतिशत महिलाएं मैदान में उतारी गई थीं, इन उम्मीदवारों में से बड़ी संख्या में आरक्षित सीटों के लिए होती हैं जो अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए रखी गई होती हैं। 

हैरानी की बात नहीं कि भारत 2019 की 193 देशों की सूची में 149वें स्थान पर था जो उनकी राष्ट्रीय संसद में चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों के प्रतिशत के आधार पर तैयार की गई थी। वास्तव में यह पाकिस्तान, बंगलादेश तथा अफगानिस्तान से भी पीछे है। विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक नवीनतम रिपोर्ट, जो हाल ही में जारी की गई है, में एक अफसोसनाक तस्वीर पेश की गई जिसमें लिंग अंतराल के मामले में 156 देशों में से भारत का दर्जा 140वां है। मंच ने अपना डाटा 4 मानदंडों के आधार पर तैयार किया जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक अवसर तथा राजनीतिक सशक्तिकरण शामिल है। 

प्रियंका द्वारा मंगलवार को की गई घोषणा स्पष्ट तौर पर राज्य में सत्ताधारी भाजपा को लक्ष्य बनाकर की गई थी जो उनके सशक्तिकरण के लिए कई फ्लैगशिप कार्यक्रम लांच करके समाज के इस वर्ग को लुभाने का प्रयास कर रही है। उनकी घोषणा एक पोस्टर जारी होने के बाद की गई जिसमें हिंदी में लिखा गया था-‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं।’ महिलाओं को राजनीति तथा जीवन के अन्य क्षेत्रों में अधिक प्रतिनिधित्व उपलब्ध करवाने की आकांक्षा बड़े लम्बे समय से जताई जा रही है। यद्यपि महिलाएं जनसंख्या के आधे से जरा कम हिस्सा बनाती हैं मगर लिंग भेदभाव को देखते हुए अधिकतर पार्टियां महिलाओं को कम से कम 33 प्रतिशत सीटें देने के पक्ष में हैं। फिर भी कोई भी सरकार अभी तक इसे एक कानून नहीं बना पाई है। 

ऐसा कहा जाता है कि कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो सकता जब तक इसकी महिलाएं, जो जनसंख्या का आधा हिस्सा बनाती हैं, राष्ट्र निर्माण में भाग नहीं लेतीं। यही समय है कि भारत में महिलाओं का सशक्तिकरण कर उन्हें राजनीति सहित सभी क्षेत्रों में राष्ट्र निर्माण में शामिल किया जाए। हालांकि उनको शामिल करना गंभीरतापूर्वक होना चाहिए न कि महज सांकेतिक अथवा राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से।-विपिन पब्बी
 


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