हरियाणा-दिल्ली में बदलेगा चुनावी परिदृश्य

punjabkesari.in Tuesday, Jul 23, 2024 - 05:01 AM (IST)

कांग्रेस - ‘आप’ के अलगाव और इनैलो-बसपा में गठबंधन से आगामी विधानसभा चुनावों में हरियाणा और दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ नजर आएगा। 18वीं लोकसभा का चुनाव कांग्रेस और ‘आप’ ने दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, गुजरात और गोवा में मिल कर लड़ा था, जबकि पंजाब में दोनों अलग-अलग लड़े। उधर बसपा ने अपने सबसे बड़े प्रभाव क्षेत्र उत्तर प्रदेश में भी अकेले दम चुनाव लड़ा, जिसके चलते उस पर भाजपा की ‘बी’ टीम होने का आरोप लगा और खाता तक नहीं खुल पाया। 

लोकसभा चुनाव में चंडीगढ़ के अलावा कहीं भी नतीजे कांग्रेस और ‘आप’ की उम्मीदों के मुताबिक नहीं आए। हरियाणा में कांग्रेस ने ‘आप’ के लिए कुरुक्षेत्र सीट छोड़ी थी तो दिल्ली में ‘आप’ ने उसके लिए तीन लोकसभा सीटें छोड़ीं। हरियाणा में तो कांग्रेस अपने हिस्से की 9 में से 5 लोकसभा सीटें जीतने में  सफल हो गई लेकिन दिल्ली में दोनों ही दलों का खाता तक नहीं खुल पाया और लगातार तीसरी बार भाजपा ने ‘क्लीन स्वीप’ किया। उसके बाद से ही गठबंधन की व्यावहारिकता पर सवाल उठते रहे।‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल के जेल में होने के चलते पार्टी की ओर से तो संकेत ही दिए जाते रहे कि विधानसभा चुनाव अलग-अलग भी लड़ सकते हैं, लेकिन कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कह दिया कि गठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए ही था। हरियाणा में पूर्व मंत्री निर्मल सिंह और उनकी बेटी चित्रा सरवारा जैसे प्रमुख ‘आप’ नेताओं को कांग्रेस में शामिल किया गया तो दिल्ली में दोनों दलों के नेताओं-कार्यकत्र्ताओं के बीच की तल्खियां जगजाहिर हैं। केजरीवाल जिस शराब नीति घोटाले में जेल में हैं, उस पर सबसे पहले सवाल उठाते हुए जांच की मांग दिल्ली कांग्रेस ने ही की थी। ऐसे में दोनों ही राज्यों में नेता-कार्यकत्र्ता मिल कर चुनाव नहीं लड़ पाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

जाहिर है, अक्तूबर में होने वाले हरियाणा विधानसभा चुनाव और फिर अगले साल फरवरी में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों दल अलग-अलग लड़ेंगे। संभव है, इस सोच के पीछे पंजाब में लोकसभा चुनाव परिणाम भी रहे हों, जहां कांग्रेस और ‘आप’ अलग-अलग लड़े तथा अच्छा प्रदर्शन किया। तमाम जोड़-तोड़ के बावजूद भाजपा पंजाब में खाता तक नहीं खोल पाई, लेकिन एक ही फार्मूला हर राज्य पर लागू नहीं हो सकता। पंजाब में ‘आप’ सत्तारूढ़ है, तो कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल। ऐसे में अलग-अलग लड़ते हुए सत्ता विरोधी मतदाताओं के समक्ष कांग्रेस के रूप में एक विकल्प उपलब्ध रहा। वरना वे शिरोमणि अकाली दल और भाजपा की ओर रुख कर सकते थे, लेकिन हरियाणा और दिल्ली में वैसा नहीं है। हरियाणा में 10 साल से भाजपा की सरकार है। पहले 5 साल इनैलो मुख्य विपक्षी दल था तो पिछले 5 साल से कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। ऐसे में सत्ता विरोधी वोटों के विपक्षी दलों के बीच बंटबारे का सीधा लाभ भाजपा को मिल सकता है। हरियाणा में ‘आप’ की बड़ी हैसियत नहीं है, लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे मिलने वाले वोट होंगे तो सत्ता विरोधी ही। वोटों के इसी बिखराव के बीच अपने राजनीतिक पुनरुत्थान की खातिर ओम प्रकाश चौटाला के इनैलो ने मायावती की बसपा से गठबंधन किया है। 

बसपा भी हरियाणा में बड़ी ताकत कभी नहीं रही, पर खासकर दलित बहुल क्षेत्रों में उसका असर है, जो किसी भी दल के साथ मिल कर चुनावी समीकरण बदल सकता है। 53 सीटों पर लडऩे वाले इनैलो और 37 सीटों पर लडऩे वाली बसपा ने बहुमत मिलने पर अभय  सिंह चौटाला के मुख्यमंत्री बनने की बात कही है। जाहिर है, वह बहुत दूर की कौड़ी है, लेकिन इस गठबंधन से इन दोनों दलों का पुनरुत्थान संभव है, पर उसका अप्रत्यक्ष लाभ भाजपा को और नुकसान कांग्रेस को होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि अब ‘आप’ तथा साढ़े चार साल तक भाजपा के साथ सत्ता में भागीदार रही जजपा क्या चुनावी रणनीति अपनाती हैं। इनैलो की तरह जजपा भी चौधरी देवी लाल के परिजनों की ही पार्टी है। क्या ‘आप’ और जजपा हाथ मिला कर चुनाव मैदान में उतरेंगी, अगर वैसा हुआ तो 10 साल बाद सत्ता में वापसी की आस देख रही कांग्रेस की मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी। देश की राजधानी दिल्ली का राजनीतिक समीकरण एकदम अलग है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार ‘आप’ की सरकार है,लेकिन इस बीच हुए तीन लोकसभा चुनाव में ‘आप’ का कभी खाता तक नहीं खुला। 

भाजपा के ‘क्लीन स्वीप’ की ‘हैट्रिक’ रोकने के मकसद से ही हाल के लोकसभा चुनाव में ‘आप’ और कांग्रेस ने गठबंधन किया था। 4 सीटों पर ‘आप’ लड़ी और शेष 3 पर कांग्रेस, पर परिणाम सभी 7 सीटों पर भाजपा की जीत के रूप में सामने आया। इस गठबंधन के चलते दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली समेत कई वरिष्ठ नेता कांग्रेस छोड़ गए, सो अलग। शायद इसलिए कि पंजाब की तरह दिल्ली की सत्ता भी ‘आप’ ने कांग्रेस से ही छीनी थी। दरअसल यह कहना ज्यादा सही होगा कि ‘आप’ का जन्म ही कांग्रेस और वैसी परंपरागत भ्रष्ट राजनीति से मुक्ति के संकल्पों के साथ हुआ था, पर बदलते वक्त ने दोनों को ‘इंडिया’ गठबंधन में एक ही मंच पर ला दिया। नेताओं ने तो हाथ मिला लिए पर कार्यकत्र्ता और समर्थकों के लिए यह इतना आसान नहीं रहा। अक्सर कहा जाता है कि चुनाव अंकगणित के आधार पर नहीं लड़े जाते, न ही परिणाम उसके अनुरूप निकलते हैं, पर शर्तिया चुनावी जीत का फार्मूला भी आज तक कोई चुनावी पंडित नहीं बता पाया है। ऐसे में राजनीतिक दलों और नेताओं के पास भी एक के असफल हो जाने पर दूसरा दांव आजमाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता। इसलिए कांग्रेस और ‘आप’ के अलगाव तथा इनैलो और बसपा गठबंधन से आगामी विधानसभा चुनाव में दिल्ली और हरियाणा में चुनावी परिदृश्य तो बदल गए लेकिन बदलते समीकरण सत्ता-संघर्ष का संतुलन किसके पक्ष में झुकाएंगे, अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है।-राज कुमार सिंह
 


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