बड़े-बड़े वायदे करना आसान लेकिन निभाना नामुमकिन

punjabkesari.in Friday, Feb 24, 2023 - 04:26 AM (IST)

इस सप्ताह देश में सबसे अधिक होने वाली बड़ी घटना त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड राज्यों में विधानसभा चुनाव थे। तीनों ही छोटे उत्तर-पूर्वी राज्य हैं जो लोकसभा में सिर्फ अपना एक प्रतिनिधि भेजते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के लिए प्रचार करने के लिए त्रिपुरा में कुछ दिन बिताने का समय निकाला। उनका मेघालय और नागालैंड जाने का भी कार्यक्रम है। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी में बहुत ऊर्जा है।

इसके साथ-साथ इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री की बयानबाजी मतदाताओं को प्रभावित कर सकती है और करती भी रही है। समस्या यह है कि मोदी बड़े-बड़े वायदे करते हैं जिन्हें निभाना नामुमकिन है। पढ़े-लिखे मतदाताओं को यह अहसास हो गया है कि यह सारे वायदे सिर्फ वोट बटोरने के लिए किए जाते हैं। गरीब और अशिक्षित, जो मूल रूप से अपने पेट में भोजन डालने के लिए चिंतित हैं और जो मोदी के आने के बाद इस आशा में रहते हैं, वे अधूरे वायदों की परवाह नहीं करते लेकिन बेरोजगारी और बढ़ती खाद्य कीमतों ने उन्हें प्रभावित जरूर किया है।

मार्च के पहले सप्ताह नतीजा आ जाएगा। देश के उत्तर-पूर्व में मतदाता ‘डबल इंजन’ के लिए जाएंगे या इस बार एक इंजन के लिए शपथ लेंगे, यह तो परिणाम घोषित होने पर ही पता चलेगा। हालांकि यह सभी बातों से प्रकट होता है कि भाजपा त्रिपुरा के चुनावों में स्पष्ट जीत हासिल नहीं करेगी। जैसा कि मैंने मूल रूप से सोचा था। इसके अलावा सत्तारूढ़ भाजपा और इसके वैचारिक विरोधी माक्र्सवादी जिन्होंने कई वर्षों तक राज्य पर शासन किया, ने कांग्रेस के साथ एक छोटा-सा गठबंधन किया।

यहां पर नवागंतुक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है। एक आदिवासी शासक के नेतृत्व में पुनर्जीवित जन-जातीय पार्टी शायद आदिवासी हृदय भूमि का सफाया कर देगी। इस बार किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना कम ही नजर आ रही है। वहीं, भाजपा ने मेघालय में अकेले चुनाव लडऩे का निर्णय लिया है जो हैरान करने वाला है। भाजपा ने एक पूर्व प्रभुत्व वाले ईसाई क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली है।

नागालैंड में भाजपा 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और शेष 40 को अपनी चुनावी सहयोगी एक स्थानीय नागा पार्टी के लिए छोड़ रही है। दूसरी घटना जो इस सप्ताह सुर्खियां बटोर रही है वह है दिल्ली और मुम्बई में बी.बी.सी. के कार्यालयों पर आयकर की छापेमारी। भारत में जहां सरकार स्वतंत्र टी.वी. समाचार चैनलों पर अपनी छाया डालती है, वहीं इसके विपरीत  ब्रिटिश सरकार बी.बी.सी. से दूर रहती है। लोकतंत्र के अपने-अपने संस्करण में यू.के. यहां भारत से भिन्न है।

मुझे पुलिस के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन पर राजनीतिक वर्ग के नियंत्रण पर लंदन के पुलिस आयुक्त सर पीटर इम्बर्ट के साथ बातचीत करने का मौका मिला। जब मैंने उनसे पूछा कि राजनेता पुलिस के काम के अत्याधुनिक स्थानांतरण और पोस्टिंग को प्रभावित कर रहे हैं तो वे हैरान थे। उन्होंने ऐसी स्थिति के बारे में कभी नहीं सुना था। हमारे देश में आज राजनेता पुलिस बलों को चलाते हैं। पुलिस को सभी सरकारी संस्थाओं में सबसे अव्यावसायिक बनाते हैं।

सर पीटर ने कहा कि ब्रिटेन के लोग अपने देश में ऐसा नहीं होने देंगे। बी.बी.सी. पर छापा उसके खोजी पत्रकारों द्वारा 2002 के साम्प्रदायिक दंगों से निपटने के लिए मोदी की भूमिका पर बनाए गए दो भाग के वृत्तचित्र के विमोचन के तुरन्त बाद पड़ा है। बी.बी.सी. के वीडियो देश के मतदाताओं को प्रभावित नहीं करने वाले थे। जहां तक घरेलू दर्शकों का संबंध है गोधरा और 2002 के गुजरात दंगे पुरानी बातें थीं। क्या हमारे पी.एम. उनकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के बारे में चिंतित हैं?

यूके और यहां तक कि अमरीका या अन्य उन्नत यूरोपियन देशों की सरकारें अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बचाए रखने के लिए भारतीय बाजार में बहुत रुचि रखती हैं। 2002 में उनकी आंतरिक खुफिया रिपोर्ट ने उनके नेताओं को गुजरात की घटनाओं की सच्चाई से अवगत करवाया होगा लेकिन हर सरकार अपने लोगों की जरूरतों के हिसाब से चलती है और वर्तमान में जरूरत उनकी अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने की है। तो हमारी सरकार को इतना चिढऩे की क्या जरूरत थी?

बी.बी.सी. निष्पक्षता और सही रिर्पोटिंग की विश्वव्यापी छवि है। भारत में दर्शक बी.बी.सी. का रुख उस समय करते हैं जब उनका सामना ‘फेक न्यूज’ की अधिकता से होता है। 2002 के गुजरात दंगों पर बी.बी.सी. के वीडियो विदेशों में मोदी को निश्चित रूप से चोट पहुंचाएंगे लेकिन क्या इससे कोई फर्क पड़ेगा?  प्रबुद्ध जनता की आम राय छापों के पक्ष में नहीं थी। यहां तक कि कट्टर मोदी समर्थकों ने भी छापों का समर्थन करने के लिए हिचकिचाहट दिखाई।

मुझे यकीन है कि ऐसे समाचारों का विदेशों में कोई अच्छा संकेत नहीं गया होगा। तीसरी घटना मेरे राज्य महाराष्ट्र से संबंधित है जो पिछले सप्ताह सुर्खियों में रहा है। पिछले 8 दशकों से चली आ रही ताकत शिवसेना अब राज्य की राजनीति में मायने रखने वाला कारक नहीं होगी। भाजपा और राकांपा को फायदा होगा। अब शिंदे गुट ‘असली शिवसेना’ है। क्या शिवसैनिक बाला साहब के पुत्र का परित्याग कर देंगे, इसमें संदेह है।

मुम्बई में उनका साथ ज्यादातर उद्धव के साथ है। चिंता की बात यह है कि भले ही चुनाव आयोग तर्कपूर्ण निर्णय दे रहा हो लेकिन अब उसे यह सम्मान नहीं मिल रहा है जो कभी उसे मिलता था। उद्धव-शिंदे विभाजन में इसका फैसला एक खतरनाक मिसाल पेश करता है। -जूलियो रिबैरो (पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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