धरती को बचाने की चुनौती

Friday, Apr 22, 2016 - 01:19 AM (IST)

(अरविंद जयतिलक): 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के प्रति समर्थन प्रदॢशत करने के लिए मनाया जाता है। इस दिवस का शुभारंभ अमरीकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में किया गया था। आज यह संसार के तकरीबन सभी देशों द्वारा मनाया जाता है। सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के मन में पृथ्वी दिवस का विचार तब आया जब उन्होंने सेंट बारबरा तेल रिसाव, प्रदूषण उगलती फैक्टरियां, पावर प्लांटों से निकलते खतरनाक तत्व, नगरीय कचरे और मलबे से पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित होते देखा। उन्होंने इस ओर अमरीकी जनमानस का ध्यान आकॢषत करते हुए 22 अप्रैल 1970 को पृथ्वी दिवस के रूप में पर्यावरण संरक्षण की शुरूआत की।  

 
मगर यह विडम्बना है कि एक ओर दुनिया के सभी देश पृथ्वी दिवस के दिन पर्यावरण सुरक्षा और संरक्षण के प्रति संकल्प लेते हैं, नए-नए कानून बनाते हैं लेकिन पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक विकास के नाम पर प्रति वर्ष 7 करोड़ हैक्टेयर वनों का विनाश हो रहा है। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसदी से अधिक कमी आई है। उदाहरण के तौर पर भारत में ही पिछले एक दशक में पर्यावरण को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गिद्धों की संख्या में 97 फीसदी की कमी आई है। जीवों व वनों के विनाश से वातावरण असंतुलित हो रहा है और प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाईआक्साइड वायुमण्डल में घुल रही है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को भारी नुक्सान पहुंच रहा है। 
 
नेचर जिओसाइंस की मानें तो ओजोन परत को होने वाले नुक्सान से कुछ खास किस्म के अत्यंत अल्प जीवी तत्वों (वी.एस.एल.एस.) की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है जो मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरनाक हैं। इन खास किस्म के वी.एस.एल.एस. की ओजोन को नुक्सान पहुंचाने में भागीदारी तकरीबन 90 फीसदी है। एक आंकड़े के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाईआक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन आक्सीजन समाप्त हो चुकी है। अगर यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सैल्सियस वृद्धि तय है। 
 
वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है अगर उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सैल्सियस के पार पहुंच जाएगा। आज जब 48 डिग्री सैल्सियस की गर्मी मनुष्य सह नहीं पा रहा है तो 60 डिग्री सैल्सियस गर्मी वह कैसे बर्दाश्त करेगा? 
 
यदि पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सैल्सियस वृद्धि हो जाए तो आर्कटिक एवं अंटार्कटिका के विशाल हिमखंड पिघल जाएंगे और इससे समुद्र केजल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक वृद्धि होगी। इसकापरिणाम यह होगा कि समुद्रतटीय नगर समुद्र में डूबने लगेंगे।फिर भारत के भी मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम, कोचीन और त्रिवेंद्रमसमुद्र में होंगे। इसी तरह न्यूयॉर्क, लॉस एंजल्स,पैरिसऔर लंदन आदि बड़े नगर जलमग्न हो जाएंगे। 
 
पर्यावरण के साथ खिलवाड़ का सबसे घातक असर ध्रुवीय क्षेत्रों पर पड़ रहा है। उत्तरी ध्रुव पर समुद्र में फैली स्थायी बर्फ की मोटी परत कम हो रही है। सदियों से बर्फ  की मजबूत चादर में ढके क्षेत्र पिघल रहे हैं। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमैंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई वर्ष 2005 में आधे मीटर से ज्यादा कम हो गई है। वैज्ञानिकों की मानें तो इसकेलिए मुख्य रूप से ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माऊंट एवरैस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं। 
 
अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है। कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादि पर असर पड़ेगा। पृथ्वी पर करीब 12 करोड़ वर्षों तक राज करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीवों के समाप्त होने का कारण संभवत: ग्रीन हाऊस प्रभावही था। पारिस्थितिकीय संकट उत्पन्न होने से जलकादोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गयाहै। भारत की गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियां सूखने के कगार पर हैं। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारणक्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से नदियों का पानी जहर बनता जा रहा है। 
 
वैज्ञानिकों की मानें तो जलसंरक्षण और प्रदूषण पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले 200 सालों में भूजल स्रोत सूख जाएगा। नतीजतन मानव को मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वाॄमग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाऊस प्रभाव, भूकम्प, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी विपदाओं से जूझना होगा। मानव को समझना होगाकि पृथ्वी दिवस मनाने मात्र से पर्यावरण की सुरक्षा नहीं की जा सकती। इसके लिए संवेदनशील होना ज्यादा जरूरी है।  
 
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