कांग्रेस पार्टी के लिए ‘वंशवाद’ एक बोझ साबित होगा

Sunday, Apr 21, 2019 - 03:01 AM (IST)

2019 के आम चुनावों के लिए मतदान के पहले दो चरण निपट चुके हैं। शुरूआती रुझान क्या हैं? प्रारम्भिक सबक क्या हैं? 

3 प्रचार अभियानों की तुलना
भाजपा/राजग का प्रचार अभियान केन्द्रित है। इसने एक एजैंडा सैट किया है। यहां नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को लेकर स्पष्टता है। ऐसा दिखाई देता है कि उनके पक्ष में एक मजबूत उभार है। प्रचार अभियान गत 5 वर्षों की प्रमुख उपलब्धियों पर केन्द्रित है, विशेषकर गरीबों तथा मध्यमवर्ग को मजबूत बनाने, एक साफ-सुथरी सरकार तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर विशेष जोर देने से संबंधित। गठबंधन सामंजस्यपूर्ण है तथा जिन मुद्दों को पेश किया जा रहा है, वे संकेन्द्रित हैं। 

गत एक वर्ष के दौरान कांग्रेस जाली मुद्दों के आधार पर जो दबाव बना रही थी, वह टूट गया है। वह अब अपने घोषणा पत्र में घोषित एक नई योजना पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, जो लोगों को प्रभावित नहीं कर पा रही। टिकाऊ प्रचार के लिए पहले परिवार के सदस्यों पर पूरा भरोसा ‘सही’ साबित नहीं हो रहा है। जहां कहीं भी स्पर्धा मुख्य रूप से भाजपा तथा कांग्रेस के बीच है, भाजपा सहज स्थिति में है। पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में क्षेत्रीय दलों को बड़ा अचरज पहुंच सकता है। वामदलों ने 2014 में बहुत खराब कारगुजारी दिखाई थी। कुल मिलाकर उनकी संसदीय ताकत और भी कमजोर होगी। क्षेत्रीय दल केवल उन क्षेत्रों में अच्छी कारगुजारी दिखाएंगे जहां भाजपा को अभी भी बड़ी ताकत का अभाव है। 

यद्यपि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के लिए प्रधानमंत्री मोदी एक स्वाभाविक चुनाव दिखाई देते हैं। यह विशेषकर 35 वर्ष से कम आयु के मतदाताओं के मामले में सच है। ‘मेरा वोट मोदी को’ एक सामान्य राग है। राजग एक सकारात्मक प्रचार अभियान चला रहा है। यह एक गरीबी रहित भारत को देख रहा है और जो इसके लोगों को कहीं बेहतर जीवन गुणवत्ता देता है। कांग्रेस तथा क्षेत्रीय दल केवल एक व्यक्ति को हटाने पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं और वह हैं नरेन्द्र मोदी। जहां पदधारी की स्वीकार्यता 70 प्रतिशत है, वहीं वे न मौजूद सत्ताविरोधी लहर का रोना रो रहे हैं। 

जाति तथा परिवार आधारित कुछ पार्टियों की स्थिति 
कांग्रेस अपने कुछ पारम्परिक चमकते चेहरों को पार्टी छोड़ते हुए देख रही है। यह पलायन केवल किसी विशेष घटना के कारण है या वे नेतृत्व के साथ अपने बड़े मोहभंग को प्रतिबिंबित कर रहे हैं? जब मानसिकताएं सामंतवादी हों तो राजवंश बचे रहते हैं। राजवंश तब भी बचे रहते हैं जब वे करिश्माई हों तथा उनमें परिणाम देने की क्षमता हो। बड़ी संख्या में समर्थक इस कारण पराधीनता स्वीकार करते हैं क्योंकि राजवंश उन्हें किसी पद पर बैठाने में सक्षम होता है। राजवंशों के साथ तब क्या होता है, जब सामंती मानसिकताएं बदल जाती हैं तथा देश और अधिक आकांक्षावान बन जाते हैं?

भारत की सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा विकास की सीढ़ी चढ़ रही है। इस सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा के साथ एक देश के लिए राजवंश को स्वीकार करना कठिन होगा। यदि कांग्रेस का राजवंश संसद में 44 अथवा 60 सीटें देने में सक्षम है तो किसी पारंपरिक कांग्रेसी को ‘वंशवाद’ के अधीन रहकर अपमान सहने का क्या लाभ? अंतत: वंशवादी दलों में लोगों को राजनीतिक गुलामी स्वीकार करनी पड़ती है। ये कांग्रेसी आज भाजपा जैसी पार्टी की ओर देख रहे हैं जहां प्रतिभावान पुरुषों तथा महिलाओं के लिए आगे बढऩे हेतु बहुत अवसर हैं, पार्टी, विधायिकाओं तथा सरकारों, सभी में। भाजपा ने भारत को अटल बिहारी वाजपेयी तथा नरेन्द्र मोदी जैसे दो प्रधानमंत्री दिए, जो ‘अपनी पीढ़ी के सबसे बड़े

नेताओं’ से एक मील आगे थे। आज यह गुणवत्ता आधारित पार्टियों में हो सकता है न कि राजवंशीय पार्टियों में। भारत की इस बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा के संबंध में एक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि ‘क्या राजवंश किसी पार्टी के लिए सम्पत्ति हैं या दायित्व?’ निश्चित रूप से ‘राजाओं’ की वर्तमान पीढ़ी कांग्रेस पार्टी के लिए एक सम्पत्ति की बजाय दायित्व बन गई है। ऐसी ही स्थिति जाति आधारित पार्टियों के संबंध में भी उत्पन्न होती है। इंडियन नैशनल लोक दल (इनैलो) बिखर चुका है। बसपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में कोई भी सीट नहीं मिली थी जबकि विधानसभा चुनावों में केवल 19 सीटें हासिल हुई थीं। सपा 2014 के चुनावों में केवल अपने पारिवारिक सदस्यों की सीटें बचा सकी थी। राजद 2 सीटों पर सिमट गई थी। इसलिए भारत की बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा जाति आधारित पाॢटयों के अनुकूल नहीं रही। धीरे-धीरे मगर निश्चित रूप से उस काल का अंत हो जाएगा। 

एक अन्य महत्वपूर्ण रुझान जो दिखाई दे रहा है, वह यह कि क्या राष्ट्रीय दलों में ताकत का अभाव है जिस शून्य को शक्तिशाली क्षेत्रीय दलों द्वारा भरा जा रहा है? भाजपा, जो उत्तर भारत की पार्टी थी, केन्द्रीय तथा पश्चिमी भारत में फैल चुकी है और अब इसने पूर्व में राजनीतिक क्षेत्र के बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया है। यह इस हद तक फैल चुकी है कि इसने पहले ही ऐसे कुछ स्थान पर अधिकार कर लिया है जिस पर पहले बंगाल, ओडिशा, असम तथा पूर्वोत्तर के राजनीतिक दलों का अधिकार था। यह दक्षिण में कर्नाटक में प्रमुख राजनीतिक दल है। इस चुनाव में भाजपा केरल में बराबरी पर दिखाई देगी। 18 अप्रैल को प्रधानमंत्री की तिरुवनंतपुरम की रैली में उमड़ा अप्रत्याशित जनसमूह कइयों को पुनर्समीक्षा के लिए अपना सिर खुजाने को मजबूर कर देगा। ऐसा दिखाई दे रहा है कि भाजपा के पास लडऩे तथा क्षेत्रीय दलों से और अधिक राजनीतिक स्थान हासिल करने की क्षमता है। कांग्रेस में स्वाभाविक रूप से इस प्रवृत्ति का अभाव है। 

2019 की दिशा 
2019 के आम चुनावों की दिशा स्पष्ट है। केन्द्रीय मंच पर भाजपा आसीन है। एजैंडा बनाने तथा नेतृत्व, दोनों लिहाज से कांग्रेस कोई प्रभाव छोडऩे में असफल हो रही है। क्षेत्रीय दल टक्कर दे रहे हैं। उनका एजैंडा मुख्य रूप से राज्य आधारित है। उनके नेताओं में राष्ट्रीय स्तर की सोच का अभाव है। देश को उन पर विश्वास नहीं है कि वे एक सुसंगत, स्थिर तथा लम्बे समय तक चलने वाला गठबंधन बना लेंगे। क्या एक संघीय मोर्चे पर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रभावी प्रबंधन को लेकर विश्वास किया जा सकता है? 

कुछ अप्रत्याशित दिखाई देगा
आवेग स्पष्ट रूप से भाजपा तथा प्रधानमंत्री मोदी के साथ है। प्रधानमंत्री के चुनाव हेतु राष्ट्रीय नेतृत्व की स्पर्धा के मामले में यह लगभग एकल घोड़े की दौड़ बन रहा है। कोई भी अन्य प्रधानमंत्री मोदी की क्षमता तथा स्वीकार्यता के स्तर की बराबरी नहीं कर सकता। क्या इतिहास पूरी तरह से कुछ अभूतपूर्व देखने जा रहा है? और क्या आकांक्षावान भारत गुणवत्ता आधारित नेतृत्व चुनने के लिए एक कड़ा निर्णय लेगा? यह अच्छी तरह से हो सकता है।-अरुण जेतली

Advertising