घरेलू राजनीतिक ‘माहौल’ का असर विदेशी रिश्तों पर पड़ेगा

Wednesday, Jan 01, 2020 - 03:38 AM (IST)

नववर्ष में गम्भीर विदेशी चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को कुछ निर्णायक घरेलू घटनाक्रमों को सही करने की जरूरत है। भारतीय राजनीति के लिए अंदरूनी कलह तथा आॢथक मंदी दोनों ही एक खतरनाक मोड़ पर हैं। आने वाले दिनों में भारतीय कूटनीति तथा विदेश नीति के लिए अंदरूनी राजनीतिक घटनाक्रम तथा आर्थिक पुनर्जीवन दोनों ही अहम होंगे। 

21वीं शताब्दी में दो महत्वपूर्ण बातों ने भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को चार चांद लगाए हैं। एक तो 1990 के दशक में हुए सुधारों से उत्पन्न भारत की तेजी से बढ़ रही आर्थिक वृद्धि है जिसने उसे विश्व की प्रमुख शक्तियों की लीग में शामिल किया है। दूसरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का विस्तृत आकार तथा इसके बाजार का आकर्षण भी बढ़ा है। भारत की बढ़ रही अर्थव्यवस्था को देख कर बाहरी देशों में कइयों ने यह माना है कि भारत आगे जाकर एक सैन्य शक्ति बन जाएगा। भारतीय उपमहाद्वीप तथा एशिया में शक्ति के क्षेत्रीय संतुलन को बनाने में दिल्ली एक अहम भूमिका निभा सकती है। अंत में अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के ढांचे को दिल्ली एक नया आकार दे सकती है। 

भारत पश्चिम में अपने आपको स्थापित कर पाया
भारत के लोकतांत्रिक मूल्य तथा इसकी संस्कृति का फैलाव हुआ है जिसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। पश्चिम के साथ राजनीतिक मूल्यों के बांटने की अवधारणा ने भारत के खिलाफ दशकों पुरानी उच्च तकनीकी नाकाबंदी में सुधार किया है। इसके तहत भारत पश्चिम में अपने आपको स्थापित कर पाया है। शीत-युद्ध के दौरान भारत के लोकतांत्रिक मूल्य के कुछ सामरिक नतीजे निकले। इसके चलते अमरीका, यूरोप, जापान तथा अन्य एशियाई देशों के साथ भारत की नीतिगत भागेदारी और मजबूत हुई। 

यदि आर्थिक मंदी तथा व्यापार में हो रहे विरोध ने भारत के आकर्षण को सीमित किया है तो वहीं हिन्दू बहुसंख्यकवाद के मुद्दे ने भी उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया, अमरीकी कांग्रेस तथा इस्लामिक देशों में चिंताएं बढ़ाई हैं। आप्रवासी जिसे कि भारत की सम्पत्ति समझा जाता था अब यह दिल्ली की विदेश नीति की मुश्किल का हिस्सा बन रहा है। दिल्ली के प्रति नकारात्मक सोच उभर रही है। देश में धार्मिक बंटवारे से पाकिस्तान के साथ नोक-झोंक के मिल जाने से भारत के लिए विदेशी संबंधों को लेकर सिरदर्दी बढ़ गई है। अपने घर में भारत क्षेत्रीय झगड़ों के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष की ओर बढ़ रहा है। भारत की घरेलू राजनीति को लेकर बाहरी चिंताएं बढ़ी हैं। देश में सभी राज्य स्वतंत्र हैं। वे अपने यहां जो कुछ करना चाहें, कर सकते हैं तथा जिस तरह की विदेश नीति को वे पसंद करते हैं उसके लिए भी वे स्वतंत्र हैं। वर्षों से राजनेता देश तथा विदेश के दरमियान जटिल परस्पर निर्भरता को कायम करने के रास्ते तलाशते रहे हैं। जो लोग यह समझते हैं कि इन दोनों में कोई रिश्ता नहीं है उनको कीमत चुकानी पड़ी है। 

आज के दौर में ज्यादातर राष्ट्र घरेलू, आर्थिक नीति तथा बढ़ती हुई तकनीकी नीति को देश तथा विदेश के दरमियान परस्पर बातचीत से आकार दे रहे हैं। विश्व में कुछ ही देश ऐसा मानते हैं कि पूर्ण आर्थिक स्वायत्तता आरक्षणीय है। विश्व में पूर्ण विभाजन के लिए कोई स्थान नहीं है। यही बात राजनीतिक स्वायत्तता के लिए भी सही मानी गई है। यह कभी भी पूर्ण नहीं रही तथा यह हमेशा ही आकार, अर्थव्यवस्था, भूगोल, जनसांख्यिकी तथा इतिहास द्वारा विवश रही है। शासनकला ने अन्यों की अंदरूनी मुश्किलों से फायदा उठाया है। जब कोई देश अपने घर में बंटवारे की आग से जलता है तब वह अपने दोस्तों को ही नहीं बल्कि अपने शुभचिंतकों को भी दुखी करता है। इससे दूसरे लोगों को भी शोषण करने का मौका मिलता है। 

दूसरों के अंदरूनी झगड़ों से फायदा उठाते हैं देश
शक्तिशाली देश दूसरों के अंदरूनी झगड़ों से फायदा उठाते हैं। रूस जोकि लम्बे समय तक उत्तरी अमरीका तथा यूरोप में नकारा गया तथा अपनी शक्ति खो रहा था, अब यह ज्यादा सशक्त लोकतांत्रिक देशों की घरेलू राजनीति में दखलअंदाजी कर रहा है। कुछ ही देशों को इतना धार्मिक बोझ नहीं उठाना पड़ा जितना कि स्वतंत्र भारत को उठाना पड़ा है। धर्म के आधार पर भारत के विभाजन के बाद धार्मिक सौहार्द कायम रखने के लिए इसने चुनौतियों का सामना किया है।-सी राजा मोहन

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