‘दूसरों का भला करना मोदी सरकार की फितरत नहीं’

Saturday, Jan 16, 2021 - 04:41 AM (IST)

आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया बहुत पहले 1991 में शुरू हुई थी, जिसने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के कुलीन कुनबे में जगह दिलाई। हमारे लोकतंत्र की भावना का अनुसरण करने वाले बड़े नीतिगत फैसलों की एक पूरी शृंखला लागू की गई, मगर तब ऐसा कहने वाला कोई नहीं था कि हम ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ से पीड़ित हैं, जैसा कि हाल ही में नीति आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कांत ने कहा। उनकी टिप्पणी में इशारा किया गया था कि नीति बनाने के काम का राजनीतिकरण कर दिया गया है, जिसमें राजनीतिक ईमानदारी के बजाय चाटुकारिता से नीति का रुख और नतीजों का निर्धारण होता है। 

वर्ष 2014 से ‘न्यू इंडिया’ बनाने और भारत के अतीत के गौरव को खारिज करने के लिए कुछ अतिवादी प्रयोगों-जैसे कि नोटबंदी, जी.एस.टी. को गलत तरीके से लागू किए जाने और दिशाहीन लॉकडाऊन इन सबने मिलकर अभूतपूर्व भारी नुक्सान पहुंचाया है। वैश्विक महामारी कोविड-19 और लॉकडाऊन से तबाह साल 2020 किसानों के लिए और तकलीफ बढ़ाने वाला साबित हुआ क्योंकि केंद्र के प्रस्तावित कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020 में किए गए प्रावधान से कृषि उपज विपणन समिति (ए.पी.एम.सी.) और मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) व्यवस्था के खात्मे का इंतजाम कर दिया गया है-साथ ही प्राइवेट मंडियों के एकाधिकारवादी आगमन की अनुमति दे दी गई। 

ऐसे में पहले से आर्थिक संकट से जूझ रहे भारत के किसानों के पास शांतिपूर्ण विरोध के लोकतांत्रिक तरीके के साथ सड़कों पर उतरने के अलावा कोई चारा नहीं था। इन कठोर सर्दियों में खुले आसमान के नीचे वह किस तरह बैठे हैं, यह नजारा देख दिल दहल जाता है-और सरकार की उदासीनता हमें औपनिवेशिक शासन की याद दिलाती है जब सरकार के फैसले पूरी तरह करीबी कारोबारी समूहों के फायदे के लिए समर्पित होते थे। ऐसे दौर में शासन करने की क्षमता की कमी के लिए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाता है और केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा ध्रुवीकरण की घटनाओं को बढ़ावा दिया जाना ‘न्यू नॉर्मल’ है-ऐसे में इस दिशाहीन सरकार से लोगों की मांग पर समझदारी भरी प्रतिक्रिया और वास्तविक सुधारों की आशा करना फिजूल होगा। 

बुरी तरह बिखरा ए.पी.एम.सी. ढांचा और एम.एस.पी. के लिए कोई गारंटी नहीं होने से किसान आशंकित हैं-और उन्हें डर है कि चुनिंदा बड़े कॉर्पोरेट्स के लिए खास मकसद के साथ तैयार किए गए कॉन्ट्रैक्ट फॉॄमग सिस्टम में उनका बंधुआ उत्पादकों के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। नए किसान कानूनों के आने के साथ ही पहले से भारी बदहाली का शिकार को-आप्रेटिव सिस्टम भी अस्तित्व की चुनौतियों का सामना करने के लिए नहीं रह जाएगा। किसान कानून जो कि ऐतिहासिक भूल हैं, ‘कृषि सुधार’ के दावे और पी.एम. मोदी के खुद के नारे ‘2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने’ के दावे का मजाक बनाते हैं। 

नीति आयोग के नीति पत्र- (2007) के आकलन के अनुसार,‘‘किसानों की दोगुनी आय: उद्देश्य, रणनीति, संभावनाएं और कार्य योजना’’ ऐसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को 10.4 फीसदी की न्यूनतम वार्षिक जी.डी.पी. वृद्धि दर्ज करनी होगी। कोविड-19 के बाद के समय में यह अवास्तविक परिदृश्य है। दूसरों का भला करना इस सरकार की फितरत नहीं है-और इसका जनता के प्रति झुकाव केवल चुनावी मकसद साधने तक सीमित है। इसलिए सरकार ने किसानों का हाथ थामने की जगह ‘किसान कानून’ के रूप में छिपी हुई किराएदारी की योजना पेश की है। 

‘एजैंडा सैटिंग’ और ‘स्वीकार्य नैरेटिव’ बनाने की खास तरकीबें प्रधानमंत्री मोदी को उनकी योजनाओं को आगे बढ़ाने में मदद कर रही हैं, जिनके बिना सुप्रीम कोर्ट को यह भरोसा दिलाना मुमकिन नहीं था कि 20,000 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से बनने वाला आलीशान सैंट्रल विस्टा प्रोजैक्ट सरकार की खुली वास्तविकताओं से पलायनवाद के स्मारक के बजाय एक आवश्यकता है। 

असामान्य रूप से आत्ममुग्धता की भावना से भरे प्रधानमंत्री मोदी ने गलत सलाहकारों की सलाह को ठुकरा कर आधुनिक भारत की संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पी.एस.यू.) को बर्बाद करने से बचाने का मौका गंवा दिया है। प्राइमरी सैक्टर के संदर्भ में कार्पोरेट्स को बैंकिंग में प्रवेश की छूट देने के एक और विनाशकारी कदम से संस्थागत क्रैडिट ङ्क्षलकेज पर बड़ा  नुक्सानदायक असर पड़ेगा-इससे कार्पोरेट कॉन्ट्रैक्ट एजैंसियों के पक्ष में सरकारी धन के री-रूट किए जाने का रास्ता खुल जाएगा। 

फैसला लेने के अधिकार के बिना, कृषि क्षेत्र की विशेषज्ञता और 1947 के बाद हुए ऐतिहासिक विकास की समझ के अभाव वाले केंद्र्र सरकार के वार्ताकारों को किसानों से बातचीत के वास्ते समय हासिल करने और उन्हें कमजोर करने का दुष्कर काम सौंपा गया है। इस बीच, सरकार भले ही बहुत खराब तरीके से हालात को संभाल रही है, लेकिन कुछ बनावटी यूनियन नेता सरकार के साथ झूठी गलबहियों का दिखावा कर रहे हैं। किसानों के विरोध को सिर्फ हरियाणा और पंजाब तक सीमित साबित करने की कोशिश की बजाय, इन दोनों राज्यों में खेती की स्थिति को साफ रौशनी में देखने की जरूरत है। 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रांति के दौरान दोनों राज्य सबसे आगे थे और खाद्य उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाया था। नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने अपने नारे ‘जय जवान, जय किसान’ से किसानों को पूरा सम्मान दिया।-श्रुति चौधरी(कांग्रेसी नेता)

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