क्या वर्णिका को अपनी बात कहने का हक नहीं

Wednesday, Aug 09, 2017 - 01:28 AM (IST)

जब मतदाता का पार्टीकरण हो जाता है, तब राजनीति बीमार हो जाती है। हाल के वर्षों में मतदाता का तेजी से पार्टीकरण हुआ है। उसने अपने आप को एक पार्टी की सोच में समाहित कर दिया है। किसी भी पार्टी के लिए यह बहुत अच्छी उपलब्धि है लेकिन लोकतंत्र के खाते में यह सबसे बड़ा नुक्सान है। लोकतंत्र में जनता की उपस्थिति बेहद आवश्यक है। 

जब तक वह जनता रहती है तब तक सत्ता और विपक्ष पर सामान्य रूप से दबाव रहता है लेकिन जैसे ही जनता का विलय पार्टी या विचारधारा में हो जाता है, जनता की मौजूदगी कमजोर पडऩे लगती है। जनता खुद को सरकार से अलग नहीं कर पाती है और हर सही-गलत को एक ही नजर से देखने लगती है। वह यह भूल जाती है कि लोकतंत्र में उसका मोल तभी तक है जब तक वह जनता है। यह हैसियत गंवाने के बाद सरकार बेखौफ हो जाती है। 

चंडीगढ़ की वर्णिका कुंडू के मामले के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनसे यही पता चलता है कि बड़ी संख्या में लोगों ने जनता होने की हैसियत खो दी है। वे अब हर हाल में सरकार के साथ रहना चाहते हैं, जनता के दूसरे हिस्से के साथ नहीं। यही कारण है कि बड़ी संख्या में लोग वॢणका की बातों का विरोध कर रहे हैं। उनके तमाम तर्कों के पीछे एक ही तर्क है कि आपने एक सीमा से ज्यादा भाजपा सरकार की आलोचना कैसे कर दी? थाने में शिकायत कर घर चले जाना चाहिए था। वह आई.ए.एस. की बेटी न होती तो मीडिया भी कहां ध्यान देता। इन तर्कों से लग सकता है कि मीडिया ने सरकार के खिलाफ कोई मोर्चा खोल रखा हो मगर यह सही बात नहीं है। टी.वी. मीडिया ने यह मसला सरकार विरोधी कोटे के तहत नहीं उठाया है, बल्कि जनता के कोटे से उठाया है। उसे अपने दर्शकों के बीच भी रहना है। इसलिए ऐसे मौके पर वह समाज और व्यवस्था का पहरेदार बन जाता है। 

वर्णिका के खिलाफ सोशल मीडिया में जो अभियान चल रहा है, उसका अध्ययन करने पर एक बात तो साफ है कि समाज दो हिस्सों में बंटा है। दोनों ही हिस्से में राजनीति का तत्व है लेकिन आरोपी के साथ जो लोग हैं वे सिर्फ  राजनीतिक कारणों से खड़े हैं। विशेषाधिकार प्राप्त एक लड़की के साथ जब ताकतवर लोग इस तरह का बर्ताव कर सकते हैं तो आप समझ सकते हैं कि यही लोग किसी सामान्य लड़की के साथ क्या करते होंगे? तर्क गढ़ा जा रहा है कि मीडिया इसे इसलिए दिखा रहा है कि वर्णिका आई.ए.एस. की बेटी है। 

क्या आई.ए.एस. की बेटी होने के नाते वर्णिका को कहने का हक नहीं है? उसके पिता ने तो लिखा है कि जब विशेषाधिकार प्राप्त हम लोगों की यह हालत है और हम लोग नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा? आई.ए.एस. की बेटी की कवरेज से आरोपी की तरफ खड़े  लोगों को दिक्कत है मगर इसी तबके को सरकारों की गोद में बैठे मीडिया से कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तभी है जब इस खेल में उनकी राजनीतिक निष्ठा को चोट पहुंचती है। वे अपनी निष्ठा के खिलाफ जाने की तकलीफ से बचने के लिए ये सब तर्क गढ़ रहे हैं। 

इसमें बिल्कुल दो राय है ही नहीं कि आम लड़कियों के साथ ऐसा होता है और मीडिया कवरेज नहीं करता है। क्यों नहीं करता है क्योंकि तब वह सरकारों का गुणगान कर रहा होता है। फिर भी अगर वर्णिका की काट में यही अकाट्य तर्क है तो यह सवाल उस सरकार से ही पूछा जाए जिसके बचाव में अनाप-शनाप तर्क गढ़े जा रहे हैं। क्या उस सरकार का सिस्टम वाकई ऐसा है कि आम लड़की के साथ ऐसी घटना होने पर सुनवाई नहीं होती है, पुलिस सक्रियता नहीं दिखाती है? अगर ऐसा है तब हम किसी का भी बचाव क्यों कर रहे हैं? कहीं इसलिए तो नहीं कि जनता का पार्टीकरण हो चुका है, जिसमें पार्टी हर हाल में सही है। उसके प्रति निष्ठा अब हस्तातंरित नहीं की जा सकती है। 

रात को निकलने से लेकर मां-बाप को संस्कार देने चाहिएं टाइप की बकवासों पर पहले भी चर्चा हो चुकी है और आगे भी होती रहेगी। पिता वीरेन्द्र कुंडू के बारे में भी कहा जा रहा है कि वह जाट हैं। भाजपा ने हरियाणा में गैर-जाट नेतृत्व पैदा किया है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी जाट हैं। मतलब कुछ भी बका जा रहा है। जाट-जाट का जोड़ निकाल कर वीरेन्द्र कुंडू के साहस को कांग्रेसी बताकर खारिज करने की कोशिश हो रही है। वीरेन्द्र कुंडू ने मुझसे बात करते हुए कहा कि 30 वर्ष की नौकरी में उनके 30 तबादले हुए हैं, क्योंकि उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और किसी के दबाव में नहीं आए। उनकी 30 वर्ष की नौकरी में 10 वर्ष भूपेन्द्र हुड्डा का मुख्यमंत्री काल भी रहा है। ऐसे तर्कों से हम क्या हासिल करना चाहते हैं और इसका घटना से क्या लेना-देना है? 

भाजपा अध्यक्ष जाट हैं। उनसे इस्तीफे की मांग हो रही है और भाजपा दुविधा में है कि जाट नाराज हो जाएंगे। अब इस तर्क का भी इस घटना से कोई संबंध नहीं है। उनके इस्तीफा दे देने से भी कोई हल नहीं निकलने वाला है। वह पद छोड़ भी देंगे तब भी हरियाणा में भाजपा की ही सरकार है। राजनीतिक दल अपनी राजनीति साध रहे हैं। इस्तीफा होते ही विजेता ट्राफी लेकर वे नाचने लग जाएंगे। सबको पता है कि हमारा सिस्टम चाहे कांग्रेसी सरकार का हो या भाजपा सरकार का, भीतर से सड़ा हुआ है। वह इस मामले में फैसले को कई वर्षों तक लटका देगा, इसलिए फिलहाल इस्तीफा लेकर चलते बनो। इस्तीफा दिया जा सकता है और मांगा जा सकता है मगर इससे कुछ होने वाला नहीं है। 

मूल सवाल क्या होना चाहिए? क्या आपको सिस्टम पर भरोसा है कि वह बिना किसी से प्रभावित हुए निष्पक्ष तरीके से जांच करेगा? आप हंस रहे होंगे। मैं भी हंस रहा हूं। जब कोई कहता है कि मैं इंसाफ के लिए लड़ूंगा क्योंकि मुझे कानून पर भरोसा है, तो हम भी सुनकर वाह-वाह करने लगते हैं। कभी आपने सोचा है कि कानून पर भरोसा जताने की क्या कीमत चुकानी पड़ती है? क्या आपको अंदाजा है कि इस भरोसे को हासिल करने के लिए कितने वर्ष और कितने लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं, वकील से लेकर थानों के चक्कर लगाने में? कानून पर भरोसा साबित करने का दारोमदार नागरिक पर ही होता है। उसका सब बिक जाता है। कायदे से सिस्टम को कहना चाहिए कि हम आपमें भरोसा बनाए रखने के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा देंगे ताकि किसी का कानून से भरोसा नहीं उठे। होता उलटा है क्योंकि हम सवाल सही तरीके से नहीं करते हैं। 

​​​​​​​वर्णिका और उनके पिता वीरेन्द्र ने साहस का काम किया है, मैं उनके साहस में लाखों रुपए वकील की फीस और मुकद्दमेबाजी का तनाव भी जोड़ रहा हूं। 30 वर्ष नौकरी में रहने के बाद उन्हें भी ऐलान करना पड़ रहा है कि चाहे कुछ हो जाए, वह अपनी बेटी को न्याय दिलाने के  लिए लड़ेंगे। ताकतवर लोगों के पास बेहिसाब पैसे और संसाधन होते हैं। वे यह लड़ाई हंसते-खेलते लड़ लेंगे और सिस्टम की गर्दन दबाकर जीत भी हासिल कर लेंगे लेकिन दूसरी तरफ खड़ा व्यक्ति एक जीत के लिए अपनी जिंदगी की जमा पूंजी आज से ही हारना शुरू कर देगा। असली लड़ाई वहां पर होनी है, मीडिया में नहीं। मीडिया के लिए तो हमारा राजनीतिक तंत्र कोई और इवैंट रच देगा जिसमें वॢणका के उठाए सारे सवाल उड़ जाएंगे। 

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