समाज में हिंसा की नींव क्या बचपन से पड़ जाती है

Saturday, Nov 24, 2018 - 03:36 AM (IST)

जब अपने आस-पास मामूली-सी बात का राई का पर्वत बन जाए, छोटी-सी घटना सामूहिक हिंसा का रूप ले ले या किसी व्यक्ति का बर्ताव अचानक अमानवीयता की हद पार कर जाए तो सोचना जरूरी हो जाता है कि ऐसा क्यों होता है? क्यों हम एकदम इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि क्रोध के वश में आकर हत्याएं करने तक से नहीं चूकते। भावनाओं को ठेस लगने के नाम पर आगजनी, तोडफ़ोड़ और विध्वंस करने लगते हैं, जो समाज में अफरा-तफरी और असुरक्षा का माहौल बना देता है।

जन्म से तो कोई अपराधी होता नहीं तो क्या गाली-गलौच, मारपीट, चोरी, डकैती और आपराधिक मनोवृत्ति की नींव बचपन में या युवावस्था में ही पड़ जाती है और अगर सही मार्गदर्शन न मिले तो जघन्य अपराध करने से भी हिचकिचाहट नहीं होती। एक उदाहरण है, कुछ वर्ष पहले एक डॉक्यूमैंट्री फिल्म बनाने के लिए पुरानी दिल्ली में घूमते हुए एक घर से जोर-जोर के स्वर सुनाई पड़े जिसमें एक पड़ोसी दूसरे से कह रहा था कि अगर उसने अपने बच्चों विशेषकर लड़की को पढऩे नहीं भेजा और मजदूरी करने या घर में रहने के लिए मजबूर किया तो वह उसकी जान ले लेगा। 

कौतूहल हुआ यह जानने का कि यह क्यों किसी अन्य के परिवार में दखलंदाजी कर रहा है तो पता चला कि वह बचपन में स्कूल जाने के नाम पर आवारागर्दी करता था जो उसे अपराध करने की तरफ ले गई और उसकी पूरी जिंदगी जेल और अदालत के चक्कर लगाने में बीत गई। इसी तरह एक बाल संस्था में एक ऐसा बच्चा मिला जो कश्मीर में पत्थरबाजी करता था और उसे यहां सुधारने के लिए लाया गया था। वह मानता था कि हिन्दू और मुसलमान कभी एक होकर नहीं रह सकते। हिन्दू और फौजी उसके दुश्मन हैं और उनसे सिर्फ नफरत करनी चाहिए। यह इसलिए था कि उसे बचपन से ही परिवार में ये सब बताया जा रहा था। 

दूर क्यों जाएं, एक छोटी-सी लड़की फूलन देवी बड़ी होते-होते कैसे एक खूंखार डाकू बन गई, यह किसी से छिपा नहीं। वह अपने साथ हुई ज्यादती और अत्याचार को सहन न कर पाने और उसका बदला लेने के लिए ही ऐसे काम करने लगी जो अपराध की श्रेणी में आते हैं। तो क्या यह समझा जाए कि जुर्म की राह या हिंसा के रास्ते पर चलने की सीख बचपन और जवानी में ही मिल जाती है? 

दोषी कौन है 
अब हम उस पारिवारिक हिंसा की बात करते हैं, जिस पर ध्यान न दिया जाए तो वह सामाजिक हिंसा में बदल जाती है और ऐसी समस्या बन जाती है कि कानून भी पनाह मांगने लगता है। परिवार में जब कोई एक व्यक्ति, जो अक्सर घर का मुखिया होता है, वह सभी सदस्यों का संरक्षक या सहयोगी होने की बजाय उनके साथ न केवल खुद अमानवीय तरीके से पेश आता है बल्कि अपने दोस्तों और रिश्तेदारों द्वारा बिना किसी कारण अपने ही घरवालों का अपमान किए जाने पर चुप रहता है, कभी-कभी उनका साथ भी देता है तो सोचिए उस परिवार के लोगों पर क्या मानसिक प्रभाव पड़ता होगा? 

परिवार में हिंसक व्यवहार होता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता। इसकी न कोई सुनवाई होती है और न कोई दलील काम आती है, केवल सब कुछ सहना होता है। अब होता यह है कि बड़े होते-होते यह सहनशीलता गायब हो जाती है और अगर कहीं खराब संगत मिल गई तो उसे सामाजिक समस्या बनने में देर नहीं लगती। पारिवारिक हिंसा कब सामाजिक या सामूहिक हिंसा में बदल जाती है, इसका पता ही नहीं चलता और जो सामने आता है वह विनाश का दृश्य होता है। अक्सर विपरीत अवस्था में पले-बढ़े दो लोग जब नौकरी या व्यापार में एक साथ काम करते हैं तो उनकी सोच या पसंद में अंतर देखने को मिलता है। कभी-कभी तो यह इतना ज्यादा होता है कि वे एक-दूसरे को नापसंद से लेकर आपस में अकारण ही नफरत करने लगते हैं जो बढ़ते-बढ़ते भारी समस्या बन जाती है जिसका सीधा असर कामकाज पर पड़ता है। 

तनाव से विनाश
अक्सर देखने में आता है कि तनाव के कारण सही निर्णय नहीं लिए जाते। यह परिवार में ही नहीं, प्रशासन से लेकर सरकार तक के निर्णयों में देखा जा सकता है। जब प्रशासन पर राजनीतिक दबाव होता है और उसके सामने इसे झेलते हुए जनहितकारी नीतियों को लागू करने की चुनौती होती है तो विवेक अगर तनावग्रस्त हो गया तो ऐसे-ऐसे नियम बना दिए जाते हैं जिनका पालन सम्भव ही नहीं होता। इसी तरह जब सरकार के कत्र्ताधत्र्ता यानी मंत्री और प्रधानमंत्री विभिन्न दबावों में होते हैं तो जल्दबाजी में नोटबंदी जैसा निर्णय ले लिया जाता है और जी.एस.टी. जैसे अच्छे कदम जनता की परेशानी का कारण बन जाते हैं। 

यह खोजबीन करना बहुत दिलचस्प होगा कि जो नेता इस तरह के फैसले लेते हैं और अव्यावहारिक नीतियां और कानून बनाने की पहल करते हैं, क्या उनका बचपन और यौवन तनावपूर्ण पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में तो व्यतीत नहीं हुआ? जो लोग भारत विभाजन के समय दंगों के साक्षी रहे हैं और बाद में सन् 84 के दंगे भी देखे हैं उनकी सोच उनसे अलग होगी जिन्होंने इस तरह के साम्प्रदायिक उन्माद की विभीषिका न झेली हो। घर के किसी सदस्य या जान-पहचान वाले के साथ मारपीट या उसकी हत्या तक का प्रत्यक्षदर्शी होना उस व्यक्ति की मन:स्थिति बदल सकता है। या तो वह इतना सहम जाएगा और इस प्रकार भयाक्रांत हो जाएगा कि जीवनभर उस घटना की कल्पना करता रहेगा अथवा इतना उग्र हो जाएगा कि हमेशा मरने-मारने और आक्रामकता की ही बात करेगा।

आक्रामकता विरोधी कानून
इसी कारण अनेक देशों में आक्रामकता विरोधी कानून भी बना दिए गए हैं और यदि कोई ऐसा करता है तो उसे सजा भी मिलती है। जिस तरह के हालात हमारे यहा हैं और कोई भी जरा-सी बात पर आक्रामक मुद्रा में आ जाता है तो उससे निपटने के लिए कानून बनाने की जरूरत है, ताकि सजा के डर से कोई समाज विरोधी काम न करे। अक्सर देखा गया है कि अमूमन शांत रहने वाला समाज तब ही झगड़ालू बनता है और हिंसा का रास्ता अपनाता है जब उसके साथ किसी भी स्तर पर भेदभाव किया जाता है। यह शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। 

जिस तरह परिवार में पालन पोषण से लेकर विवाह तक में जोर-जबरदस्ती और भेदभाव होने का परिणाम नकारात्मक होता है उसी तरह सरकार का नागरिकों के साथ अनुचित व्यवहार और भेदभाव करने का नतीजा हमेशा विद्रोह और अराजकता के रूप में सामने आता है। हमारे नेता चाहे किसी भी दल के हों, यह जरा-सी बात समझ लें तो अनेक विवादों का हल बिना किसी नुक्सान के निकल सकता है। यह चाहे राम जन्मभूमि विवाद ही क्यों न हो, अगर थोड़ी-सी समझदारी से काम लिया जाता तो बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने से बचा जा सकता था और अब तक शांतिपूर्ण ढंग से अयोध्या में मंदिर बनाने का रास्ता प्रशस्त भी हो गया होता। राम मंदिर का निर्माण तो बहुत दूर की बात है, वर्तमान अवस्था में तो रामलला के टैंट से बाहर निकलने और भव्य राम मंदिर में विराजमान होने की संभावना दिखाई नहीं देती। 

निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि जब मन में संशय हो और कोई रास्ता तुरंत न सूझे तो ऐसे में उस मामले पर तुरंत प्रतिक्रिया करने और कार्रवाई को कुछ समय के लिए टाल दिया जाना चाहिए। इससे सद्भाव बना रहेगा और कटुता से बचा जा सकेगा। इसी प्रकार परिवार में मुखिया अपने अहम और रूखे व्यवहार को तिलांजलि दे दे तो इसका प्रभाव पूरे परिवार के सदस्यों पर सकारात्मक होगा और वे जीवन में कभी भी हीन भावना और आक्रामकता के शिकार नहीं बनेंगे।-पूरन चंद सरीन

Pardeep

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