क्या नेहरू वाकई कश्मीर मामले से गलत ढंग से निपटे

Sunday, Jul 07, 2019 - 05:09 AM (IST)

अजीब बात है कि उनके निधन के लगभग 50 वर्ष बाद यह प्रश्र पूछा जा रहा है कि ‘क्या नेहरू कश्मीर समस्या से गलत ढंग से निपटे या उन पर अनुचित दोष लगाया जा रहा है?’ चूंकि अमित शाह ने मुद्दे को उठाया है तो मैं एक उत्तर देने का प्रयास करता हूं। हालांकि मैं केवल उन मुद्दों पर केन्द्रित रहूंगा जो कांग्रेस तथा भाजपा के बीच विवाद के बिंदू बने हैं। 

युद्ध विराम का निर्णय
पहला, अमित शाह ने दावा किया है कि नेहरू ने 1948 में युद्धविराम की गलत घोषणा की थी और परिणामस्वरूप भारत ने राज्य का एक-तिहाई हिस्सा गंवा दिया। इसको उन अपुष्ट रिपोर्टों से बल मिलता है कि जनरल करियप्पा, जो लड़ाई के प्रभारी कमांडर थे, युद्धविराम के निर्णय से असहमत थे। वह महसूस करते थे कि यदि सेना को 3 सप्ताह का और समय दे दिया जाता तो भारत फिर से सारे जम्मू-कश्मीर को हासिल कर लेता। 

यद्यपि युद्धविराम बारे केवल जनरल निर्णय नहीं लेते। 1948 में इसका आदेश देने के लिए नेहरू के सामने 3 अच्छे कारण थे। उन पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव था, विशेषकर अमरीका की ओर से, जिसका सामना एक वर्ष पुराने देश के लिए करना कठिन था। इतना ही महत्वपूर्ण यह था कि युद्धविराम रेखा के पार इलाका तथा सामरिक किले बंदी पाकिस्तान के ज्यादा पक्ष में थी जबकि हमारी सेना को पाकिस्तानी सेना का सामना करना पड़ा न कि पठान लश्कर का। दूसरा आरोप यह है कि नेहरू कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में ले गए। कुछ लोग ही इससे असहमत होंगे कि यह एक खराब निर्णय साबित हुआ। यहां तक कि समकालीन उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने भी इसके खिलाफ सलाह दी थी। 

हालांकि मामले को देखने का एक अन्य नजरिया भी है। नेहरू मैमोरियल म्यूजियम एवं लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक मृदुला मुखर्जी का कहना है कि यदि भारत संयुक्त राष्ट्र में नहीं जाता तो पूरी सम्भावना थी कि पाकिस्तान ऐसा करता। नेहरू को पहले ही यह सुनिश्चित करने की जरूरत थी कि हमारा मामला एक ‘पीड़ित’ के तौर पर सुना जाता न कि कथित ‘हमलावर’ के तौर पर। 40 के दशक के अंत में कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना एक उच्च विचार तथा नेक इरादे के तौर पर भी देखा गया था। यह शीत युद्ध शुरू होने से पहले था और इसलिए यह समझना असम्भव था कि भारत विघटनकारी राजनीति में उलझ जाएगा। 

धारा 370 का मामला
तीसरा आरोप यह है कि नेहरू ने कश्मीर को धारा 370 के जरिए भारतीय संघ के साथ जोड़ा और उस तरह से राज्य का पूरी तरह से विलय नहीं किया गया जैसे कि अन्य रजवाड़ों का किया गया था। उनके समर्थक इस आधार पर इसका बचाव करते हैं कि उस समय कश्मीर में स्थितियां अलग थीं। उनका कहना है कि कश्मीर को केवल 3 मुद्दों रक्षा, विदेशी मामले तथा संचार की शर्त पर भारत में मिलाया जा सका मगर यह प्रत्येक अन्य राज्य के मामले में भी सच है। आखिरकार विलय के लिए आधार एक समान था। दूसरे, विलय 1947 में करवाया गया जबकि धारा 370 संविधान में 1949 में शामिल की गई। अत: क्या आप वास्तव में पहले वाली शर्त को तर्कसंगत ठहरा सकते हैं? 

सच यह है कि धारा 370 अस्थायी रूप से लागू करने का इरादा था और यह परिवर्तनशील थी लेकिन चूंकि कश्मीरी संविधान सभा अपने भंग होने से पहले इसके निराकरण बारे प्रस्ताव करने में असफल रही इसलिए अब इसे स्थायी माना जाता है। निश्चित तौर पर यह नेहरू, जो कश्मीर के विलय के बाद 17 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे, पर निर्भर करता था कि वह सुनिश्चित करते कि धारा 370 समाप्त की जाए तथा कश्मीर का पूरी तरह से भारत में विलय किया जाए न कि इसका विशेष दर्जा जारी रहने दिया जाता। कम से कम मुझे इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। 

जनमत संग्रह
चौथा आरोप यह है कि नेहरू ने जानबूझ कर कश्मीर के विलय के साथ जनमत संग्रह की शर्त जोड़ दी। अमित शाह ने यह मुद्दा राज्यसभा में उठाया मगर जैसे कि मृदुला मुखर्जी का कहना है, यह ठीक वैसे ही था जैसे सरदार पटेल ने जूनागढ़ का विलय करवाया था। उस मामले में मुस्लिम शासक भारत के साथ एक ङ्क्षहदू राज्य को नहीं मिलाना चाहता था। कश्मीर के मामले में एक हिंदू शासक ने भारत के साथ एक मुस्लिम राज्य का विलय किया मगर विलय के निर्णय के साथ लोगों की इच्छाएं एक समान थीं। 

अंतत: बहुत से लोगों का मानना है कि नेहरू के निर्णयों पर उनके कश्मीर के साथ निजी लगाव की छाया थी। यह उनकी सबसे बड़ी खामी हो सकती है, मगर क्या भाजपा इसे अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं कर रही? और ऐसा करके कौन-सा अर्थपूर्ण उद्देश्य हासिल किया जा सका है? एक ऐसे समय में जब आपको घाटी में शांति की अत्यंत जरूरत है, यह खतरनाक तरंगें पैदा कर रहा है। इससे संसद में अच्छी संख्या हासिल की जा सकती है लेकिन यह अदूरदर्शी तथा मूर्खतापूर्ण है।-करण थापर

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