क्या भारत के अफगानिस्तान में कूटनीतिक हित हैं

Sunday, Jun 05, 2022 - 06:32 AM (IST)

अफगानिस्तान पर हाल ही में क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कहा, ‘‘भारत अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण हितधारक था और है। सदियों से अफगानिस्तान के लोगों के साथ विशेष संबंध भारत के दृष्टिकोण का मार्गदर्शन करेंगे, इसमें कुछ भी नहीं बदल सकता।’’

रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि भारत अफगान लोगों के साथ खड़ा है और बताया कि अगस्त 2021 से, भारत ने पहले ही 17,000 मीट्रिक टन गेहूं (50,000 मीट्रिक टन की कुल प्रतिबद्धता में से), कोवैक्सीन की 5,00,000 खुराकें, 13 टन जीवन रक्षक दवाएं और सर्दियों के कपड़े और पोलियो वैक्सीन की 60 मिलियन खुराकों का योगदान दिया है। 

यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन यह अभी भी मूल प्रश्न का उत्तर नहीं देता है, जो 1979 से खड़ा है, जब अफगानिस्तान सोवियत संघ को गिराने के लिए एक बार फिर युद्ध का मैदान बन गया था और कम्युनिस्ट प्रतिमान को विस्तार देकर या भारत के विभाजन तक और भी पीछे खींच रहा था। उस विभाजन के बाद भारत के अफगानिस्तान में कौन से सामरिक हित हैं? 

यह ‘विशेष संबंध’ क्या है जो भारत का अफगानिस्तान के साथ सदियों से रहा है। उत्तर सीधा है- कोई भी नहीं। यह भारत में 10वीं से 17वीं शताब्दी के बीच हुए 70 से अधिक आक्रमणों का प्रवेश द्वार रहा है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, सिकंदर महान द्वारा 321 ईसा पूर्व के समय के भारत पर 200 से अधिक बार हमला किया गया था और अंग्रेजों को छोड़कर लगभग सभी आक्रमणकारी खैबर दर्रे से आए थे। 

एकमात्र समय, जब भारत कुछ समय के लिए अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों पर कब्जा करने में सक्षम था, जब सरदार हरि सिंह नलवा के कुशल नेतृत्व में महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने 1807 में कसूर की लड़ाई से शुरू होकर अफगानों पर हार की एक शृंखला को अंजाम दिया और परास्त किया, जिसका अंत  1836 में जमरूद की लड़ाई से हुआ, जहां हरि सिंह नलवा अफगानी चालबाजी में शहीद हो गए थे। 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया और 1846 तक सिख साम्राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। 

1839 से 1841 तक प्रथम एंग्लो-अफगान युद्ध में निर्णायक रूप से पराजित होने के बाद, ब्रिटिश क्रमश: 1878 और 1919 में दूसरे और तीसरे अफगान युद्धों में अपनी जीत के बाद अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ व्यवस्था पर मामूली प्रभाव डालने में सफल हुए। इसलिए यह स्पष्ट प्रश्न है कि क्या भारत और अफगानिस्तान के बीच कोई सभ्यतागत संबंध हैं, या यह एक मिथक है, जिसे हमने अपने इस्तेमाल के लिए बनाया है? 

तथ्य यह है कि भारत 1979 से अफगानिस्तान में एक बहुत छोटा खिलाड़ी रहा है। अगस्त 2021 में 2 दशकों से अधिक समय तक क्रूरता करने के बाद अमरीकियों और पश्चिम ने अफगानिस्तान तालिबान को वापस सौंपने का फैसला करने के बाद इस वास्तविकता को और बढ़ा दिया है। ठंडी सच्चाई यह है कि पश्चिम ने राष्ट्रीय पुनॢनर्माण में 20 साल की प्रगति को पीछे लौटाने सेे पहले एक पलक भी नहीं झपकाई, विशेष रूप से अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों और अन्य मौलिक स्वतंत्रता के संबंध में, जहां अकेले अमरीका ने 2001 से 2.3 ट्रिलियन अमरीकी डालर खर्च किए थे। यह सब से ऊपर अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देने के बारे में है। 

संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में भारत विरोधी जेहादी समूहों के पाकिस्तान में अपनी प्रशिक्षण उपस्थिति का विस्तार करने की बात कही गई है विश्लेषणात्मक समर्थन और प्रतिबंध निगरानी टीम की 13वीं रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्य का हवाला देते हुए कहा गया है कि जेईएमए एक देवबंदी समूह जो वैचारिक रूप से तालिबान के करीब है। नंगरहार में प्रशिक्षण शिविर, जिनमें से तीन सीधे तालिबान के नियंत्रण में हैं। 

हालांकि यह विकास अप्रत्याशित से बहुत दूर है, खासकर जब पश्चिम द्वारा अफगानिस्तान तालिबान को वस्तुत: ‘उपहार’ स्वरूप दिया गया। यह देखते हुए कि नई अफगान सरकार में प्रमुख सुरक्षा विभागों को हक्कानी नैटवर्क द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसमें आंतरिक, खुफिया, पासपोर्ट और प्रवास और शरणार्थी पुनर्वास मंत्रालय शामिल हैं, यह उन्हें जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोयबा जैसे अपने भ्रातृ सहयोगियों के साथ खेलने के लिए लचीलापन देता है। 

ऐसे में भारत के पास क्या विकल्प हैं? यह निश्चित रूप से तालिबान को मान्यता दे सकता है और बदले में गारंटी ले सकता है कि अफगानिस्तान भारत विरोधी समूहों के लिए एक अभयारण्य नहीं बनेगा। हालांकि, यह देखते हुए कि दिल्ली में सरकार के निश्चित तौर पर गहरे ‘धार्मिक पूर्वाग्रह’ हैं, क्या वे कैलिब्रेटेड मान्यता के लिए बड़े राष्ट्रीय हित में सुरक्षा गारंटी का व्यापार करने के इच्छुक होंगे? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर उन्हें गंभीरता से विचार करना चाहिए।-मनीष तिवारी
 

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