यूरोप से तलाक लेकिन ब्रिटेन आशामयी भविष्य की ओर अग्रसर

Friday, Mar 31, 2017 - 01:19 AM (IST)

ब्रिटेन के इतिहास में बुधवार 29 मार्च, 2017 के दिन का उल्लेख किसी सुखद यादगार के तौर पर नहीं किया जाएगा। इस दिन प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने यूरोपियन यूनियन (ई.यू.) से ब्रिटेन के संबंध तोडऩे के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। इस तरह यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम के 40 वर्ष पुराने रिश्ते समाप्त करने की प्रक्रिया का विधिवत प्रारंभ हो गया। तलाक की इस कार्रवाई को पूर्ण होने में 2 वर्ष लगेंगे। इस दौरान ब्रिटेन ई.यू. का सदस्य तो बना रहेगा लेकिन उस आन-बान के साथ नहीं जिसकी वजह से वह यूरोप और विश्व भर की राजनीति पर अनोखी शान के साथ छाया हुआ था। 

लेकिन देश में निराशा का वातावरण नहीं है। भविष्य के प्रति आशा और चुनौतियों का मुकाबला करने का निश्चय है। 23 जून 2016 को ब्रिटेन की जनता ने एक रैफरैंडम द्वारा ई.यू. को छोडऩे के पक्ष में वोट दिया था। रिश्ता बनाए रखने या उसे तोड़ देने के लिए वोटों का अंतर कोई ज्यादा नहीं था लेकिन परिणाम निकलने के बाद देश भर में जो भीषण प्रतिक्रिया हुई वह गहरे पश्चाताप की थी। कितने ही जोरदार प्रदर्शन हुए, करोड़ों लोगों ने याचिका दी कि इस परिणाम को रद्द किया जाए, दोबारा रैफरैंडम करवाया जाए, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। 

यूरोप के जिन प्रमुख देशों ने मिलकर 1957 में जब इस संस्था की स्थापना की, ब्रिटेन उनमें शामिल नहीं था। बाद में इसका सदस्य बनने के लिए इसने 2 बार कोशिश की लेकिन फ्रांस के उस वक्त के शक्तिशाली प्रधान जनरल डी’गाल ने दोनों बार ब्रिटेन के आवेदन को वीटो कर दिया। फ्रांसीसी और ब्रिटिश लोगों के दिलों में वैसे भी एक-दूसरे के प्रति परम्परागत दूरियां हैं। जर्मन लोगों के साथ भी मामला कुछ ऐसा ही है। दिलों की यही दूरियां ही परोक्ष रूप से ब्रिटेन के ई.यू. से निकलने का सबब भी बनी हैं। अब यूरोपियन कौंसिल के प्रधान कह रहे हैं कि ब्रिटेन को खोने का हमें खेद है, हमें उसकी कमी महसूस हो रही है। 

ब्रिटेन जितनी देर भी ई.यू. का सदस्य रहा उसका अनुभव कोई बहुत सुखद नहीं रहा। देश में जिस भी पार्टी की सरकार रही, कंजर्वेटिव या लेबर, किसी भी प्रधानमंत्री को न तो ई.यू. से और न ही स्वयं ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के एक प्रभावशाली वर्ग से वह सहयोग मिला जो उनके लिए इस महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी भूमिका सही ढंग से निभाने के लिए आवश्यक था। 1973 में देश ई.यू. का अभी सदस्य बना ही था कि विरोध शुरू हो गया जिसे शांत करने के लिए दो वर्ष के अंदर ही रैफरैंडम द्वारा तय करवाया गया कि ब्रिटेन को यूरोप का अंग बना रहना चाहिए। लेकिन कशमकश फिर भी जारी रही, जिसे खत्म करने के उद्देश्य से तब के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को मजबूर होकर फिर रैफरैंडम का रास्ता अपनाना पड़ा। 

अब ब्रिटेन को जिस स्थिति का सामना है, वह कठिनाइयों से भरपूर है। रैफरैंडम के बाद इसे यूरोप से जो व्यापारिक एवं राजनीतिक क्षति हुई है उसकी पूर्ति के लिए उसने अभी तक जितने भी प्रयत्न किए हैं उनमें कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। थेरेसा मे और विदेशमंत्री बोरिस जॉनसन ने कई देशों के चक्कर काटे हैं लेकिन किसी ने भी तब तक कोई व्यापार समझौता करने की हामी नहीं भरी जब तक कि ब्रिटेन के यूरोप से निकलने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती। 

एक गुप्त रिपोर्ट से भेद खुला है कि ई.यू. ने अंदरूनी तौर पर फैसला किया है कि इसके बाकी 27 सदस्य देशों में से कोई भी ब्रिटेन के साथ व्यापार अथवा किसी अन्य प्रकार की संधि न करे जब तक कि तलाक की कार्रवाई पूरी तरह मुकम्मल नहीं हो जाती। ऐसी बातों से उत्पन्न होने वाली निराशाजनक स्थिति में देश की जनता के मनोबल को बनाए रखने और भविष्य के प्रति उनकी आशा और उत्साह को क्षीण होने से बचाए रखना इस वक्त देश की प्राथमिकता है। 

कठिनाइयों से उभरना इस जाति की सदा विशेषता रही है। इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है जब घोर निराशा की घडिय़ों में भी अंग्रेजों ने हिम्मत नहीं छोड़ी। यूरोप से निकलने के लिए क्या किया जाना है और उसके लिए कैसे प्रबंधों की आवश्यकता होगी, इसके लिए ब्रिटेन और ई.यू. के बीच अब कठोर वार्तालाप और बैठकों के दौर चलेंगे। सौदेबाजी में इस जाति का कोई मुकाबला नहीं।

जिन ब्रिटिश नेताओं के ऊपर यूरोप से वार्तालाप की जिम्मेदारी है उन्हें प्रमुख समाचारपत्र ‘द टाइम्स’ ने मशविरा दिया है कि शर्तें तय करते वक्त यूरोप के प्रतिनिधियों पर साबित कर दो कि हम यह बाजी जीत चुके हैं। थेरेसा मे ने कहा है कि यूरोप के साथ रिश्ते नए सिरे से तय करने के लिए हमारे पास अब एक ऐतिहासिक अवसर है। लोगों से एकता और संगठन की अपील करते हुए उन्होंने कहा कि हम एक उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं।

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