विनिवेश प्राथमिकता नहीं रहा या इसे रोक दिया गया है

punjabkesari.in Wednesday, Feb 07, 2024 - 05:45 AM (IST)

ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था के गैर-रणनीतिक क्षेत्रों में विनिवेश के भारत के बाजार-आलिंगन प्रयास सरकार की नीतिगत प्राथमिकताओं की सूची से नीचे गिर गए हैं। इसने 2023-24 में अब तक हिस्सेदारी बिक्री के माध्यम से केवल 12,504 करोड़ रुपए जुटाए हैं, जबकि बजट 51,000 करोड़ रुपए था। केवल दो महीने शेष रहते हुए, उस अंतर को पाटना एक कठिन कार्य होगा। विशेष रूप से यह वर्ष कोई अपवाद नहीं है, डाटा विनिवेश लक्ष्यों में लगातार गिरावट की ओर इशारा कर रहा है। 

2020-21 तक नरेंद्र मोदी सरकार के अंतर्गत पहली बार चढऩे के बाद, हिस्सेदारी बेचने के लिए निर्धारित लक्ष्य लगातार तीन वर्षों तक गिर गए- एक प्रवृत्ति मार्कर। और 2017-18 तथा 2018-19 को छोड़कर, सभी वर्षों में, हिस्सेदारी बिक्री से वास्तविक कमाई उनके बजट अनुमान से बड़े अंतर से कम रही। यह सरकार के ‘काम करते हुए कोई और काम नहीं’ रुख के विपरीत है, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते रहे हैं। मोदी ने 2022 में कहा, ‘‘इसका काम गरीबों के लिए भोजन के बारे में सोचना, उनके लिए घर और शौचालय बनाना, उन्हें पीने का साफ पानी उपलब्ध कराना, उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना, सड़कें बनाना, छोटे किसानों के बारे में सोचना है।’’ हालांकि, केंद्र द्वारा चलाए जा रहे व्यवसायों से निष्कासन उचित तात्कालिकता को प्रतिबिंबित नहीं करता। 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि विनिवेश कहने में जितना आसान है, करना उतना आसान नहीं क्योंकि यह नियामकीय मंजूरी से लेकर श्रम संबंधों तक की बाधाओं से भरा है। लेकिन इस सरकार से, अपनी संसदीय ताकत और सुधार-अनुकूल रुख के साथ, उस एजैंडे को गति देने की उम्मीद थी। प्रगति, दुर्भाग्य से, बेवजह धीमी रही है। राजनीतिक गणना ने एक भूमिका निभाई हो सकती है। ‘राज्य रत्नों’ को दिए जाने पर विपक्षी आलोचनाओं के बीच, इस रास्ते पर प्रतिरोध बढ़ सकता था। इसके अलावा, बाजार इस नीति को अपनाता है, जो राजनीति की वेदी पर बलिदान के लिए एक अजीब उम्मीदवार की तरह प्रतीत होती है। फिर भी, शायद तर्क को बेहतर ढंग से पेश करने की जरूरत है। 

जबकि बिकवाली स्पष्ट रूप से राजकोषीय अंतराल को पाटने में मदद करती है, इस विचार को इसके बड़े आॢथक लाभों के आधार पर आंका जाना चाहिए। किसी अर्थव्यवस्था में निजी भागीदारी अधिक दक्षता के साथ बढ़ती है, क्योंकि बाजार में प्रतिस्पर्धा और निवेशक विविधीकरण का बोलबाला होता है। एयर इंडिया की तरह, राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का निजीकरण भी इसी उद्देश्य को पूरा करेगा। यहां तक कि एल.आई.सी. की तरह बाजार अनुशासन के प्रति उनका प्रदर्शन भी प्रबंधन प्रोत्साहन को बेहतरी के लिए बदल सकता है और जैसे-जैसे अधिक कंपनियां प्रतिस्पर्धी होंगी, यह पूरी अर्थव्यवस्था के पक्ष में होगा। 

नई दिल्ली के लिए एक प्रलोभन केवल उन इकाइयों को बेचना है, जो कारगुजारी नहीं दिखा रहीं, तथा लाभ देने वालियों को अपना पास रखना है। वर्ष 2023-24 में इसने कर संग्रह में उछाल दिया तथा वित्तीय फिसलन पर लगाम की तरह काम किया। लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था के लाभ में जो चीज मायने रखती है, वह है राज्य द्वारा कुछ वाणिज्यिक स्थान छोडऩा। इसके लिए आधारभूत स्थिति सम्मिश्रण है- भारतीय संपत्तियों के लिए निजी मांग को मजबूत करना तथा कोविड के कारण हमारे वित्तीय विस्तार पर रोक लगाने के बाद सार्वजनिक पर नकेल डालना। और जहां उच्च बिक्री कीमतों पर शिकंजा कसना अच्छा है, वहीं संपत्तियों को कम कीमत पर बेचने को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, यदि वे कमजोर निवेशकों को आकर्षित करती हों।

हैरानी होती है कि हमारा कार्यक्रम ढीला क्यों पड़ गया। यदि यह पूरी तरह से पिछड़ नहीं गया, तो भटक जरूर गया है। सुधारों के मद्देनजर हम आशा कर सकते हैं कि यह मात्र एक ठहराव है, नीतिगत जोर के तौर पर इसकी कीमत पर पुनॢवचार करने का संकेत नहीं है। यहां तक कि अंतरिम बजट भी इसके लिए एक बेहतरीन मंच नहीं हो सकता, सरकार के लिए अच्छा होगा कि वह उसे लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट करे और आगे की रूपरेखा तैयार करे।


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