प्रारूप ‘शिक्षा नीति’ में निजी शिक्षण संस्थानों से भेदभाव

Thursday, Jul 25, 2019 - 03:41 AM (IST)

एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जारी तथा लागू होने के लगभग 35 वर्ष बाद भारत सरकार अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के साथ आगे आई है। इसका अंतिम रूप काफी हद तक देश के भविष्य का निर्धारण करेगा। 

वर्तमान नीति, जिसे 1986 में लागू किया गया था, का लक्ष्य शिक्षा का वैश्वीकरण तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में ग्रैजुएशन (स्नातक स्तर की पढ़ाई) के लिए छात्रों के पंजीयन व उपस्थिति को बढ़ावा देना था। नतीजतन व्यावसायिक संस्थानों सहित देश भर में उच्च शिक्षण संस्थानों का प्रसार हुआ। परिणाम यह हुआ कि वर्तमान में 900 यूनिवर्सिटी सहित डिग्री देने वाले 1000 से अधिक संस्थान हैं, जिनमें से लगभग 355 निजी क्षेत्र के अंतर्गत हैं। शिक्षा प्रणाली में भी बदलाव किया गया और 10+2+3 प्रणाली लागू की गई। 

जहां इसके कारण साक्षरता दर और सुविधाहीनों तक शिक्षा फैलाने के मामलों में सुधार हुआ, वहीं कालेजों, विशेषकर इंजीनियरिंग कालेजों के अंधाधुंध फैलाव के कारण शिक्षा के स्तर में गिरावट भी आई। अंतत: परिणाम यह निकला कि ऐसे लगभग आधे कालेज या तो बंद हो गए या उनके द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही घटिया स्तर की शिक्षा के कारण घाटे में चल रहे हैं। हमें नई नीति बनाने के लिए पहले वाली शिक्षा नीति से सबक लेने की जरूरत है। 

नई शिक्षा नीति का उद्देश्य
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का उद्देश्य उच्च शिक्षा प्रणाली का कायापलट करना, देश भर में विश्व स्तर के बहुविषयक उच्च शिक्षण संस्थानों की स्थापना करना तथा 2035 तक सकल पंजीयन दर को बढ़ाकर कम से कम 50 प्रतिशत तक करना है। इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि शिक्षा अच्छी तरह से तराशे हुए रचनात्मक व्यक्ति विकसित करे, जिनमें मजबूत नैतिक मूल्यों के साथ समझदारीपूर्वक उत्सुकता तथा सेवा की भावना हो। नई नीति के अंतर्गत उल्लेखनीय नीति निर्णय प्राथमिक, माध्यमिक, सैकेंडरी तथा ग्रैजुएट स्तरों पर  शिक्षा की 5+3+3+4 प्रणाली को लागू करना है। इस तरह से ग्रैजुएशन वर्तमान में 3 वर्षों की बजाय 4 वर्षों की होगी। यह मुख्य रूप से वैश्विक मानदंडों को प्राप्त करने के लिए है। हालांकि 3 वर्षों बाद इसे छोडऩे का प्रावधान होगा। जहां मसौदा नीति के कुछ तत्व प्रशंसनीय तथा स्वागतयोग्य हैं, वहीं इसमें उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने को बहुत कुछ बाकी है। 

यहां तक कि नई मसौदा नीति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निजी तथा सरकारी विश्वविद्यालयों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा, सिवाय सरकारी विश्वविद्यालयों में स्व-वित्तपोषण के। तथ्य यह है कि निजी संस्थानों को बराबर के अवसर नहीं दिए जा रहे। ये विश्वविद्यालय नैशनल रिसर्च डिवैल्पमैंट फंड के प्रतिस्पर्धात्मक पूल के लिए प्रतिस्पर्धा हेतु सक्षम होंगे लेकिन उन पर कई बाध्यताएं लागू की जा रही हैं, जो सरकार संचालित संस्थानों के लिए प्रस्तावित नहीं हैं।

परोपकारी की भूमिका
उदाहरण के लिए निजी विश्वविद्यालयों को 50 प्रतिशत विद्यार्थियों को निशुल्क अध्यापन उपलब्ध करवाकर परोपकारी की भूमिका निभाने का निर्देश दिया जाएगा, जिनमें से प्रत्येक विषय में 20 प्रतिशत विद्याॢथयों को अध्यापन शुल्क में 100 प्रतिशत की छूट मिलेगी। इस शुल्क में बोॄडग शुल्क भी शामिल होंगे। बाकी 30 प्रतिशत के लिए यह छूट 25 से 100 प्रतिशत के बीच होगी। यह नए स्थापित निजी विश्वविद्यालयों के लिए नुक्सानदायक होगा। यद्यपि विश्वविद्यालयों को अपनी खुद की फीस निर्धारित करने का लालच दिया गया है लेकिन यदि यह धारा लागू की जाती है तो शुल्क में 80 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है। यह अन्य उन सभी विद्यार्थियों को प्रभावित करेगा जिन्हें बोझ सहना पड़ेगा और अधिक अध्यापन शुल्क चुकाना पड़ेगा। 

आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के विद्यार्थियों की मदद के लिए यह एक प्रशंसनीय कदम है लेकिन सरकार को निजी संस्थानों के लिए आसान शर्तों पर ऋणों की भी व्यवस्था करनी चाहिए। अभी तक इनके साथ वाणिज्यिक उधार लेने वालों की तरह व्यवहार किया जा रहा था जिसमें ब्याज 12 से 15 प्रतिशत तक था। हाल ही में स्थापित किए गए कुछ निजी विश्वविद्यालय बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं और विश्वविद्यालयों से बेहतर कारगुजारी दिखा रहे हैं लेकिन यदि मसौदा प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाते हैं तो उन्हें बहुत चोट पहुंचेगी। 

फीस में छूट का दबाव
निजी विश्वविद्यालयों में फीस में छूट के भारी दबाव की ऐसी धारा ही मसौदा नीति के खिलाफ है, जो निजी तथा सरकारी विश्वविद्यालयों में कोई भेदभाव न करने की वकालत करती है। सभी संस्थानों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए क्योंकि सभी विश्वविद्यालय, चाहे वे निजी हों अथवा सरकारी, स्व-वित्तपोषित अथवा निजी कोष वाले, देश के विकास तथा अर्थव्यवस्था में सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन पर परोपकार नहीं थोपा जाना चाहिए, जो अव्यावहारिक है। निजी विश्वविद्यालयों को अपने खुद के शुल्क निर्धारित करने की इजाजत देने वाली धारा सामाजिक कल्याण के वेश में शुल्क ढांचे में असंतुलन पैदा करने जा रही है। इसलिए इस पर पुनॢवचार करने और चरणबद्ध तरीके से गरीबों के हित में इस पर काम करने की जरूरत है। अन्यथा यह अन्यायपूर्ण और यहां तक कि गैर-कानूनी तथा निम्र मध्यम वर्ग के लिए निर्दयी होगा। 

मसौदा नीति में एक अन्य प्रमुख खामी शोध की ओर ध्यान का अभाव है। यह केन्द्रीय मानव संसाधन विभाग द्वारा लागू रैंकिंग की वर्तमान प्रणाली का एक अभिशाप है। जहां यह शोध मानदंडों के लिए केवल 30 प्रतिशत अंक देता है, वहीं शोध को 60 प्रतिशत महत्व दिया जाता है। इसलिए विश्व की 200 शीर्ष रैंक वाली संस्थाओं में भारत का कोई भी संस्थान नहीं है। शोध को प्रोत्साहन देने की अत्यंत जरूरत है। इन निजी विश्वविद्यालयों में से कुछ, जैसे कि हिमाचल स्थित शूलिनी विश्वविद्यालय, भारत में नीची रैंकिंग मिलने के बावजूद शोध मानदंडों पर शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। 

बेहतर ग्लोबल रैंकिंग्स उच्च शिक्षा के लिए विदेशों से भी विद्यार्थियों को आकर्षित करेंगी। भारतीय विद्याॢथयों सहित ये सभी के लिए लाभकारी होंगी और अधिक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन का कारण बनेंगी। ऐसे सुधारवादी कदम वैश्विक समुदाय में भारत के प्रति नजरिए में सुधार लाने में मदद करेंगे। प्रस्तावित नई नीति विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के साथ-साथ देश के विकास पर दूरगामी असर डालेगी। अंतिम रूप दिए जाने से पहले नई नीति पर सभी स्तरों पर व्यापक चर्चा की जरूरत है।-विपिन पब्बी
 

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