पुराने तरीकों से नहीं सुधरेंगी धर्मनगरियां

Sunday, Jul 23, 2017 - 10:48 PM (IST)

योगी सरकार उत्तर प्रदेश की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रुचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वह सब कुछ करने को तैयार हैं। 

धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोद्धार या सौंदर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत हैं। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाएं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना। इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरुचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता होती है, प्राय: उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाईओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण में वह बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। 

कारण यह है कि सड़क, खडंज़े की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डी.पी.आर. बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पाते होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढ़ाया है या इन पुरातन शहरों में माचिस के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिए हैं। नतीजतन यह सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। माना कि विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। 

भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं जबकि उत्तर प्रदेश में आज भी पुराने तरीकों से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप। पिछले हफ्ते जब मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को ब्रज के बारे में पावर प्वाइंट प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाइन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्प्लीमैंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। 

निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाइन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थ स्थलों के विकास की योजनाएं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जाएगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाएं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जाएंगी। गलत लोगों से नक्शे बनवाए जाएंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाएं लागू करवाई जाएंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश होगा, विकास नहीं। पिछले 3 दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। 

सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी भले इंसान हैं, संत हैं और पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आए हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं  जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। ऐसे में भगवान ही मालिक हैं कि क्या होगा? चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी उद्देश्य रहा है, इसलिए संघ नेतृत्व को चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निर्धारित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाएं और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाएं। 

नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किए बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गए छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढऩे देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी ऐसा कर पाएंगे, यह आसान नहीं क्योंकि ‘रांड सांड, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी’।    

Advertising