जम्मू-कश्मीर का घटनाक्रम डर पैदा करता है

punjabkesari.in Wednesday, Jul 10, 2024 - 05:45 AM (IST)

जम्मू और कश्मीर से लगातार जो खबरें आने लगी हैं, वे चिंता से भी ज्यादा डर पैदा करती हैं। डर इस बात का नहीं है कि हमारी फौज के जवानों का हौसला पस्त होगा या हमारी सरकार ही कमजोर पड़ जाएगी और आतंकियों तथा उनके पीछे बैठे उनके पाकिस्तानी आकाओं का हौसला इतना बढ़ जाएगा कि वे हमें लंबे समय तक भारी परेशान कर देंगे, बल्कि जो कुछ हो रहा है वह इतना तो बताता ही है कि आतंकियों ने हथियार नहीं डाले हैं, पाकिस्तान से घुसपैठ हो रही है, पाकिस्तान से मदद जारी है और हमारे अपने कश्मीरी समाज से आतंकियों को मदद मिले न मिले लेकिन हमारे खुफिया तंत्र को उनसे जरूरी सूचनाएं नहीं मिल रहीं। 

ऐसा जान-बूझकर हो रहा है या फौजी उपस्थिति का दबदबा और खौफ लेकिन खुफिया सूचनाओं में फौजी तंत्र को पर्याप्त फीड नहीं है, तभी हमले हो रहे हैं। कठुआ के बनडोटा गांव के पास आतंकियों ने जिस तरह घात लगाकर फौजी वाहन पर हमला किया और 5 जवानों को मारने के साथ ही अनेक को घायल कर दिया, उसमें उनको एक स्थानीय आतंकी का पूरा सहयोग मिलने की बात सामने आ रही है। पर उससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस बार घाटी से भी ज्यादा वारदातें जम्मू इलाके में हो रही हैं। अकेले जून में ही चार बड़ी वारदातें जम्मू इलाके में हो चुकी हैं। मई में तो वायु सेना के दो हैलीकाप्टरों तक को निशाना बनाया गया, जिसमें एक जवान की मौत भी हुई। कठुआ के ही हीरन नगर में सेदा सोहल गांव में जब फौज और आतंकियों की मुठभेड़ हुई तो केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल का एक जवान और दो आतंकी मारे गए थे। बनडोटा में कई जवान घायल हैं और आतंकियों के खिलाफ अभी भी कार्रवाई जारी थी। दो जवान गंभीर रूप से घायल थे और उनको बिलावर के अस्पताल में भेजा गया था। 

उल्लेखनीय है कि जम्मू इलाके को अपेक्षाकृत शांत मानकर वहां फौज की संख्या कम की गई थी और यह रिपोर्ट भी है कि पाकिस्तान से जिन 70 से 80 आतंकियों के घुसपैठ का अनुमान है, उनमें से ज्यादातर अभी इसी इलाके में हैं। वे चार-चार, पांच-पांच की टोलियां बनाकर अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। और बताने का मतलब यह नहीं है कि वे घाटी को छोड़ गए हैं, जब बर्फ पड़ेगी तो घाटी वाली सीमा ही उनके लिए घुसपैठ का रास्ता बनती है। जम्मू-कश्मीर और खास तौर से जम्मू क्षेत्र को आतंकी क्यों वारदातों के लिए चुन रहे हैं, इसको समझना मुश्किल नहीं है। धारा 370 हटे और राज्य का विभाजन हुए पांच साल होने को आए हैं और सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि सितम्बर से पहले जम्मू-कश्मीर में चुनाव हो जाने चाहिएं। राज्य में विधानसभा की सीटों के पुनर्गठन का काम भी पूरा हो चुका है और इसे लेकर भी हल्की नाराजगी है। 

आतंकवादियों की गतिविधियों से इस चुनाव का साफ रिश्ता है। हमने यह भी देखा है कि लंबे चले लोकसभा चुनाव में भी आतंकी घटनाएं बढऩे लगी थीं। यहां हम लद्दाख क्षेत्र के चुनाव और राज्य का बंटवारा करने वाली पार्टी के प्रदर्शन की चर्चा नहीं करेंगे। जम्मू और कश्मीर घाटी में राज्य का बंटवारा मुद्दा था और उससे भी उल्लेखनीय खुद चुनाव था, जिसमें लोगों की भागीदारी तो ठीक-ठाक हुई लेकिन स्थापित दलों की हालत खराब रही। बड़े-बड़े नेता ढेर रहे। नैशनल कांफ्रैंस-कांग्रेस गठबंधन तथा पी.डी.पी. के नेता तो चुनाव लड़े और हारे, लेकिन भाजपा के दुलारे गुलाम नबी आजाद की पार्टी तो घाटी के चुनाव मैदान में उतारने से डर गई और मैदान ही छोड़ दिया। लोगों ने मतदान में हिस्सा लेकर जिन्हें जिताया और जिन्हें हराया, उन सबके माध्यम से अपना साफ जनादेश दिया। पर केंद्र में बैठे नेताओं ने इस जनादेश को ठीक से समझा हो, ऐसा नहीं लगता।

हार या जीत को सीधे फेस करने और चुनाव में हिस्सा लेकर जो संदेश दिया जा सकता था (राजीव-फारूक समझौते के बाद हुए चुनाव में अपनी पराजय के बाद राजीव गांधी ने बड़ी शालीनता से जनादेश को स्वीकार किया था) वह तो दूर, जाने क्या-क्या दावे किए जाते रहे। रक्षा मंत्री और गृह मंत्री तो यह बयान भी देते रहे कि पाक अधिकृत कश्मीर खुद ब खुद हमारी ओर आने वाला है क्योंकि हमने जो उपलब्धियां हासिल की हैं (और पाकिस्तान कटोरा लेकर घूम रहा है), उन्हें देखकर ही कश्मीरी लोग लट्टू हो गए हैं। 

अभी तक राज्य में लाखों की संख्या में जवान तैनात हैं। निश्चित रूप से इसके चलते पहले की तुलना में हाल तक ज्यादा शांति रही है। उनके खर्च की बात छोड़ भी दें तो निवेश से लेकर शेष देश के जुड़ाव के जो सपने दिखाए गए थे, वे कहां हैं, यह कोई भी पूछ सकता है। चुनाव में भी इस तरह के पिटे मोहरों और भगौड़े दस्तों पर लोग कितना भरोसा करेंगे, कहना मुश्किल है। चुनाव कराने के क्रम में ऐसी सख्ती नहीं रखी जा सकती। आतंकी ताक में थे और हथियार-गोला-बारूद तथा प्रशिक्षण पा रहे थे। वारदातें बढऩा उसी का प्रमाण है। और याद रखें कि अब सामान्य गैर मुसलमान लोग या प्रवासी निशाने पर नहीं हैं। रियासी में तीर्थयात्रियों वाली बस को निशाना बनाने तक ऐसी रणनीति दिखती थी। अब तो सीधे फौज के लोग निशाने पर हैं। 

एक थ्योरी यह चल रही है कि पाक अधिकृत कश्मीर में वहां के एक रिटायर ब्रिगेडियर और आई.एस.आई. के आप्रेटर आमीर हमजा समेत 21 कश्मीरी आतंकियों की रहस्यमयी हत्या के बाद से ही ये वारदातें और घुसपैठ बढ़ी हैं। हमजा 2018 में सुंजवां सैनिक कैंप पर हुए हमले से जुड़ा था। उसकी और इन 21 लोगों की हत्या कुछ अनाम बंदूकधारियों ने कर दी थी। हत्यारे कौन थे, इसकी तरह-तरह की व्याख्या है, पर न तो किसी ने इसका श्रेय लेने का दावा किया है न कोई पक्के प्रमाण ही सामने आए हैं। कहा जाता है कि इसके बाद से ही आई.एस.आई. ने लश्कर-ए-तोयबा के कमांडर सैफुला सज्जाद जट्टा, जो उसके एक दस्ते का नेतृत्व कर रहा है, को इसका बदला लेने का जिम्मा सौंपा है। घटनाएं इसी के चलते बढ़ी हैं। अब इस थ्योरी को मानने का मतलब पी.ओ.के. में रॉ की गतिविधियों को बड़ा और सही मानना होगा। पर बीच चुनाव में ऐसा होगा, यह अविश्वसनीय लगता है।-अरविन्द मोहन 
 


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