विकास का ‘एनकाउंटर’, पिक्चर अभी बाकी है

Sunday, Jul 12, 2020 - 03:33 AM (IST)

चौबेपुर का दुबे विकास करके छब्बे बनने की बजाय पुलिस के एनकाऊंटर में मारा गया। एक ऐसा दानव जिसने अपने अध्यापक, पूर्व राज्य मंत्री,  रिश्तेदार और अनेक पुलिस अधिकारियों को निशाना बनाया, उसके साथ शायद ही किसी की सहानुभूति होगी? मां की मानें तो वह भी विधायक बनने का ख्वाब देखता था, लेकिन खाकी के खून से हाथ सनने के बाद, महाकाल भी विकास को नहीं बचा पाए। कोरोना से लडऩे के लिए सरकार की नीति है कि हमें रोग से लडऩा है रोगी से नहीं। सिस्टम की दीमक और रोग से लडऩे की बजाय पुलिस ने छुटभैये रोगी को एनकाऊंटर में मारने का फैसला लिया। एनकाउंटर करने के पीछे दो मकसद होते हैं। पहला पुलिस की विफलता और राजनेताओं की कलंकगाथा के सबूतों को दफऩ करना। 

दूसरा जनता के सामने पुलिस की महानायक की छवि को पुख्ता करना। न्यायिक जांच में एनकाऊंटर शायद जायज साबित हो जाए और इस पर गैंग्स ऑफ कानपुर जैसी कोई एक्शन फिल्म भी बन जाए, लेकिन लोगों को एनकाऊंटर की हास्यास्पद पटकथा पर यकीन नहीं है। आम जनता के जहन में अनेक सवाल हैं। गिरफ्तारी के बाद से ही विकास के कई बयान मीडिया में आने लगे थे। सवाल यह है कि एनकाऊंटर के पहले चलती गाड़ी में विकास का बयान पुलिस ने कब लिया? एनकाऊंटर साइट से 2 किलोमीटर पहले ही चैकपोस्ट लगाकर मीडिया के काफिले को रोकने से संदेह पूरी तरह से पुख्ता हो जाता है। 

विकास ने महाकाल मंदिर के अहाते में निहत्थे गार्ड के सामने सरेंडर कर दिया तो फिर दुर्घटना में घायल और जंजीरों से जकड़े रहने के बावजूद उसने हथियारबंद पुलिस वालों पर गोली कैसे चलाई? विकास और उसके साथियों के एनकाऊंटर टी.वी. हैडलाइंस से पीड़ित जनता को तात्कालिक खुशी भले ही प्रदान करें, लेकिन कानून और संविधान के नजरिए से ऐसी घटनाएं चिंताजनक हैं। 

खाकी, खादी और अपराध के रिश्तों का एनकाऊंटर हो
विकास दुबे पुलिस, नेता और भू-माफिया के आपराधिक त्रिकोण का एक छोटा-सा नमूना था। विकास दुबे पुलिस के साथ गठजोड़ और अपराध की सीढिय़ों से बुलंदी पर पहुंचा और कुछ सालों बाद ही एनकाऊंटर में पुलिसिया अंदाज में उसे निपटा दिया गया। विकास जैसे माफिया यूपी, बिहार, हरियाणा और पंजाब समेत देश के सभी राज्यों में बहुतायत में मिल जाएंगे। 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट से जाहिर है कि ऐसे शातिर अपराधियों के दम पर ही नेताओं की राजनीति और पुलिस वालों की दुकान चमकती है। 

अब चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों को अपने अपराधों का विस्तृत विवरण अखबारों के माध्यम से जनता के सम्मुख सार्वजनिक करना होगा। जिस आदमी के खिलाफ 62 आपराधिक मामले दर्ज थे, उसे दो दर्जन हथियारों के लाइसैंस मिलने की जांच भी होनी चाहिए। विकास के मोबाइल के कॉल डिटेल और उसके बैंक अकाऊंट के विवरण यदि सार्वजनिक हों तो पुलिस और राजनेताओं के आपराधिक गठजोड़ के आॢथक पक्षों का खुलासा अभी भी संभव है। 

संविधान और सुप्रीम कोर्ट के अनुसार फर्जी एनकाऊंटर पर बैन
संविधान के अनुच्छेद 21 में हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार है और सजा देने के लिए विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करना जरूरी है। कानून और संविधान के अनुसार किसी को भी फर्जी तरीके से एनकाऊंटर में नहीं मारा जा सकता। कुछेक मामलों में लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद जिला जज फांसी की सजा दे भी दें तो उस पर हाईकोर्ट के जज की मुहर के बगैर अमल नहीं हो सकता। हाईकोर्ट जज के अधिकारों को पुलिस इंस्पैक्टरों द्वारा मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने से खाकी दागदार होती है। पिछले साल हैदराबाद में महिला डाक्टर से बलात्कार करने वाले चार अपराधियों के पुलिस एनकाऊंटर के बाद हल्ला मचने पर सुप्रीमकोर्ट ने मामले की जांच के लिए न्यायिक आयोग का गठन किया, जिसकी अभी रिपोर्ट भी नहीं आई। 

आम जनता के लिए कानून कैसे काम करेगा। देश में आम जनता से जुड़े कई करोड़ मुकद्दमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। अन्याय से पीड़ित आम जनता को नेता और अफसरों द्वारा  कानून और अदालतों पर भरोसा रखने की नसीहत दी जाती है। विकास जैसे मामलों में एनकाऊंटर से साफ है कि पुलिस, प्रशासन और सरकार का खुद से जुड़े मामलों में अपनी ही न्यायिक व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं है। एनकाऊंटर के मामलों की मीडिया में महिमामंडन के बाद आम लोग भी अदालती व्यवस्था को दर-किनार करके खुद ही हिसाब-किताब बराबर करने की जुगत भिड़ाने में लग जाते हैं। मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा पिटाई और हत्या के मामलों में बढ़ोतरी इसकी एक झलक है। इस मानसिकता के विस्तार से रूल आफ लॉ यानी विधि के शासन पर ही सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। 

आपराधिक न्याय व्यवस्था में लंबित सुधार
न्यायिक व्यवस्था के 3 हिस्से हैं। पहला, कानूनी व्यवस्था जिसके तहत आई.पी.सी., सी.आर.पी.सी., एविडैंस एक्ट और सिविल प्रोसीजर कोड जैसे ब्रिटिश कालीन कानून है। व्हाट्सएप के जमाने में लोगों को अब चि_ी लिखना भी बोझ लगता है, लेकिन देश अभी भी आदिम कानूनों का बोझ ढो रहा है। अपराध होने के कई साल बाद गवाही, बहस और फैसले के समय तक पीड़ित पक्ष और गवाह हताश या मरणासन्न हो जाते हैं। इन कानूनों को संसद और विधानसभाओं के माध्यम से दुरुस्त करने में हमारे राजनेता पूरी तरह से विफल रहे हैं। न्यायिक व्यवस्था का दूसरा हिस्सा पुलिस है। ब्रिटिश काल के आदिम पुलिस सिस्टम को सुधारने के लिए सन  2006  में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया था, जिस पर राज्यों और केंद्र द्वारा अभी तक अमल नहीं हुआ। विकास दुबे मामले में कांग्रेस, सपा, बसपा और भाजपा भले ही आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करें, लेकिन पुलिस सुधार के मामले में विफलता के लिए सभी राजनीतिक दल सामूहिक तौर पर जिम्मेदार हैं। 

कुछ महीने बाद दशहरे के त्यौहार में पुतले का दहन होगा, लेकिन विकास जैसे रावण और भी बढ़ते जाएंगे। अब सिस्टम को ठीक करने के लिए विकास की बजाय माफियागिरी की लंका का एनकाऊंटर करना होगा। न्यायिक और पुलिस व्यवस्था को ठीक करने की बजाय मनमाफिक तरीके से लोगों को ठोकने का सिलसिला यदि और बढ़ा तो कानून के शासन की बजाय हम  कबीलाई दौर में पहुंच जाएंगे।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)

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